6 दिसंबर 2020 का ज्ञानप्रसाद
जब गुरुदेव ने शांतिकुंज के लिए धरती का चयन किया :
पूज्य गुरुदेव शांतिकुंज के लिए जमीन तलाश रहे थे। 1968 के दिन थे उन्हीं दिनों पास की प्रायः सभी जमीनों को देखते ,परखते एक स्थान पर आ कर ठहर गए। पास में कुछ और भी लोग खड़े थे जो देखे गए भूखंडों की अनुमानित कीमतें, विविध दृष्टिकोणों से उनकी विशेषताएं बता रहे थे। पता नहीं इस बातचीत ने उनके कानों में प्रवेश किया या नहीं पर वह यथावत खड़े जैसे अविज्ञात की किन्हीं रहस्यमयी तरंगों को पकड़ रहे थे। मुखमंडल में किसी तरह की प्रतिक्रिया का कोई चिह्न नहीं उभरा। अचानक उन्होंने अपनी धोती समेटी और सामने खड़े भूखण्ड का एक चक्कर लगाया। एक सन्तोष की रेखा झलकी मानो खोज पूरी हुई।
“मुझे यह जमीन खरीदनी है, बात चलाओ।”
“यह?” एक शब्द के उच्चारण के साथ सभी के चेहरे पर आश्चर्य घनीभूत हो उठा। सामान्य तौर पर यह उचित भी था। घुटनों से भी गहरा दलदल, छाती तक बड़ी घास, यातायात की असुविधा। ऐसी जगह को खरीदने की सोचना कम से कम बुद्धिमत्ता की दृष्टि से तो कतई ठीक नहीं।
” हाँ, यही।”
उनका जवाब था जो शायद बुद्धि की सीमाओं से अछूते किसी क्षेत्र से उभरा था। पर यहाँ की दलदली भूमि में न तो मकान बन सकेंगे। फिर कीमतें भी ज्यादा है। प्रायः सभी ने अपनी अक्ल की सीमाओं को छूते हुए अपने-अपने तर्क प्रस्तुत किये।
इन दिनों उनके मन में ” अध्यात्म की एक जीती जागती प्रयोगशाला ” बनाने की योजना उतरी थी। एक ऐसी प्रयोगशाला जहाँ मानव की आंतरिक संरचना में फेर बदल किया जा सके। उसकी अंतःशक्तियों को जगाया निखारा जा सके। समाज के लिए लोकसेवियों को गढ़ना, नवयुग को मूर्त करना गुरुदेव के महत्वपूर्ण उद्देश्य थे। ये सभी कल्पनाएं जहाँ से मूर्त हो सकें ऐसी कार्यशाला हर स्थान पर तो नहीं बन सकती। पर सहयोगियों के अपने तर्क थे।
जिन परिजनों ने शांतिकुंज में सत्र किये हैं ,शांतिकुंज की भूमि पर अपने पांव रखे हैं ,शांतिकुंज में कुछ समय बिताया है अवश्य ही परिचित होंगें कि कौन -कौन सी योजनाएं चल रही हैं और और कैसे यह प्रयोगशाला अपने कार्य की और अग्रसर हो रही है।
कुछ वैसी ही स्थिति आ पड़ी जैसी श्री अरविन्द के सामने चन्द्रनगर से पाण्डिचेरी प्रस्थान करते समय आयी थी। उनके समक्ष भी सहयोगियों के सुझाव थे – तप करने के लिए वहीं क्यों? पॉन्डिचेरी जिसे आजकल पुडुचेरी नाम दिया हुआ है दक्षिण भारत में केंद्र शाषित प्रदेश है।
श्री अरविन्द एक संक्षिप्त जानकारी :
श्री ऑरबिंदो ( अरविन्द ) बहुत ही उच्च ज्ञान से शिक्षित होने वाले भारतीय थे। स्वामी विवेकानंद से केवल 9 वर्ष छोटे, इंग्लैंड से ICS की डिग्री लेने वाले अरविन्द बहुत ही धार्मिक एवं योगिक सम्पदाओं से सम्पन्न थे। भारत आने पर वह राजनीति में और भारत के स्वंत्रता संग्राम में भी बहुत सक्रीय रहे। स्वंत्रता संग्रम में कई बार जेल भी गए। अलीपुर जेल में उन्हें 15 दिन तक लगातार विवेकानंद और उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस दिखाई देते रहे। यही यह मोढ़ था जिसने अरविन्द को योगिक गुरु बना दिया और चन्द्रनगर से पुडुचेरी की ओर प्रस्थान करने पर विवश किया। ऐसे होती है अंतरात्मा की आवाज़। आज विश्व भर में जिस internal योग की बात हो रही हैं यह श्री अरविन्द और मिर्रा अलफासा नामक अरविन्द की आध्यात्मिक सहयोगी की ही देन है। पेरिस में जन्मी मिर्रा अलफासा श्रीमाता के नाम से प्रसिद्ध हैं।
इस संक्षिप्त जानकारी के उपरांत आइये चलते है श्री अरविन्द की अंतरात्मा की आवाज़ की ओर।
पुडुचेरी उन दिनों फ्रांस ( French East India Company ) शासित प्रदेश था।
चन्द्रनगर ,कोलकाता से इतने दूरस्थ प्रदेश में , ऊपर से उन दिनों की यात्रा की कठिनाइयाँ, स्वजनों का विछोह – क्या कारण था कि श्री अरविन्द के ह्रदय में इस स्थान
की बात आयी। एकान्त वास तो कहीं भी किया जा सकता है फिर स्थान विशेष का आग्रह किस लिए? श्री अरविन्द का जवाब था-
“भगवान गुरु का आदेश है। तुम लोग बाद में देखोगे, समझोगे।”
इस कथन के सम्मुख सभी तर्क मौन हो गये थे । बाद में रहस्य उद्घाटित हुआ कि पाण्डिचेरी दुर्धर्ष तपस्वी महर्षि अगस्त्य की तपस्थली थी। यह स्थान अध्यात्म की अकूत सम्पदाओं को स्वयं में संजोये था। इन प्रचण्ड संस्कारों वाली भूमि केअलावा अतिमानस की प्रयोगशाला और कहाँ स्थापित होती?
गुरुदेव के संदर्भ में भी जवाब यही था -गुरु का आदेश है। दिव्यसत्ता ने इसी स्थान के बारे में निर्देशित किया है। तुम लोग बाद में देखोगे समझोगे। सभी तर्क शिथिल हो गए। आर्थिक हानि, असुविधाओं का रोना-धोना बेकार रहा।
सब कुछ निश्चित हो जाने पर एक दिन पूज्य गुरुदेव ने धीरे से कहा :
” जानते हो यह स्थान ब्रह्मर्षि विश्वामित्र की तपस्थली रही है। गंगा की सप्त धाराओं में से एक धारा कभी इसी स्थान को सींचती रही है।”
सुनने वाले भौंचक्के थे। प्रखर से भी प्रखर बुद्धि गुरुदेव जैसे महायोगी के सम्मुख कितनी बौनी हो जाती है, आज यह स्पष्ट हो रहा था तो कोई क्या बोलता। गुरुदेव कह रहे थे :
” देवदारु को रेगिस्तान में नहीं उगाया जा सकता। शुष्क स्थानों पर उगने वाली कटीली झाड़ियाँ, वहाँ के पशु पक्षी हिमाद्रि में अपना अस्तित्व गंवा बैठेंगे। संसार की प्रत्येक वस्तु को अपना पूर्ण विकास करने के लिए एक ” निश्चित वातावरण ” चाहिए। आध्यात्मिकता भी इसकी अपेक्षा करती है। “
अपेक्षा पूरी हुईं। गंगा की गोद, हिमालय के पद प्रान्त में स्थित विश्वामित्र की तपस्थली, ऋषि युग्म की दीर्घ तपश्चर्या, नित्य यज्ञ, लक्षाधिक साधकों के साधनात्मक पुरुषार्थ से तीर्थ, महातीर्थ और अब युगान्तर चेतना के गोमुख के रूप में परिवर्तित हो गई है।
शांतिकुंज नाम से जाना जाने वाला यह दिव्य क्षेत्र सहस्राधिक वर्षों तक मानवता को नवीन प्राण देता रहेगा। गुरुदेव ने खुद कहा है :
” माताजी का प्राण और हमारा प्राण एवं यहाँ की तपश्चर्या की ऊर्जा यहाँ सारे वातावरण में भरी रहेगी । “
जो परिजन सहकर्मी शांतिकुंज जा चुके हैं इस बात को प्रमाणित कर सकते हैं कि इस दिव्य स्थान पर साधना करने वाला व्यक्ति सहज ही उच्चस्तरीय प्राण- ऊर्जा से भर उठता है और उसे जीवनोत्कर्ष की भावभरी प्रेरणाएँ मिलती हैं। चार द्वारों में से किसी से भी प्रवेश करते ही एक शांतिभरा वातावरण साधक को अनुभव होता है। शांतिकुंज आध्यात्मिक दृष्टि से अपने स्तर का अनुपम स्थान है। सप्तऋषियों की तपोभूमि, सप्तधारा वाले क्षेत्र में गायत्री महातीर्थ का निर्माण किया गया है। इस संस्कारित भूमि में अभी भी गायत्री के तत्त्वदृष्टा ऋषि विश्वामित्र की पुरातन संस्कार चेतना मौजूद है। शांतिकुंज में रहने वाले तथा बाहर से आने वाले आगन्तुक सभी बड़ी मात्रा में साधना करते हैं और आत्मबल प्राप्त करते हैं। आत्मबल को अन्य सभी बलों की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। ओजस्, तेजस्, और वर्चस् उसकी विशेष उपलब्धियाँ हैं। यहाँ के वातावरण में रहने पर भाव संवेदना का उभार सहज ही होने लगता है। यह प्रत्यक्ष उपलब्धियाँ हैं और परोक्ष वे हैं, जिसमें हिमालय की सूक्ष्म शरीरधारी सत्ताओं और सप्तऋषियों के अनुदान बरसते रहते हैं। जिस दैवी सत्ता ने महान परिवर्तन की रूपरेखा बनायी है, उसी ने इस भूमि का चयन , निर्धारण , पूजन और परिशोधन किया है। उसी दैवीसत्ता ने यहाँ बैटरी चार्ज करने जैसी अतिरिक्त व्यवस्था भी बनायी है जिसके प्रवाह से सभी को अनुप्राणित होने का अवसर मिलता है। जो इसके साथ भावनापूर्वक जुड़ जाते हैं, वे यहाँ के वातावरण में व्याप्त दिव्य प्राण- ऊर्जा से लाभान्वित होते हैं और थोड़े समय में ही बहुत कुछ प्राप्त कर लेते हैं। अधिकतर परिजन यहाँ बैटरी चार्ज करने प्रतिवर्ष आते रहते हैं। शांतिकुंज की शिक्षण व्यवस्था दैवी- कृपा से ऐसी है जिस पर रामायण की यह चौपाई अक्षरशः लागू होती है, जिसमें कहा गया है कि
” गुरु गृह गये पढ़न रघुराई। अलप काल विद्या सब आई “
भगवान राम तो खुद ही भगवान थे लेकिन उन्हें भी गुरु कि आवश्कयता पड़ी थी। मुनि वशिष्ठ के आश्रम में भगवान राम ने थोड़े समय में ही सब शिक्षा प्राप्त कर ली थी।
साथियो! यह गंगोत्री का वह क्षेत्र है-जहाँ से ज्ञान गंगा निकलती है। गोमुख से गंगा निकलती है। आप यह मानकर चलिए कि यह गोमुख है। यहाँ से चारों ओर को ज्ञान का प्रकाश फैला है। चारों ओर को गंगा की धाराएँ बही हैं और चारों ओर हरियाली फैली है। यहाँ से चारों ओर को जेनरेटरों के तरीके से प्रकाश फैलाया है। यह प्रकाश का केन्द्र है, यह सामान्य नहीं, असामान्य है। आपने कई तीर्थ देखे होंगे, कई बार गंगा स्नान किये होंगे, कई मंदिर देखे होंगे, पर आपको शांतिकुंज में दुबारा आये बिना चैन नहीं पड़ेगा और न ही पड़ना चाहिए।
इसी संदर्भ में हम यहां यह भी कहना चाहेंगें कि ऑनलाइन ज्ञानरथ के माध्यम से जो ज्ञानप्रसाद आपके समक्ष परोसा जा रहा है इसको लिए बिना आप रह नहीं सकेंगें। बार- बार इस ज्ञान प्रसाद को प्राप्त करके खुद तो लाभांवित होंगें ही औरों में भी वितरण करके गुरु कार्य में अपना योगदान देंगें क्योंकि हमारे गुरुदेव कोई व्यक्ति नहीं वोह तो विचार हैं।
इति श्री
परमपूज्य गुरुदेव एवं वंदनीय माता जी के श्री चरणों में समर्पित