
आज के लेख में हम बताएंगें कि हमारे परमपूज्य गुरुदेव पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य को पंडित की उपाधि से सुशोभित किसने और कैसे किया। गुरुदेव को अधिकतर लोग श्रीराम शर्मा के नाम से जानते थे और स्वाधीनता संग्राम में गाँधी जी के साथ स्वाधीनता के मतवाले होने के कारण श्रीराम मत्त के नाम से जाना जाता था। तो श्रीराम शर्मा कैसे बन गए पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य। जानिए आगे वाली पंक्तियों में।
बाबू गुलाब राय -एक प्रसिद्ध व्यक्तित्व
यह उपाधि बाबू गुलाब राय जी द्वारा दी गयी। इटावा ,उत्तर प्रदेश में जन्मे गुलाबराय जी साहित्य के क्षेत्र में एक जानी पहचानी हस्ती थी। आगरा कॉलेज से philosophy में MA की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात् गुलाब राय छतरपुर आ गए। बाबू जी छतरपुर के महाराजा के निजी सचिव ( प्राइवेट सेक्रेटरी ) और बाद में महाराजा के दीवान और चीफ जज की पदवी पर कार्यरत रहे। हमें जिज्ञासा हुई कि देखें दीवान का क्या अर्थ होता है। आजकल के संदर्भ में यह पदवी किस स्तर की होगी। हमारे सहकर्मियों को भी पता चलना चाहिए कि जिन महापुरष ने गुरुदेव को पंडित की उपाधि से सुशोभित किया वह कौन थे।
उन दिनों भारत में छोटी -छोटी रियासतें थी। एक रियासत का नाम था छतरपुर जिसके अंतिम महाराजा भवानी सिंह थे। दीवान की पदवी मुख्य मंत्री के बराबर होती होगी। विकिपीडिया में दीवान को प्रधान मंत्री भी वर्णित किया गया है। महाराजा की मृत्यु के उपरांत गुलाब राय जी आगरा आ गए और हिंदी लेखन में जुट गए और अंतिम दिनों तक अपनी मृत्यु तक लेखन का कार्य करते रहे। 13 अप्रैल 1963 में वह इस दुनिया से विदा ले गए। उनकी स्मृति में भारत सरकार द्वारा 5 रुपए का डाक टिकट भी जारी किया गया। गुलाब राय जी का हिंदी साहित्य में बहुत ही उच्च स्थान है। हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपति V V Giri ने उन्हें डॉक्टरेट की डिग्री से सम्मानित किया।
तो ऐसा था बाबू गुलाब राय जी का व्यक्तित्व जिन्होंने हमारे गुरुदेव को पंडित की उपाधि से सुशोभित किया।
अब करते हैं उस घटना का वर्णन :
आंवलखेड़ा ( आगरा ) स्थित यमुना किनारे सनातन धर्म मंदिर के प्रबंधकों ने गुरुदेव को मास पारायण रामायण पाठ के आयोजन की स्वीकृति तो दे दी परन्तु जब उन्हें पता चला कि इस आयोजन से इकट्ठी होने वाली दक्षिणा हरिजनों के लिए प्रयोग की जाएगी तो उन्होंने दी हुई स्वीकृति वापिस ले ली। गुरुदेव के विरोध में कुप्रचार भी करने लगे। छल का आरोप लगाया और कहने लगे कि गुरुदेव सनातन धर्म को भ्र्ष्ट करने की साजिश रच रहे हैं। स्वीकृति वापिस लेने पर गुरुदेव ने इन सभी आरोपों की परवाह किए बिना यमुना के तट पर एक एक तख़्त पर व्यासपीठ स्थापित की और इस कार्यक्रम का आयोजन किया। तख़्त के चारों किनारों पर बांस लगा कर उन्हें केले के पत्तों से ढक दिया। छत की कोई आवश्यकता नहीं समझी गयी। खुले में ही बैठने का प्रबंध किया गया। तीन दिन के लिए 150 लोगों के बैठने कि व्यवस्था कर दी। गुरुदेव ने अपना प्रवचन वेदों और उपनिषदों पर केंद्रित रखा। भागवत सबको पवित्र करने के लिए है। जिन लोगों को उपनिषद का ज्ञान नहीं हो सकता यां समझना कठिन है यह प्रवचन उस दिशा में है। जब प्रेत पिशाच योनि के जीव भी इनको सुन कर मुक्त हो जाते हैं तो मनुष्य की तो बात ही क्या करनी। पहले दिन केवल 30 लोग ही आए। डेढ़ घंटा प्रतिदिन प्रवचन का कार्यक्रम बनाया गया। लोग आना ,दो आना चढ़ावा चढ़ा देते। इस चढ़ावे का हिसाब रखने के लिए गुरुदेव ने मांगी लाल का चयन किया। मांगी लाल एक दलित जाति का था। उसे पढ़ने का अवसर न मिला परन्तु हिसाब में बहुत ही सक्षम था। मांगी लाल को जब अर्थ व्यवस्था का कार्य सौंपा तो वह कुछ सकुचाया भी था। पर गुरुदेव कहने लगे ,
” इस कथा प्रवचन का उदेश्य दलितों का उद्धार है तो उचित होगा कि कार्यभार कोई उस जाति वर्ग का ही संभाले।”
मांगी लाल ने कोई विरोध नहीं किया और चुपचाप कार्य में लग गया। गुरुदेव ने प्रवचन के लिए भागवत की पोथी का सहारा लिया। वह प्रसंग पढ़ते जाते और अर्थ समझाते जाते। गुरुदेव ने अपने पिता से सुने कुछ प्रसंगों में भी स्मृति दौड़ाई। प्रवचन शैली कोई अधिक प्रभावपूर्ण नहीं थी लेकिन बिल्कुल नौसिखियों जैसी अनगढ़ भी नहीं थी। छोटी मोटी राजनैतिक सभाओं में भाषण देने के इलावा हमारे गुरुदेव को बोलने का कोई अभ्यास नहीं था। गुरुदेव के प्रवचन में भी यह स्टाइल झलकता था। हमारे वरिष्ठ पाठकों और सहकर्मियों ने गुरुदेव की ऐसी झलक अवश्य देखी होगी। लेकिन फिर भी राजनैतिक सभाओं वाला अनुभव काम आया। आठ -दस दिन में ही प्रवचन जमने लगा। सामान्य लोगों के इलावा अधिकारी स्तर के व्यक्ति ,साहित्यकार ,पत्रकार और बुद्धिजीवी भी आने लगे। प्रवचन की सूचना समाचार पत्र ” सैनिक ” ही देता था।
एक दिन गुलाब राय भी प्रवचन सुनने आए। वह गुरुदेव को केवल पत्रकार के रूप में ही जानते थे। कथावाचक का यह अवतार उन्होंने पहली बार ही देखा। यह अवतार तो कुछ अपरिचित और नई किस्म का था। उस दिन प्रवचन समाप्त हुआ तो उठ कर व्यासपीठ के पास जाकर दो शब्द कहने लगे। उन्होंने गुरुदेव की व्याख्यान शैली को – हिमालय से उतर कर मैदान में आती गंगा की तरह बताया जो वेगवती है ,अनगढ़ है , निर्मल है ,स्वच्छ है और अल्हड़ भी है।
बाबू गुलाब राय ने अल्हड़ पर अधिक ज़ोर दिया। जिन्हे अल्हड़ का अर्थ नहीं पता हम बता दें -भोलाभाला ,जिसे दीन -दुनिया का अधिक ज्ञान न हो। उनके व्याख्यान का महत्वपूर्ण सन्देश इस प्रकार था :
” हम अभी तक श्रीराम जी को , मत्त जी को एक पत्रकार ,लेखक ,और समाजिक कार्यकर्त्ता के रूप में जानते हैं। कथावाचक का यह रूप इनका नया रूप है। मैं तो इन्हे पंडित जी ही कह कर पुकारूंगा और आप लोगों में से जिसे रूचि हो और वह इसी नाम से पुकारें तो मुझे प्रसन्नता होगी।”
बाबू जी की घोषणा सभी ने हर्षध्वनि से स्वीकार की। श्रीराम मत , श्रीराम शर्मा मत को अब पंडित श्रीराम शर्मा मत की मान्यता मिली।
” उस समय पंडित की उपाधि किसी को ऐसे में ही नहीं मिल जाती थी। शास्त्रों पर अधिकार और धर्म की समझ के साथ पवित्रता का निर्वाह होने पर ही किसी को पंडित कहा जा सकता था। समाज में कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति ही इस तरह की मान्यता देता था। बाबू गुलाब राय द्वारा हमारे गुरुदेव को पंडित घोषित करना इन सभी मापदंडों को पूरित करता है। वरिष्ठ कार्यकर्त्ता ,वयोवृद्ध और अतिनिकट लोगों के लिए गुरुदेव फिर भी श्रीराम ही रहे। परन्तु गुरुदेव के नाम के साथ एक नया विशेषण ” पंडित ” जुड़ जाना कितना सुखदायक था। “
इस आयोजन में चढाई दक्षिणा में 171 रूपए इकट्ठे हुए। आयोजन का खर्चा गुरुदेव ने ,मांगी लाल और बाकि के कार्यकर्ताओं ने उठाया था। 171 रूपए निर्धारित लक्ष्य से अधिक इकट्ठे हुए थे ,गुरुदेव ने कहा – जितनी भी राशि अधिक इकट्ठी हुई है उसे हरिजन फंड में दे दिया जाये। राशि अधिक इकट्ठी होने का कोई भी उल्लास नहीं था। इतनी राशि तो गुरुदेव अपने गांव में कुछ परिजनों से ही प्राप्त कर लेते थे। इस समारोह के आयोजन का उदेश्य 250 – 300 लोगों तक समाज के निर्मलीकरण ( purification ) का सन्देश पहुँचाना ही असल उपलब्धि थी। इस उदेश्य को प्राप्त करने से गुरुदेव बहुत ही प्रसन्न हुए। ।
गुरुदेव की प्रसन्नता :
सैनिक कार्यालय में मिलने वाले वेतन से गुरुदेव ने पहली बार ताई ( गुरुदेव का माता जी ) और पत्नी के लिए साड़ी खरीदी। ” सैनिक ” उस समय का एक प्रसिद्ध समाचार पत्र था जिसमें गुरुदेव कार्य भी करते थे और लेख भी लिखते थे। यह उपहार खरीदने के लिए गुरुदेव ने पालीवाल जी से चार रूपए एडवांस लिए थे। एडवांस लेने का कारण सुन कर पालीवाल जी मुस्कराए थे। गुरुदेव यह उपहार लेकर दौड़े -दौड़े आंवलखेड़ा गए थे।
हर लेख की तरह इस लेख को लिखते समय भी हम यही प्रयास कर रहे हैं कि कोई भी ज़रूरी क्षण मिस न हो जाये और उन दिनों के ,7- 8 दशकों की परिस्थितियां आपके समक्ष चित्रित कर सकें। जिन पुस्तकों का गहन अध्यन करके हम यह लेख आपके समक्ष प्रस्तुत करते हैं बहुत से परिजनों ने पढ़ी होंगी और एक बार ही नहीं कई- कई बार पढ़ी होंगी। आशा करते हैं हम गुरुदेव का जीवन आपके हृदय में उतारने में सफल हो रहे हैं।
केवल एक ही निवेदन : इन सभी लेखों को अपने सर्किल में शेयर करके गुरुदेव के प्रति अपना समर्पण सिद्ध करें , यही हम सब की श्रद्धा है।
आज का लेख समाप्त
जय गुरुदेव