आज का लेख आरम्भ करने से पूर्व हम अपने सहकर्मियों को कहना चाहते हैं कि अगले कुछ लेखों की कड़ी एक दूसरे के साथ बिल्कुल माला के मोतियों की तरह जुडी हुई होगी। हम इन सभी कड़ियों (अंकों ) को एक के बाद एक आप के समक्ष प्रस्तुत करते जायेंगें लेकिन आपसे यह अनुरोध करेंगें कि इन में से किसी को भी बीच में बिना पढ़े मत छोड़ें इससे लिंक टूट जायेगा। चेतना की शिखर यात्रा 1 में से इस टॉपिक की प्रेरणा मिलने के उपरांत हमने पिछले कई दिनों से अपने सामर्थ्य और विवेक के अनुसार कई पुस्तकों के पन्ने उल्ट -पलट कर देखे , कई वीडियो देखीं ,विकिपीडिया में भी रिसर्च की तो निष्कर्ष यही निकला कि यह सभी जानकारी एक लेख में देना सम्भव तो है लेकिन इतना लम्बा लेख हमारे पाठकों के लिए कैलाश यात्रा से कम न होगा। वह तो मार्ग में ही थक हार कर हिम्मत छोड़ देंगें। हमारे पाठक और हम गुरुदेव तो है नहीं कि मार्गदर्शक का निर्देश शिरोदार्य हो। हमारे सहकर्मियों ने अपनी गृहस्थी की चिंता भी तो करनी है जो सर्वोपरि है। तो मित्रो आने वाले लेख परमपूज्य गुरुदेव के महर्षि रमण के साथ बिताये क्षणों का वर्णन करेंगें। महर्षि रमण उन गिने चुने व्यक्तियों में हैं जिन्होंने पृथ्वी पर ईश्वर प्रकट करने का प्रयत्न किया। उनके बारे में इतना विशाल साहित्य उपलब्ध है कि हम अपने पाठकों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए संक्षिप्त में ही कहेंगें। दक्षिण भारत में स्थित तमिलनाडु प्रदेश में जन्में रामणा महर्षि यां महर्षि रमण को बचपन से ही अरुणाचल पर्वत में जिन्हे वो भगवान शिव का रूप ही कहते थे अत्यंत श्रद्धा थी। केवल 16 वर्ष की आयु में आत्मज्ञान प्राप्त हुआ और रमणाश्रम यां अरुणाचालश्रम की स्थापना की। अरुणाचल पर्वत के इर्द -गिर्द 16 किलोमीटर परिधि की यात्रा एक दिव्यता का आभास तो देती ही है लेकिन श्रद्धालु इसको मुक्ति का मार्ग भी कहते हैं। तो आईये करें आज के लेख की दिव्य यात्रा :
गुरुदेव की महर्षि रमण से साक्षात्कार की अनुभूति
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के साथ हमारे गुरुदेव ने स्वंत्रता आंदोलन में एक सक्रीय भूमिका निभाई। इसका विस्तारपूर्वक विवरण किसी और लेख में शेयर करंगें। आज हम अपने पाठकों को गुरुदेव की दक्षिण भारत के महान संत महर्षि रमण के आश्रम की यात्रा पर लेकर जा रहे हैं। अरुणाचलम यां अरुणाचल पर्वत जो तिरुवन्नामलाई के नाम से भी जाना जाता है दक्षिण भारत का कैलाश है। महर्षि रमण ने तो इसे साक्षात् शिव का ही रूप दे दिया है। हम अपने पाठकों से यह कहना चाहेंगें कि अरुणाचलम को भारत के उत्तर पूर्वी राज्य अरुणाचल प्रदेश के साथ confuse न किया जाये।
तो आइये सबसे पहले गुरुदेव की अंतः दृष्टि की बात करते हैं :
बात 1934 की है ,गुरुदेव की आयु २३ वर्ष होगी। आगरा में गांधीजी के साथ कार्यकर्ताओं की मीटिंग चल रही थी। छुआछात को मिटाने और समाज में बराबरी लाने की बात चल रही थी। सभी युवकों की दृष्टि गुरुदेव पर पड़ रही थी क्योंकि इससे पहले हरिजन महिला छपको की घटना का उल्लेख आया था। पंडित और पुरोहितों के परिवार में जन्म लेकर एक हरिजन महिला की तीमारदारी और सेवा करना कोई साधारण बात नहीं थी। जिस समय की बात हम कर रहे हैं उस वक्त हमारा देश क्या था सभी को विदित ही है। गुरुदेव ने सब की निगाहों को भांप लिया और कहने लगे ” मैं अपनी ज़िम्मेदारी से कभी भी भाग नहीं सकता लेकिन अभी मुझे 2 सप्ताह का अवकाश चाहिए ” सभी ने गुरुदेव की और देखा तो गुरुदेव ने कहा , ” मैं कुछ समय के लिए यात्रा पर जाना चाहता हूँ ” साथियों ने कहा – कोई बात नहीं यह काम तो साथ -साथ में चलता रहेगा ,इसके लिए अलग समय तो निकालना नहीं है। गुरुदेव कहने लगे ,” आपकी बात तो ठीक है परन्तु स्थानीय स्तर पर कुछ कर सकना कठिन होगा। ” इसके इलावा गुरुदेव ने और कुछ नहीं कहा और तैयारी में लग गए ”
इस यात्रा का निर्देश भी दादा गुरु (मार्गदर्शक) से आया था। जिस दिन अरुणाचल जाने की प्रेरणा मिली उसी दिन प्रातः ध्यान में एक विलक्षण सी अनुभूति हुई। गुरुदेव ने ध्यान में एक पर्वत देखा जो बहुत ऊँचा नहीं था। हिमालय यां उस तरह का पर्वत नहीं था ढाई -तीन हज़ार फुट की ऊंचाई होगी। उस पहाड़ के इधर उधर पत्थर गिरे हुए थे। पत्थर इस तरह फैले हुए थे कि लगता था कुछ समय पहले ही कोई युद्ध हुआ हो और योद्धाओं ने एक दूसरे पर जम कर प्रहार किया हो। पहाड़ के चारों तरफ छायादार वृक्ष थे ,धूलभरी सड़कें और पथरीली भूमि का विस्तार था। ध्यान करते-करते ही यात्रा आगे बढ़ती है। एक विशाल मंदिर सामने दिखाई देता है ,मंदिर में कईं ऊँचे -ऊँचे द्वार थे। उनके कारण पूरा मंदिर ही द्वारों का समूह दिखता था। एक द्वार तो दस मंज़िला है ,उसे पार करके मंदिर के गर्भ गृह में प्रवेश होता है। मंदिर के अंदर शिवलिंग प्रतिष्ठित है। श्रद्धालु सभी पांचों द्वारों पर शिव की आराधना कर रहे हैं। परिक्रमा में पार्वती ,कार्तिक्ये ,गणेश ,नवग्रह ,दक्षिणामूर्ति और कईं शिवभक्तों की प्रतिमाएं स्थापित हैं। गुरुदेव पहचान नहीं पा रहे थे कि यह वैभवशाली तीर्थ किस प्रदेश में है। पूजा अर्चना में भक्तजन जिन स्तुतियों का पाठ कर रहे थे उनसे बोध हुआ कि यह स्थल द्रविड़ देश ( तमिलनाडु ) में स्थित अरुणाचल है। शिवजी के वाहन नंदीश्वर ने पृथ्वी पर कैलाश के कुछ शिखर स्थापित किये। उनमें से एक यह अरुणाचल है। उसी स्तुति में एक स्वर गुरुदेव को सम्बोधित करता हुआ निर्देश दे रहा है :
” यहाँ की यात्रा करो। अरुणाचल ज्ञान ,भक्ति और योग का रूप है। शिव का भक्ति रूप यहाँ ही व्यक्त हुआ था। ज्ञान और योग की झांकी देखने के लिए अरुणाचल की परिक्रमा में स्थित रमन आश्रम में आओ। वहां महर्षि प्रतीक्षा कर रहे हैं। अब अरुणाचल की और प्रस्थान करो ”
यह उद्बोधन थोड़ी देर के लिए रुकता है और स्तुतिगान फिर से गूंजने लगता है और फिर वही स्वर सुनाई देता है।
ध्यानावस्था में यह प्रेरणा ही थी जिसने गुरुदेव को अपने स्वतंत्रता संग्राम कार्यकर्ताओं की बात न मानने पर विवश किया था। और यह प्रेरणा भी तो दादा गुरु द्वारा ही दी गयी थी। उनकी प्रेरणा और निर्देश के आगे गुरुदेव ने कभी भी आनाकानी नहीं की। महर्षि रमण ने भी गुरुदेव से पूछा था – तुम यहाँ पर अपने मार्गदर्शक सत्ता के निर्देश पर ही आए हो न। ध्यानवस्था से निकलते ही गुरुदेव ने अरुणाचल पर्वत की ओर प्रस्थान करने का निश्चय कर लिया। इस अनुभूति और अंतः प्रेरणा के दो दिन बाद ही गुरुदेव अरूणाचल की ओर रवाना हो गए।
जो परिजन गुरुदेव को निकट से जानते हैं उन्हें इस तथ्य पर विश्वास करने में ज़रा भी संशय नहीं हो सकता कि गुरुदेव जैसी अवतारी सत्ता ही अपनी इच्छा से इतनी दूर का दृश्य देख सकते हैं। आगरा से अरुणाचलम की दूरी लगभग 2000 किलोमीटर है और इतनी दूर का दृश्य देखना केवल दिव्यदृष्टि से ही संभव हो सकता। सुप्रसिद्ध हिंदी टीवी सीरियल महाभारत में संजय भी तो अपनी दिव्य दृष्टि से कुरुक्षेत्र में चल रहे युद्ध का आँखों देखा हाल धृतराष्ट्र को दिखाए जा रहे थे। ऐसा था भारतीय विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय। पिछले कल ही गुरुदेव की दिव्य दृष्टि की पुष्टि आदरणीय चिन्मय भाई साहिब के उद्बोधन से हो रही थी। चिन्मय जी बता रहे थे की एक कार्यकर्त्ता शांतिकुंज में हो रहे किसी बात की वीडियो बना कर गुरुदेव को दिखाने ले गए। गुरुदेव ने तुरंत कहा – शांतिकुंज में क्या हो रहा है इसके लिए मुझे वीडियो की आवश्यकता नहीं है। इस परिसर में कहीं कोई मक्खी भी उड़ती है तो मुझे उसका पता चल जाता है। ऐसे हैं हमारे गुरुदेव – स्वयं भगवान हमारे गुरु परम् सौभाग्य हमारा है।
आज का लेख केवल गुरुदेव की अनुभूति पर ही आधारित है, हम यहीं पर विराम देंगें। अगले लेख में हम आपको अरुणाचल ले चलेंगें इस आशा के साथ कि आप इसका अगला पार्ट पढ़ने को उत्सुक होंगे।
जय गुरुदेव