गुरुदेव की हिमालय यात्राओं पर तो कितने ही प्रसंग लिखे जा चुके हैं परन्तु यह प्रसंग ,यह लेख थोड़ा लम्बा होने के कारण शायद कई भागों में पूरा हो। अपने विवेक के अनुसार और पाठकों की सुविधा को ध्यान में रख कर जहाँ भी अल्प विराम देना पड़ेगा देने का प्रयास करेंगें। इस लेख के सभी भागों में हम इस बात का ख्याल रखेंगें कि कोई भी important बात छूट न जाए। हमारा मन है कि इस लेख को इस प्रकार प्रस्तुत करें, घटनाओं का चित्रण ऐसा हो कि आपको हम अपने सामने बैठे हुए पाएं। गूगल सर्च से सिख धर्म के पवित्र स्थान हेमकुंड साहिब के बारे में कुछ तथ्य सात पहाड़ियों वाली झील को कनफरम करती है। तो चलिए आरम्भ करते हैं।
चैत्र नवरात्री मार्च 1928 के दिनों की बात होगी। गुरुदेव जो उन दिनों श्रीराम के नाम से प्रसिद्ध थे लगभग 17 वर्ष के होंगें। अभी 2 वर्ष पूर्व ही उनके गुरु सर्वेश्वरानन्द जी उनको ढूंढते हुए उनकी पूजा की कोठरी में आए थे और उन्हें कई प्रकार के निर्देश देकर चले गए थे। श्रीराम ने नवरात्र में कुछ विशेष तो नहीं किया, केवल निराहार रहने का संकल्प लिया था। दूध और जल पर ही निर्भर रहना था। उस दिन पंचमी थी ,श्रीराम प्रातः ढाई -तीन बजे उठे और नित्य उपासना में लग गए। मन में कुछ अनोखी सी ख़ुशी हो रही थी कि कुछ नया करना है । क्या नया करना है पता नहीं । किसी अगले पड़ाव पर रवाना होना है। पूजा सम्पन्न करके बैठे ही थे कि भीतर से एक पुकार सुनाई दी। ठीकउसी तरह की जो दो वर्ष पूर्व पूजा की कोठरी में सुनाई दी थी। आज वह मार्गसत्ता प्रकट तो नहीं हुई ,वाणी भी ऐसी नहीं थी कि दूसरों को सुनाई दे। आंतरिक क्षेत्र में वही गुंजन हुआ। पिछली बार संकेत मिला था कि प्रतक्ष्य सानिध्य के लिए हिमालय आना होगा । वह समय आ गया।
उत्तराखंड में अभी बर्फ जमी हुई है। बद्री केदार के कपाट भी बंद हैं। महीने भर में खुलेंगें, इतना समय तो तैयारी और वहां पहुँचने में लग ही जायेगा। निर्देश अंदर से आ रहा था। ऐसा लग रहा था कोई अंदर बैठा बोल रहा है। संध्या- जप से निवृत होने के तुरंत बाद माँ से कहा-
माँ ने कहा :
” तो ठीक है दो सप्ताह लगेंगें। इतने दिन के लिए पूरे इंतेज़ाम से जाना ,इधर मौसम बदल गया है लेकिन वहां हर समय सर्दी रहती है। ओढ़ने पहनने के लिए कोई ढील मत करना। सर्दी के कपड़े अपने साथ ही रखना। मैं ही सारा सामान अपने हाथों से जमा दूंगीं और पंडित जी से पूछ लेना गंगोत्री तक गए है ,रास्तों के बारे में जानते होंगें “
श्रीराम ने अपने हिमालयवासी गुरु के बारे में कभी कोई ज़्यादा चर्चा नहीं की थी। दो -चार बार छुटपुट रूप में बताया था -वह हिमालय में रहते हैं , कहीं भी जा सकते हैं ,प्रकट हो सकते हैं आदि आदि। माँ ने तो अनुमति दे दी थी परन्तु रिश्ते में चाचा लगने वाले पंडित धर्मदीन ने उनसे कहा कहा ,
” भाभी अकेले कहांजाने दे रही हो ? वहां साधु -सन्यासी वैराग की पुड़िआ खिला देंगें। इस बात पे माँ हंस -हंस कर रह गयी। कहने लगी अगर कोई सलाह देनी है तो यही दो कि रास्ता ठीक से कट जाये। आस -पास के लोगों ने भी यही सलाह दी कि अकेले मत जाने दो। माँ को यही चिंता खाये जा रही थी कि बैसाख में बद्री केदार के क्षेत्र में बहुत सर्दी होती है , कुछ सर्दी वाला आहार जैसे कि तिल , अदरक,शहद इत्यादि देना जारी रखा। माँ की नज़रों में हिमालय बद्री -केदारनाथ ही था यां फिर गंगोत्री ,यमनोत्री। श्रीराम को तो स्वयं भी मालूम नहीं था कि हिमालय का आमंत्रण किस क्षेत्र के लिए है। लोगों से पूछ कर कुछ गर्म कपड़े ,जुराबें ,मोटे रबर के तले वाले बूट ,कंबल ,मोमबत्ती ,लाठी , टॉर्च आदि का इंतेज़ाम कर लिया। दो थैलों में सब सामान डाल दिया ,किसी ने कहा – लोहे के संदूक में सामान डाल देना था ,बारिश से थैले गीले होने का डर हो सकता है। ताई ( माँ ) ने कहा लड़का इतना भारी सामान कहां उठाता फिरेगा। बारिश से जहाँ खुद को बचाएगा सामान को भी बचा लेगा। ताई ने जो सामान बांधा था वह बहुत अधिक नहीं था ,कोई आधा मन ( तकरीबन 20 किलो ) भी नहीं था। 23 अप्रैल को श्रीराम ऋषिकेश पहुंचे थे। गंगा घाट पर बैठे कुछ साधु मिल गए थे, वोह बद्रीनाथ जा रहे थे श्रीराम भी उनके पीछे -पीछे चलने लग पड़े। बातों बातों में शीत से बचना ,मार्ग की कठिनाइयां इत्यादि आयीं पर इन पर विचार करना व्यर्थ था ,जिस मार्गदर्शक ने बुलाया है वही आगे का सारा प्रबंध करेंगें। कुछ सामान ऋषिकेश ही छोड़ दिया। मार्गदर्शक सत्ता का भाव आया और सोचा अगर वह बर्फ से घिरे पर्वतों के बीच वस्त्रों के बगैर रह सकते हैं तो फिर इन कपड़ों का क्या औचित्य।। देवप्रयाग,रुद्रप्रयाग ,कर्णप्रयाग ,नंदप्रयाग और विष्णुप्रयाग होते हुए बद्रीनाथ पहुंचा जा सकता है। सामान्य मार्गों से ऋषिकेश से बद्रीनाथ की दूरी 300 किलोमीटर है परन्तु साधुओं ने अलग ही रास्ता चुना। यह रास्ता केवल सात किलोमीटर लम्बा था। यह तो अविश्वसनीय लगता है परन्तु हमारे गुरुदेव के कार्य तो ऐसे ही हैं। अज्ञात रास्तों से होते हुए वह लोग अगली शाम जोशीमठ पहुँच गए। गुरुदेव अगली प्रातः स्नान करके जोशीमठ के प्रसिद्ध नरसिंह मदिर के दर्शन करने गए। नरसिंह अवतार भगवान विष्णु का चौथा अवतार है। जोशीमठ की स्थापना अदि शंकराचार्य ने की थी। उन्होंने भारत के चारों दिशाओं में एक -एक मठ स्थापित किया। बाकि के तीन श्रृंगेरी (कर्नाटक) , पुरी(ओडिशा ) और द्वारका (गुजरात ) हैं। यहाँ नर और नारायण पर्वत की कथाएं बहुत ही प्रचलित हैं। कहा जाता है कि जिस दिन नर और नारायण पर्वत मिल जायेंगें तो बद्री नाथ जाना बंद हो जायेगा और फिर बद्री विशाल की पूजा- आराधना भविष्य बद्री में होगी और कलयुग का अंत हो जायेगा।इस जगह के बारे में इतनी कथायें प्रचलित हैं कि उनका वर्णन करते करते गुरुदेव की यात्रा अपना मार्ग खो देगी इसलिए गुरुदेव से समबन्धित बातों पर ही केंद्रित हुआ जाये। मंदिर के अंदर स्फटिक ( quartz ) के शिवलिंग का अभिषेक करने के उपरांत बाहर आकर एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे। थकावट इतनी हो गयी थी कि आँख लग गयी। आधा घण्टे के बाद आँख खुली तो सामने झरने में मुंह हाथ धोये और सोचने लगे कहाँ जाना है। अंतर्मन से यां फिर मार्गसत्ता का निर्देश आया कि भविष्य बद्री होते हुए मानसरोवर की ओर निकलना चाहिए। गुरुदेव नीतिघाटी की ओर चल दिए । लगभग 10 किलोमीटर चलने के बाद गुरुदेव तपोवन पहुंचे। यहाँ के hot water springs बहुत ही प्रसिद्ध हैं। उनमें से भाप तो ऊपर आती दिखाई देती है परन्तु जल गुनगुना सा होता है। गुरुदेव ने स्नान किया और थकान बिल्कुल दूर हो गयी। सामने विष्णु मंदिर था परन्तु इसका द्वार अभी खुला नहीं था। मंदिर के बाहिर ही वृक्ष के नीचे एक शिला थी। इस शिला पे कोई प्रतिमा सी बनी हुई थी। कुछ फूल भी थे ,ऐसा लगता था किसी ने पूजा की हो। लेकिन प्रतिमा के ऊपर धूल से अनुमान लगया जा सकता था कि पूजा 3 – 4 दिन पहले की हो। धूल साफ की तो प्रतिमा स्पष्ट तो हो गयी परन्तु पहचानी न जा सकी क्योंकि यह अधूरी थी केवल ऊपर का भाग जिसे धड़ कहते हैं बना था। थोड़ी ही देर में पुजारी जी आ गए , देख कर जिज्ञासा हुई कि प्रतिमा के बारे में पूछा जाये और मंदिर के दर्शन किये जाएँ। गुरुदेव के पूछे बिना ही पुजारी जी कहने लगे ” क्या बात है , पास से दर्शन करने हैं ? सवा रुपया लगेगा ” मंदिर के गर्भ गृह के अंदर जाकर दर्शन करने के पैसे थे। ” अभी तो कोई भीड़ नहीं है ,इसीलिए कह रहा हूँ। ” गुरुदेव कहने लगे ,” नहीं मैं मर्यादा नहीं तोड़ना चाहता ,इधर से ही ठीक है ” लेकिन कुछ समय उपरांत गुरुदेव को ख्याल आया कि यहाँ कौन सा इतना चढ़ावा होता है ,उन्होंने थैले में से सवा रुपया निकाला और पुजारी जी को दे दिया। पुजारी जी को खुश देखकर गुरुदेव को शिला पर बनी प्रतिमा पर प्रश्न करने को मन हुआ। पुजारी जी ने बताया यह प्रतिमा विष्णु जी की है और स्वयं ही बनती चली जा रही है। जब यह पूरी हो जायगी तो नर और नारायण पर्वत भी मिल जायेंगें और बद्री विशाल यहीं पे पूजे जायेंगें। नर और नारायण पर्वतों का मिलना आज का विज्ञान भी दर्शाता है। यह एक disaster prone क्षेत्र है और यहाँ landslides बहुत ही आम हैं।
मंदिर के दर्शन के बाद गुरुदेव फिर चलना शुरू हो गए। एक अज्ञात यात्रा पर जाने का उल्लास मन में अजीब सी प्रसन्नता दे रहा था। ऐसा लग रहा था कोई अदृश्य शक्ति हमें खींचे जा रही है। करीब 25 किलोमीटर यात्रा के बाद गुरुदेव एक झील के किनारे रुके। झील चारों तरफ सात पहाड़ियों से घिरी हुई थी। झील के किनारों पर जगह -जगह चौकियां बनी हुई थीं। गुरुदेव एक चौकी पर बैठ गए और इधर उधर देखने लगे। झील का जल इतना साफ़ और निर्मल था की उसमें अपना प्रतिबिम्ब देखा जा सकता था। गुरुदेव जिस चौकी पर बैठे थे वहां से गुरुदेव ने गणना आरम्भ की तो पाया कि झील के किनारे पर 24 चौकियां थीं। क्या यहाँ पर किसी समय ऋषि सत्तायें निवास करती थीं ? किसी समय क्या आज भी हिमालय में ऋषि सत्तायें वास करती हैं। सात पहाड़ियों की इस झील के बारे में बाद में पता चला कि खालसा पंथ के संस्थापक गुरु गोबिंद सिंह ने पूर्व जन्म में यहाँ तप किया था ,तब उनका नाम मेधस मुनि था।
हमें जिज्ञासा हुई कि सात पहाड़ियों के बारे में रिसर्च करें। तो इतना ही मिला कि झील का जल बहुत ही निर्मल और स्वच्छ है और इन सातों पहाड़ियों को सिख धर्म के झंडे सुशोभित कर रहे हैं। कोई वीडियो तो नहीं मिल सकी लेकिन लिखित वर्णन ज़रूर है। हाँ कई जगहों पर ट्ववीट ज़रूर हुआ है कि गुरु गोबिंद सिंह जी का पूर्वजन्म का नाम मेधस मुनि था। यही स्थान सिख धर्म का पवित्र तीर्थ हेमकुंड साहिब के नाम से विख्यात हुआ हिम -बर्फ और कुंड- जलाशय।
एक अद्भुत आभास :
गुरुदेव थोड़ी देर इधर झील के किनारे बैठे रहे। उनके बैठने से ऐसा लग रहा था कि किसी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। बैठे बैठे उन्हें लगा कि कोई उनसे संवाद कर रहा है। आस पास देखा, कोई भी तो नहीं है ,आवाज़ फिर भी आ रही थी। चित को शांत करने के बाद ध्वनि स्पष्ट हुई ,ऐसा लग रहा था कि वर्षों से चुप रहे कंठ से आ रही हो ,ऐसे कंठ से जो बोलना भूल चूका हो। ध्वनि की दिशा का अनुमान किया तो पांच आसन दूर एक कृष्णवर्ण ( dark complexion )आकृति दिखाई दी, गुरुदेव को सम्बोधित करके पास बुला रही थी। गुरुदेव चौकी से उठे और पास जाकर प्रणाम किया तो आकृति से आवाज़ हुई -मुझे किसी भी नाम से पुकार सकते हो, मेरा कोई नाम नहीं है। मुझे केवल यह कहने का निर्देश हुआ है -तुम गोमुख पहुंचो – गोमुख से आगे नंदनवन है ,वहां तुम्हारी प्रतीक्षा हो रही है। आकृति ने जैसा कहा गुरुदेव ने वैसे का वैसा स्वीकार कर लिया -प्रश्न तो गुरुदेव ने कभी किया ही नहीं। केवल इतना ही कहा -मार्ग का पता नहीं है। आकृति ने कहा -कठिन नहीं है ,यहाँ से जोशीमठ वापिस जाओ, रास्ते में कुछ लोग मिलेंगे ,कल सायं तक गोमुख पहुँच जाओगे। गुरुदेव ने इसको मार्गदर्श्क सत्ता के किसी प्रतिनिधि का संकेत माना और मान लेने की स्वीकृति में सिर हिलाया और प्रणाम किया। प्रणाम का उत्तर दिए बिना ही आकृति झील के जल में उत्तर गयी और घुटनों तक जाने के बाद अर्ग दिया ,पीछे देखा भी नहीं। गुरुदेव थोड़ी देर झील के किनारे बैठने के बाद जोशीमठ के लिए रवाना हो गए।