सरस्वती देवी गुरुदेव की पहली पत्नी का TB के कारण देहांत हो गया। उनके तीन बच्चे एक बेटा ,दो बेटीआं ओमप्रकाश ,दया और श्रद्धा थे। वैसे तो गुरुदेव को पारिवारिक दुनिया से कोई इतना लगाव नहीं था पर फिर भी पत्नी के निधन के बाद वह उदास रहने लगे। अंतिम संस्कार के उपरांत ताई ने (गुरुदेव की माँ ) इस स्थिति को भांप लिया। लेखन ,साधना ,अखंड दीप,स्वतंत्रता संग्राम इत्यादि सारे कार्य यथावत नियमित चल रहे थे परन्तु उदासी इतनी थी कि हंसना और बोलना जैसे बंद ही कर दिया हो। पहले जब लोगों से मिलते थे तो कभी कभार हास्य विनोद कर लेते ,परिजन भी हँसते और यह हँसियां कई बार रोगियों के चेहरों से उदासी दूर करने में सहायक होती।
ताई जी ने देखा बहू के न रहने से श्रीराम उदास रहते है। कई मुंह लगे लोगों ने भी ताई जी से यह बात कही थी। ताई जी ने यह परिवर्तन बहुत बारीकी से देखा। तीनो बच्चे दादी माँ के साथ ही सोते थे। पिता से घुल मिल नहीं पा रहे थे। एक तो शुरू में पिता जी का सानिध्य न मिला और अब माँ के चले जाने ने उन्हें उम्र से बड़ा बना दिया था। बच्चे पिता जी को व्यस्त देखते तो घर का काम कर देते। जब कभी ताई जी इधर उधर होते बच्चे पिता जी के तथा ताई जी के कपडे धो देते। ओमप्रकाश ने एक बार पिताजी को कपडे धोते देखा तो कहने लगा ” लाइए पिता जी मैं धो देता हूँ ” श्रीराम ने कहा -नहीं बेटा तू अपनी पढाई पूरी कर ले – पिता की बात सुन कर ओमप्रकाश बोले – “नहीं पिता जी आप थक गए होंगे ,मैं झटपट निपटा लेता हूँ ” ओमप्रकाश उस वक़्त 10 – 12 वर्ष के होंगें ,श्रीराम ने हर बार समझाया लेकिन पितृभक्ति आड़े आ रही थी। श्रीराम ने कहा -तुम्हारे हाथ बहुत छोटे हैं थक जायेंगें ,ओमप्रकाश फिर भी ज़िद करते रहे और फिर पिताजी ने डांट दिया। बेटा रोता हुआ दादी के पास चला गया ,दादी ने समझा बुझा कर चुप करा दिया।
रात के 10 : 30 बजे थे श्रीराम अपने कमरे में जाग रहे थे। ताई ने जब देखा तो आकर पूछा , ” कि तुम तो 8 -9 बजे सो जाते हो ,सुबह जल्दी जो उठते हो ,आज क्या बात है ” बिना कोई भूमिका बनाये पूछा ,
” तुमने ओम को डांटा , अच्छा नहीं किया। उसे तुम्हारा ख्याल है ,बहू के
बाद अकेले पड़ गए हो ,उसे ये बात महसूस होती होगी। बिन माँ के बच्चे हैं,
उन्हें भी अकेलापन काटता होगा ”
श्रीराम चुपचाप सुने जा रहे थे ,ताई जी ने जीवन की कठिनाइयों को बताते हुए श्रीराम को एक ही स्वर में कह दिया ,
” मैंने तीनो बच्चों की माँ लाने का फैसला किया है ”
श्रीराम ताई की चतुराई पर हँसे। अगर कहती कि मैं तुम्हारे दूसरे विवाह की बात कर रही हूँ तो शायद मना कर देते। लेकिन उन्होंने फिर भी कुछ ऐसा ही कहा :
” मैं कोई नई ज़िम्मेवारी नहीं लेना चाहता ,एक बार विवाह हो गया बहुत है ,भगवान ने अकेला रख के आगे की राह दिखा दी है ” इतना कहना ही था कि ताई फट पड़ी। कहने लगी , ” क्या राह दिखा दी ,अकेला रहेगा क्या , सन्यासी बनेगा क्या , हिमालय में रहेगा क्या ,मेरा क्या होगा ,बच्चों का क्या होगा “ताई जी इतने उलाहने दिए कि श्रीराम बीच में ही रोककर बोले ,” मैंने सन्यासी बनने को कब कहा है ” ताई जी ने कहा ,अकेला रह कर क्या करेगा, मैं देखती नहीं हूँ कि क्या दिनोदिन ज़िंदगी से दूर होता जा रहा है। न खाने पीने की सुध ,न सोने की सुध, हंसना -बोलना भूल सा गया है ऐसा बिलकुल नहीं चलेगा। इतने सारे उलाहने से न कुछ स्वीकारते न टालते बना। श्रीराम तो अपने जीवन की रूपरेखा निर्धारित कर चुके थे।
महापुरश्चरण साधना पूरा होते ही अपनी मार्गदर्शक सत्ता के प्रतक्ष्य सानिध्य में चले जाना है। लोकरंजन के लिए जो कुछ करना है इसी अवधि में plan किया हुआ है। ताई जी इतनी बात से संतुष्ट न हुई , आखिर माँ थी श्रीराम की यह दशा कैसे चुपचाप देखती रहती।
श्रीराम को पूछे बिना ही ताई ने आंवलखेड़ा गांव में अपने देवर रामप्रसाद शर्मा के पास तुरंत संदेशा भिजवाया। श्रीराम को इस बात का पता तब ही लगा जब चाचा तीसरे ही दिन मथुरा आ गए। उन दिनों श्रीराम चूना कंकर मोहल्ला में रहते थे । रामप्रसाद जी ने आते ही ताई को बताया कि उनके बेटे जगन्नाथ का विवाह वैशाख में निश्चित हुआ है पर आपकी देवरानी नहीं चाहती कि बड़े भाई का घर बसने से पहले छोटे का रिश्ता किया जाये। आप चिंता न करें जल्दी ही आपके घर में भी चूड़िआं खनकेंगीं। चाचा ने अपना हक़ जताते हुए श्रीराम से कोई भी परामर्श नहीं माँगा। कहने लगे -ताई को तंग मत करना अगर काम करने में कोई दुविधा आ रही हो तो कोई नौकर रख लेना। श्रीराम इस स्थिति को भांप रहे थे पर कोई समाधान नहीं मिल रहा था। फिर अंतर्मन से यही आवाज़ आई कि
“साधना का योगक्षेम मार्गसत्ता ही निभा रही है ,जो उचित होगा वही होगा मार्गसत्ता के विपरीत कुछ भी नहीं हो सकता ” योगक्षेम का अर्थ है -अभाव की पूर्ति करना और प्राप्त वस्तु की रक्षा करना
वंदनीय माता भगवती देवी शर्मा गुरुदेव की दूसरी जीवन संगिनी
कुछ दिन के बाद रामप्रसाद फिर आए ,आते ही देहरी में पांव रखते ही कहने लगे -भाभी श्रीराम के लिए बहू मिल गयी है।
बहुत ही सुशील कन्या है। खेलने कूदने में उसका मन कम ही लगता है ,चिड़ियों
को दाना चुगाने , गाय बकरी। कुत्ते आदि चौपायों को चारा ,रोटी खिलाने ,घर
आने वालों की सेवा करने में ही मन लगता है। घर परिवार की सब छानबीन कर
ली है। आगरा के सांवरिया बोहरे के जसवंत राय बोहरे परिवार में जन्मी भगवती
देवी की उम्र लगभग 16 वर्ष की होगी ,रंगरूप में सांवली और दुबली पतली है।
अपने पिता की चौथी संतान है और भजन पूजन में ही ज़्यादा समय बिताती है।
चार पांच वर्ष के होते ही शिव की आराधना आरम्भ कर दी थी। बिना सिखाये ही
पंचाक्षरी मन्त्र ( ॐ नमः शिवाय ) का जाप किया पालथी मार कर मकान के ही
एक हिस्से में बैठकर नमः शिवाय पढने लगी। कुछ दिन बाद पूर्व से सूर्य की
लालिमा को देख कर सविता को जल अर्पण करने लगी।
पूजा पाठ में रूचि देख कर ताई को बहुत ही संतोष हुआ। अकेले रहने से ताई को चिंता सता रही थी कि कहीं बेटा सन्यासी न बन जाए। भगवती देवी के भक्तिभाव से उन्हें लगा कि श्रीराम के वैराग्य और ज्ञाननिष्ठां को बांधे रखने के लिए ऐसी बहू बिल्कुल ठीक रहेगी। रामप्रसाद जी ने बताया कि घर में गायों कि देखभाल वही करती है। श्यामवर्ण की एक गाय तो इतनी घुल मिल गयी है कि चारा पानी कन्या से ही लेती है। अगर कभी देर हो जाए तो रंभाने लगती है और वह स्वर अलग तरह का होता है। ऐसा लगता है जैसे पुकार रही हो
रामप्रसाद ने बताया भगवती देवी (हमारे वंदनीय माता जी ) चार भाई बहिन में से सबसे छोटी थी। घर में सब प्यार से लाली कहते थे। केवल पांच वर्ष की आयु होगी जब माँ का साया सिर उठ गया था। तीनो भाई बहिनो ने अपनी छोटी बहिन का पूरा ख्याल रखा ,उसे माँ की कमी नहीं लगने दी। पंडित जी बता रहे थे कि लाली गुड्डे गुड़ियों से खेलती थी। उसके पास एक कपड़े की गुड़िया होती थी उसका बिल्कुल असली इंसानो की तरह ख्याल रखती थी। कभी बीमार पड़ जाती तो वैद्य जी से इलाज करवाती। वैध जी भी कपड़े के ही थे। एक और बात जो रामप्रसाद जी ने बताई जिससे ताई जी हँसे बिना नहीं रह सकीं। उनकी होने वाली बहु ने गुडिअ के लिए अलग से रसोई ,बर्तन इत्यादि भी बनाये थे। उनका भोजन भी उसी रसोई में तैयार होता था। आने जाने ( गुड्डे गुड़ियों ) वालों को भी उसी रसोई में से खाना मिलता था।
इस बच्ची ( हमारी माता जी ) की गतिविधियां शांतिकुंज और दूसरे
गायत्री संस्थानों में चल रहे माता जी के चौके की पृष्ठभूमि की साक्षी हैं
बड़े होने पर आने जाने वाले अतिथियों की सेवा करना ,भोजन के लिए सभी का ख्याल रखना और किसी को भी ,कभी भी भोजन किये बिना घर से नहीं जाने देना। यह अतिथि सत्कार आज भी शांतिकुंज ,मथुरा ,आंवलखेड़ा और हर गायत्री साधक के घर पर अनवरत चल रहा है। जब भी परिजन प्रातः जीजी और श्रद्धेय डॉक्टर साहिब से मिलने जाते हैं तो वह उनसे भोजन इत्यादि की व्यवस्था के बारे में ज़रूर पूछते हैं।
श्रद्धा भक्ति और अतिथि सत्कार देख कर ताई ने बिना कुछ पूछताछ किये रिश्ते को हाँ कह दी। जसवंत राय जी एक बार आकर कुंडली देख कर रिश्ता पक्का कर गए ,उन्होंने श्रीराम के बारे कोई जाँच नहीं की। कुंडलियां इतनी अच्छी मिलीं हैं कि शिव पार्वती की जोड़ी की संज्ञा दी जा सकती है।
सात दशक पहले के भारत में तीन बच्चों के साथ इस
आयु में विवाह होना एक अनहोनी सी बात ही लगती है
पर हमारे गुरुदेव ,वंदनीय माता जी के ऊपर दैवी
सत्ताओं का संरक्षण और मार्गदर्शन था
सम्बन्ध तय हो गया और 10 मार्च 1946 सोमवार वाला दिन विवाह के लिए निश्चित हुआ। विकर्मी कैलेण्डर के अनुसार फाल्गुन मास की सप्तमी इसी दिन को थी। सम्बन्ध तय होने के दौरान यह भी निश्चित हुआ कि लाली के साथ उनकी आत्मीय सगी श्यामा गाय भी आएगी। कन्या धन और गोधन दोनों को एक साथ विदा किया जायेगा और विवाह बिल्कुल सादगी और बिना शोरशराबे के ही सम्पन्न किया जायेगा। विवाह में श्रीराम ने एक खादी की धोती और कुर्ते का कपड़ा ही स्वीकार किया। बारात में ताई के अलावा केवल चार लोग ही गए थे। एक पारिवारिक उत्सव की तरह विवाह सम्पन्न हुआ। वधु के मथुरा आने पर गायत्री यज्ञ का आयोजन किया गया। श्रीराम के मित्र और परिचित इसमें ही इक्कठे हुए। वधु ने आते ही घर का वातावरण आत्मसात कर लिया था।
हम इस लेख को यहीं पर विराम दे रहे हैं। मथुरा आने के बाद माता जी के सम्बन्ध में कितने ही लेख लिखे जा सकते हैं। अगले दिनों में हम वंदनीय माता जी का तीनो बच्चों ,ओम,श्रद्धा और दया के प्रति स्नेह , अखंड ज्योति पत्रिका के छपने में आयी कठिनाइयां , गुरुदेव की जीवन संगनी ,गायत्री तपोभूमि मथुरा की भूमि का चयन इत्यादि पर कई लेख लेकर आने वाले हैं।