हमारे गुरुदेव हमेशा अपने गुरुदेव दादा गुरु सर्वेश्वरआनंद जी के आदेश पर हिमालय आते रहे। इन्होने कभी भी कुछ भी आनाकानी नहीं की और न ही कोई प्रश्न किया। जैसे जैसे दादा गुरु कहते गए ,जो जो निर्धारित करते गए ,जो जो भावी रूपरेखा बनाते रहे हमारे गुरुदेव उनको पूरा करते रहे। इसमें जो देखने वाली बात है वह यह है कि शांतिकुंज की प्लानिंग इसी यात्रा में लगभग 30 वर्ष पहले ( 1940 s) दादा गुरु ने नियोजित कर दी थी। और मथुरा प्रवास भी पूर्व नियोजित था कि यहाँ कितना देर रहना है और क्या क्या कुछ करना है।
पहली यात्रा जो 1927 में हुई थी इसमें कई तरह की परीक्षाओं से उत्तीर्ण होकर निकलना पड़ा था। वोह सभी परीक्षायें इस बार माफ़ थीं। ठंड भी कोई खास नहीं थी और कपडे सामान इत्यादि भी ठीक ठीक ही था। रास्ता भी देखा हुआ था इसलिए कोई ज़्यादा कठिनाई नहीं हुई। गंगोत्री तक के रास्ते के लिए किसी से पूछना भी नहीं पड़ा। गंगोत्री से गोमुख 14 मील दूर है ,यह रास्ता कुछ ऐसा है जो हर वर्ष हिमपात के कारण बदल जाता है। चट्टानें टूट जाने कारण इधर उधर गिर जाती है और रास्ता बदलना पड़ता है। आंवलखेड़ा से गंगोत्री लगभग 675 किलोमीटर है परन्तु इस बात का कोई विवरण नहीं मिलता कि गुरुदेव कैसे गए थे। लेकिन एक बात तो पक्की है कि रास्ते आजकल जैसे नहीं थे। जिन्होंने 1972 में अफ्रीका की यात्रा समुद्री जहाज़ में की ,हवाई जहाज़ से भी तो जा सकते थे। शांतिकुंज रह कर रोज़ सायं रिक्शा से हरिद्वार जाते थे। उन्होंने इतना बड़ा तंत्र स्थापित होने के बावजूद साधारण भारतीय की तरह जीवन व्यतीत किया। केवल दो जोड़े कपडे ,यां ज़्यादा से ज़्यादा तीन ,इससे ज़्यादा कभी नहीं।
गोमुख से नंदनवन (तपोवन ) की दूरी केवल 7 किलोमीटर है पर चढाई बहुत ही कठिन है। 7-8 घंटे लग जाते हैं। यह यात्रा गुरुदेव का संदेशवाहक ले जाता था। वह भी सूक्ष्मधारी था। जितनी बार ही हम आए यह सूक्ष्मधारी नंदनवन तक ले जाता और यही वापसी में गोमुख छोड़ जाता। यह छायापुर्ष वीरभद्र स्तर का था और समय समय पर हमारे मार्गदर्शक इसी से काम ले लेते थे। वीरभद्र भगवान शिव के गण जैसे होते हैं। नंदनवन पहुँचते ही गुरुदेव का सूक्ष्म शरीर प्रत्यक्ष रूप में विद्यमान था। उनके प्रकट होते ही हमारी भावनायें उमड़ पड़ी। ऐसा लगा जैसे अपने ही शरीर का कोई खोया हुआ अंग फिर मिल गया हो और उसके आभाव में जो अपूर्णता अनुभव हो रही थी पूरी होती लगी। उनका सिर पर हाथ रख देना ही हमारे प्रति अगाध प्रेम का प्रकटीकरण का प्रतीक था। अभिवादन -आशीर्वाद -शिष्टाचार इसी से पूर्ण हो गया। ऋषि सत्ताओं से पुनः मार्गदर्शन का संकेत मिला हमारा हृदय अति प्रफुल्लित हुआ। सतयुग के सारे ऋषि इस क्षेत्र में दुर्गम हिमालय में निवास करते आए हैं। वैसे तो यह सूक्ष्म शरीरधारी कहीं भी रह सकते हैं परन्तु सबकी नियत एक एक गुफा थी। कुछ समय पहले तक यह ऋषि क्षेत्र ऋषिकेश तक था परन्तु अब वोह क्षेत्र मंदिरों , सरायों और व्यापारियों से भर गया है इन्ही कारणों से इन ऋषि सत्ताओं को स्थानांतरित होना पड़ा।
यहाँ हम अपनी प्रतिक्रिया भी बताना चाहेगें : 2019 वाले प्रवास के दौरान जब हम शांतिकुंज से देवप्रयाग जा रहे थे तो रास्ते में टूरिज्म की दृष्टि से हाईवे का निर्माण तो हो ही रहा था परन्तु उत्तराखंड जिसे हम देवभूमि की संज्ञा देते हैं धीरे धीरे घटती दिख रही थी। Boats ,Gliding , विदेशी पर्यटक इत्यादि श्रद्धालुओं से कुछ ज़्यादा ही दिखाई दिए थे। शांतिकुंज से हमारे साथ एक कार्यकर्त्ता गए थे उनकी भी इस तरह के विकास में ज़्यादातर धारणा नकारत्मक ही थी।
गुरुदेव अपनी प्रथम हिमालय यात्रा में तो इन ऋषि सत्ताओं के साथ केवल प्रणाम ही कर पाए थे परन्तु इस बार गुरुदेव हमें उनके साथ साक्षात् वार्तालाप करवाने ले गए थे। सूक्ष्म शरीर वैसे तो एक प्रकाश पुंज की तरह लगते थे पर जब अपना सूक्ष्मशरीर सही हुआ तो वोह एक दम वैसे दिखने लगे जैसे सतयुग के ऋषि होते हैं। इनके शरीर की जैसे संसारी लोग कल्पना करते हैं वैसे ही दिखे। उनके चरणों पर हाथ रखा और उनके स्पर्श से ह्रदय रोमांच हो उठा। उन्होंने दुखित ह्रदय से कहा :
” जहाँ कहीं देवता रहते थे अब सारा क्षेत्र मंदिरो और धर्मशालाओं से भर गया है ,यह सब धनराशि के स्रोत बन गए हैं तो हमें पलायन तो करना ही पड़ेगा।”
गुरुदेव देखते रहे और हम सुन रहे थे – ऋषि आत्माएं कहे जा रहीं थी –
“हम तो टूटे फूटे खंडहर हैं। जब हम लोग दिव्यदृष्टि से इन क्षेत्रों की स्थिति देखते हैं तो मन बहुत दुखी होता है। यहाँ तहाँ अनेकों ऋषि आश्रम थे। अब तो उनके चिन्ह भर भी नहीं दिखते। हमारी दृष्टि में ऋषि परम्परा एक प्रकार से लुप्त ही हो गयी है। ”
लगभग यही बात इन बीसियों ऋषियों ने कही। सभी की ऑंखें डबडबाई से दिखीं। लगा सब व्यथित हैं। सभी का मन उदास है। उन सबका मन भारी देख कर अपना चित भी भी द्रवित हो गया। सोचते रहे भगवान ने हमें किसी लायक बनाया होता तो इन व्यथित देवपुरषों को देखकर कभी भी चुपचाप चले न जाते। हमारी आत्मा और गुरुदेव की आत्मा साथ साथ चल रही थी हम दोनों एक दूसरे को देख रहे थे। उनके चेहरे पर भी उदासी थी। हे भगवान कैसा विषम समय आ गया है कि किसी ऋषि का कोई भी उत्तराधिकारी नहीं उपजा। सब का वंश नाश हो गया। करोड़ों की संख्या में ब्राह्मण है और लाखों की संख्या में संत कहीं 10 -20 ही जीवित रह जाते तो बुद्ध / विवेकानंद की तरह गज़ब दिखा जाते। अपनी निर्धारित गुफा में आकर सारी रात यही सोचते रहे ,यही विचार दिन भर भी आते रहे। लेकिन गुरुदेव हमारे विचारों को पढ़ रहे थे। मेरी कसक उन्हें भी व्यथित कर रही थी। उन्होंने कहा :
“फिर ऐसा करो -कल फिर चलते हैं – और कहना आप लोग कहते हैं कि अगर आप कहो तो उसका बीजारोपण तो मैं कर सकता हूँ। आप खाद – पानी देंगें तो फसल उग ही पड़ेगी। अगर वोह मान गए तो ठीक नहीं तो मन हल्का हो ही जायेगा। साथ में यह भी पूछना शुभारम्भ कैसे किया जाये , आप रूपरेखा बताएं ,मैं कुछ न कुछ अवश्य करूँगां।
गुरुदेव के आदेश पर मैं यह भी कह सकता था :
मैं तो आपके आदेश पर जलती आग में जल मरूंगा जो होना होगा देखा जायेगा। प्रतिज्ञा करने और उसे निभाने में प्राण की साक्षी देकर प्रण तो किया ही जा सकता है।
गुरुदेव हमारे विचार पढ़ रहे थे अबकी बार मैंने देखा ,उनका चेहरा ब्रह्मकमल जैस खिल उठा। मैं पीछे पीछे चल रहा था। हमें वापिस आता देख कर ऋषिसत्ताओं के मन खिल गए। मैं हाथ जोड़े खड़ा ,मंत्रमुग्ध देख रहा था। गुरुदेव खुद ही मेरा प्रस्ताव अपनी ही तरफ से प्रस्तुत कर रहे थे। उन्हें मेरे ऊपर विश्वास जो था। गुरुदेव ने मेरी इच्छा परावाणी में सुनाई और कहा :
यह निर्जीव नहीं है ,जो कहता है उसे करेगा भी आप बताये आपका जो कार्य छूटा है उसका बीज आरोपण कैसे हो। अगर हम खाद पानी डालते रहेंगें तो इसका उठाया हुआ कदम खाली नहीं जायेगा। इसके बाद गुरुदेव ने गायत्री पुरश्चरण की पूर्ति पर मथुरा में होने वाले सहस्रकुण्डि यज्ञ में छाया रूप में पधारने का आमंत्रण दिया और कहा :
यह बंदर तो है ,पर है हनुमान यह रीछ तो है ,पर है जामवंत गिद्ध तो है ,पर है जटायु आप निर्देश दीजिये और आशा कीजिये जो टूट गया है वह फिर से विनिर्मित होगा और अंकुर वृक्ष बनेगा।
मित्रो यह है समर्पण का प्रभाव। जब हमारे गुरुदेव ने दादा गुरु के समक्ष अपने आप को आग में कूदने तक भेंट कर दिया तो उन्होंने ऋषि सत्ताओं को कैसे प्रभावित किया। गुरुदेव को एक अक्षर भी कहना नहीं पड़ा। वह चुपचाप एक समर्पित साधक की तरह सुनते रहे ,देखते रहे। क्या हममें इतना समर्पण है ? ज़रा सोचिये !!!!
जय गुरुदेव