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स्वामीजी के साथ प्रोफेसर मैक्स मूलर की रेलवे स्टेशन पर मर्मस्पर्शी मुलाकात-लेख श्रृंखला का 11वां लेख   

आज अंग्रेजी वर्ष 2025 का अंतिम दिन 31 दिसंबर है जिसे New  years eve के नाम से सारे विश्व में क्या,भारत में भी पूरी रौनक और जोश के साथ मनाया जाता है। इस अवसर पर  बड़े-बड़े संकल्प लिए जाते हैं, पार्टियां होती हैं, धन-बल का,शक्ति का भरपूर प्रदर्शन किया जाता है लेकिन ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से  स्वामी विवेकानंद पर प्रकाशित हो रही लेख श्रृंखला से जो ऊर्जा प्राप्त हो रही है उसके आगे प्रत्येक बल फीका ही लग रहा है। 

स्वामीजी जैसे महान व्यक्तित्व के महासागर में से डुबकी मार कर जो अमूल्य रत्न प्राप्त हो रहे हैं,उन्हें तराश  कर, पूर्ण श्रद्धा से सजा-संवार कर  साथिओं के समक्ष प्रस्तुत करने में जो आनंद का आभास हो रहा है उसे शब्दों में वर्णन करना असंभव है। 

24 जनवरी 2022 को इसी मंच से हमने एक लेख प्रकाशित किया था जिसमें  स्वामीजी की अरबपति बिजनेसमैन रॉकफेलर और सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक निकोला  टेस्ला के साथ मुलाकातों का वर्णन था। दोनों ही मुलाकातों में स्वामीजी के व्यक्तित्व की झलक थी। पूर्ण आनंद तो  लेख पढ़ने से ही आ सकता है लेकिन इतना ज़रूर बता दें कि  निकोला टेस्ला जैसा वैज्ञानिक जिसके पास खाने के लिए तो समय है नहीं  लेकिन स्वामीजी के उद्बोधन सुनने के लिए घंटों प्रतीक्षा कर सकता था। इसी तरह का एक प्राणी जिन्हें  श्रीमद्भगवतगीता के अनुवाद करने का श्रेय प्राप्त है,नाम है Professor  Max Muller, स्वामीजी को विदाई देने के लिए आंधी-पानी की चिंता किये बिना रेलवे स्टेशन आ गए थे।स्वामीजी के पूछने पर कहने लगे: “श्रीरामकृष्ण के सुयोग्य शिष्य से मिलने का सौभाग्य प्रतिदिन तो नहीं मिलता।” लन्दन में स्वामीजी के उद्बोधन को सुनने के लिए गणमान्य परिवारों की महिलाएं  कुर्सियों के आभाव में ज़मीन पर बैठी रही थीं। 

तो साथिओ यह है उस व्यक्तित्व की शक्ति जो अपने जाने के बाद भी हमें इन पंक्तियों के माध्यम से वोह शक्ति प्रदान किये जा रहे हैं जिसे  हम अनवरत इस लेख श्रृंखला में अनुभव कर रहे हैं। नमन है ऐसे व्यक्तित्व को।  

स्वामीजी पर आधारित लेख श्रृंखला का आज प्रस्तुत किया गया 11वां लेख ऐसा ज्ञान लिए हुए है जिसे पढ़कर हम सब यह कहने को प्रेरित होंगे “मेरा भारत महान,शत शत नमन है मेरी मातृभूमि,मेरी माँ की भूमि को।”

जय भारत!!! इन्ही शब्दों से आज के लेख का शुभारम्भ होता है लेकिन  विश्व शांति के साथ : 

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

अर्थात शान्ति: कीजिये प्रभु ! त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में,अन्तरिक्ष में, अग्नि – पवन में, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन में,सकल विश्व में अवचेतन में,शान्ति राष्ट्र-निर्माण और सृजन में,  नगर , ग्राम और भवन में प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण – कण में, शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए

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पश्चिम में विजय-अभियान चलाते समय स्वामीजी अपने ह्रदय में लिए  भारतवर्ष को कभी भी भूले नहीं थे। भारत की स्मृति उनके हृदय की गहराई में घर किये हुए थी। तभी तो उन्होंने पाश्चात्य देशों में रहते समय ही भारतवर्ष के विभिन्न स्थानों पर केन्द्र एवं शाखाएँ बनाकर जनता में राष्ट्रीयता का बोध जगाने के लिए अपने शिष्यों और गुरुभाइयों को अनुरोध करते कहा था:

स्वामीजी का सन्देश  निष्फल नहीं गया। उनके गुरुभाइयों तथा शिष्यों ने उनकी पुकार का उत्तर दिया। कलकत्ता और मद्रास में दो केन्द्र बनाकर जन-जागरण कार्य शुरू हुआ। 

स्वामीजी जब इस प्रकार अमेरिका में वेदान्त-प्रचार करते हुए भारत में संगठन का कार्य भी कर रहे थे, उसी समय उन्हें यूरोप से भी वेदान्त-प्रचार के लिए आमन्त्रण मिला। कुछ अंग्रेज मित्रों ने उनसे बार-बार इंग्लैंड आने का अनुरोध करते हुए लिखा, “यहाँ पर वेदान्त-प्रचार के लिए विस्तृत क्षेत्र पड़ा है। आपके आने पर सारी व्यवस्थाएँ कर दी जाएँगी।” इस आमन्त्रण को उन्होंने भगवान् का ही आदेश माना और अपने एक धनाढ्य मित्र के साथ स्वामीजी अगस्त 1895 में लन्दन पहुँचे।

भारत पर उस समय अंग्रेज़ों का राज्य था, भारतीयों पर भांति-भांति के जुल्मों की कहानियां सभी जानते थे, स्वामीजी ने इंग्लैण्ड आने से  पूर्व ही खूब सोचा था कि  पराधीन देश के एक हिन्दू प्रचारक को अंग्रेज कैसे ग्रहण करेंगे लेकिन इस बारे में उनकी दुविधा  शीघ्र ही दूर हो गयी। कुछ ही दिनों में इन महातेजस्वी युवा संन्यासी ने बहुत से लन्दन वासियों का ध्यान आकर्षित कर लिया। तीन सप्ताह भी पूरे नहीं हुए थे कि महत्त्वपूर्ण क्लबों और सोसाइटियों से उन्हें ढेरों निमन्त्रण आने लगे। 22 अक्तूबर को उन्होंने पिकैडली के  प्रिंसेस हाल में “आत्मज्ञान” विषय पर पहला व्याख्यान दिया, जिसके प्रभाव का वर्णन करते हुए स्टैंडर्ड समाचार पत्र ने लिखा था:

कुछ ही दिनों में स्वामीजी ने अंग्रेज जाति का हृदय जीत लिया।समाचार पत्र उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। एक Editorial  ने लिखा था:

लन्दन में स्वामीजी का कार्य अच्छी तरह अग्रसर होने लगा। अंग्रेज जाति ने उन्हें ह्रदय की श्रद्धा के साथ ग्रहण किया। 

स्वामीजी ने कहा था:

लगभग तीन महीने लन्दन में प्रचार करने के बाद अमेरिकी शिष्यों के बारम्बार अनुरोध पर स्वामीजी  6  दिसम्बर को वापिस अमेरिका आ गए।अमेरिका लौटकर अपने कार्य को स्थायी रूप देने के लिए वे संगठन और उपयुक्त सहयोगी तैयार करने में जुट गये। प्रचारक के रूप में उन्होंने भारतवर्ष से अपने गुरुभाइयों को लाने की भी व्यवस्था की। उन्होंने ‘कर्मयोग’ और ‘भक्तियोग’ पर जो व्याख्यान दिये थे, वे भी धीरे-धीरे पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए। अमेरिका और यूरोप का बुद्धिजीवी वर्ग उनसे बहुत प्रभावित हुआ।

उनकी बातें सुनने को उत्सुक लोगों की भीड़ लग जाया करती थी । क्लबों और विश्वविद्यालयों से लोग आते। उदारपन्थी ईसाई और स्वाधीन विचारों वाले बुद्धिजीवी आग्रहपूर्वक आते। संशयवादी आलोचक भी आते। उन्होंने सबका स्वागत किया, सबको ग्रहण किया। पाश्चात्य देशों की अर्थ-व्यवस्था, शिल्पकला, जनशिक्षा, अजायबघर, कल-कारखाने, वैज्ञानिक प्रगति और जनहितकर कार्यों की उन्होंने जी खोलकर प्रशंसा की और भारतवर्ष की प्रगति के लिए उन्होंने इन सबकी आवश्यकता भी महसूस की; लेकिन  साथ ही उन्होंने कठोर शब्द में यह भी व्यक्त किया कि पाश्चात्य सभ्यता की भौतिक-भोगतृष्णा (Physical desire for pleasure),धनलोलुपता(Greed for money), साम्राज्यवाद( Imperialism,दूसरों पर राज्य करना), विश्व को निगल जाने की भूख  और अन्य राष्ट्रों के रक्त से अपने शरीर के पोषण की वृत्ति आदि का तथाकथित साम्य और मैत्री के साथ दूर का भी नाता नहीं है। 

पश्चिमी देशों में स्वामीजी का  मुख्य उद्देश्य  पूर्व और पश्चिम की सभ्यताओं के मिलन के लिए एक  सेतु का निर्माण करना और धर्म और विज्ञान के परस्पर आदान-प्रदान के द्वारा “एक नयी सभ्यता का” गठन करना था । अनेक शताब्दियों के बाद भारतीय संस्कृति को स्वामी विवेकानन्द के भीतर से पुनर्जीवन का पथ मिला।

स्वामीजी की सर्वश्रेष्ठ देन  की ओर संकेत करते हुए विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ने कहा था: 

भारतवर्ष के इतिहास के पश्चिम को नकारकर हमें चिरकाल के लिए रूढ़िवादी  प्रथाओं में बांधकर  कर रखना उनके जीवन का उद्देश्य कभी नहीं था। भारतीय साधना का पश्चिम को अनुदान और पश्चिमी विकास को भारत में लाना स्वामीजी का मुख्य उद्देश्य था। इस लेनदेन का पथ प्रशस्त करने में उन्होंने अपने जीवन की आहुति दे दी थी। 

विवेकानन्द मानो स्वयं ही पूर्व और पश्चिम के बीच सेतुस्वरूप हो गये थे। पश्चिम के लिए उनका कार्य था: भारत की आध्यात्मिक सम्पत्ति को ढोकर वहाँ ले जाना, और भारत एवं पूर्व के लिए उनका कार्य था: धन-सम्पत्ति एवं शक्ति-अर्जन के साधन के रूप में विज्ञान के उपयोग को बढ़ावा देना।

फरवरी, सन् 1896 में स्वामीजी ने न्यूयार्क में वेदान्त समिति की स्थापना की। बाद में उन्होंने Detroit  एवं Boston आदि नगरों में भी इसी प्रकार की समितियों का गठन कर अपने शिष्यों के ऊपर उनके संचालन का भार सौंप दिया। उस देश के अनेक महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों को उन्होंने वेदान्तधर्म में दीक्षित किया। उनमें से भी अनेकों  वेदान्त – प्रचार में जुट गये। इसी प्रकार अमेरिका के अनेक चोटी के विद्वान, दार्शनिक, वैज्ञानिक, शिक्षक और लेखक-लेखिकाएँ, स्वामीजी के प्रति श्रद्धालु और अनुरागी हुए । स्वामीजी का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि जो एक दिन के लिए भी उनके सम्पर्क में आता, वह उन्हें ग्रहण किये बिना नहीं रह सकता था। अमेरिका में ‘भारत के सन्देश’ को दृढ़प्रतिष्ठ करने के लिए स्वामीजी को जो परिश्रम करना पड़ा, उसके फलस्वरूप उनकी जीवनी-शक्ति लगभग समाप्त हो  गयी थी।

अमेरिका के कार्य में जब स्वामीजी इस प्रकार व्यस्त थे, तब इंग्लैंड के मित्रों ने बार-बार आमन्त्रण भेजना शुरू किया। इंग्लैंड की जुती हुई जमीन बीज बोने का समय आ गया था। अतः वे भी तैयार होने लगे। उधर वेदान्त-प्रचार में उन्हें सहयोग देने के लिए पूर्वव्यवस्था के अनुसार भारतवर्ष से उनके गुरुभाई स्वामी सारदानन्द चल पड़े थे, जो 1 अप्रैल 1896  को लन्दन पहुँचे। स्वामीजी भी 15 अप्रैल को न्यूयार्क से इंग्लैंड की ओर रवाना हुए। स्वामीजी ने लन्दन पहुँच कर मई महीने के प्रथम सप्ताह से ही प्रचारकार्य प्रारम्भ कर दिया। ‘ज्ञानयोग’ पर नियमित रूप से कक्षाएँ लेने के लिए  उन्हें बहुत से स्थानों पर भाषण देने भी जाना पड़ता था। अंग्रेज श्रोताओं की रूढ़िवादिता और चिन्तनशीलता का भाव स्वामीजी से छिपा नहीं था। 

लन्दन में रहते समय स्वामीजी की प्रोफेसर मैक्स मूलर से भेंट एक महत्त्वपूर्ण घटना है। मैक्समूलर के आमन्त्रण पर स्वामीजी आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में जाकर वृद्ध प्रोफेसर  से मिले। यह मिलन बड़ा ही हृदयस्पर्शी था। इस परिचय के फलस्वरूप मैक्समूलर श्रीरामकृष्ण के प्रति और भी आकृष्ट हुए और बाद में उन्होंने श्रीरामकृष्ण की एक जीवनी लिखी। रात में विदा लेकर स्वामीजी स्टेशन पर आये। वे ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहे थे, उसी समय आँधी-पानी के बीच प्रोफेसर मूलर स्टेशन पर आ पहुँचे। स्वामीजी ने उन्हें देखकर संकोचपूर्वक कहा, “ऐसे खराब मौसम में आपको इतना कष्ट उठाने की क्या जरूरत थी?” गद्गद कण्ठ से प्रोफेसर ने उत्तर दिया, “श्रीरामकृष्ण के सुयोग्य शिष्य से मिलने का सौभाग्य प्रतिदिन तो नहीं मिलता!” स्वामीजी निरुत्तर हो गये। इन दो-चार मर्मस्पर्शी बातों ने ही स्वामीजी को अभिभूत कर दिया। 

इस लेख शृंखला का यहीं पर मध्यांतर होता है। 

जय गुरुदेव, धन्यवाद् 


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