वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

शिकागो उद्बोधन में केवल स्वामीजी ने ही सभी धर्मों के भगवान् की, “विराट् पुरुष” की बात कही थी-लेख श्रृंखला का 10वां लेख 

स्वामी विवेकानंद द्वारा शिकागो में दिए गए उद्बोधन से हर कोई परिचित है, हर कोई यह भी जानता है कि 7000 लोग खड़े होकर (Standing ovation) 2 मिंट के लिए लगातार तालियां बजाते रहे थे,इन तालिओं के पीछे “Sisters and brothers of America”,यह पांच शब्द थे यां कुछ और ? इसी महत्वपूर्ण प्रश्न पर आज का ज्ञानप्रसाद लेख केंद्रित है। पाठकों की सहूलियत के लिए एक शार्ट वीडियो भी अटैच की है जो उसी बड़ी वीडियो का पार्ट है जिसे पहले भी शेयर किया जा चुका  है। 

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शिकागो में स्वामीजी के सम्बोधन में विश्व भ्रातृत्व (World brotherhood) का बीज, विश्व मानवता(World humanity) की झंकार, वैदिक ऋषि की वाणी, सब कुछ निहित था। सब मनुष्य उसी  परमपिता की सन्तान हैं और आपस में भाई-भाई हैं, एक अखण्ड मानवजाति के घटक हैं। आजकल जिस “एक मानवजाति और एक राष्ट्र” के गठन की बातें सुनने में आती हैं। इसका  बीज शिकागो-धर्ममहासभा में स्वामी विवेकानन्द ने ही बोया था। इस प्रसंग में फ़्रांसिसी नोबेल पुरस्कार  विजेता रोमाँ रोलाँ (Romain Rolland) ने कहा है:

बारम्बार प्रयास के बावजूद शुरू के कुछ मिनट स्वामीजी श्रोताओं के उत्साह और आनन्द को कम नहीं कर सके। वे सब अभिभूत होकर खड़े रहे। सभा जब शान्त हुई, तब उन्होंने अपने कमलनेत्रों से ज्योति-छटा बिखेरते हुए, गम्भीर स्वर में एक छोटा-सा भाषण दिया। भारतवर्ष के शाश्वत धर्म और आदर्श की वाणी सुनाई। संक्षिप्त होने पर भी उनका भाषण उदार और सार्वभौमिक भावों (Universal thoughts) से परिपूर्ण था।

तदुपरान्त उन्होंने विभिन्न अवसरों पर जो व्याख्यान दिये, उनमें किसी भी धर्म की निन्दा या आलोचना नहीं थी। उन्होंने किसी भी धर्म को छोटा नहीं कहा। उन्होंने यही कहा कि  

इस भावना और विचार के कारण एक ही दिन में सारे अमेरिका में स्वामीजी की  कीर्ति फैल गयी। शिकागो महानगरी की जनता स्वामीजी के चरणों में लोट पड़ी। उस दिन से अमेरिकावासी तथा वहाँ के समाचारपत्र उनकी प्रशंसा करते न थकते। मात्र 30 वर्षीय वीर संन्यासी के रंगीन चित्र शिकागो में सर्वत्र लगे देखकर लोगों के मन में श्रद्धा और विस्मय का विस्फोट होता था। अमेरिकी समाचारपत्रों ने विवेकानन्द को सम्मेलन का “सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति” घोषित किया और कहा:

सिस्टर निवेदिता लिखती हैं:

सिस्टर निवेदिता एक भारतीय दार्शनिक, आयरिश (Ireland) शिक्षिका, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता, स्कूल संस्थापक थीं। वह स्वामी विवेकानंद की शिष्य थीं। उन्होंने अपना बचपन और प्रारंभिक युवावस्था आयरलैंड में बिताया। 

हम अपने साथिओं से क्षमाप्रार्थी हैं कि बार-बार रोक कर सम्बंधित जानकरी लिख रहे हैं लेकिन क्या करें यह ऐसे व्यक्तित्व हैं जिन पर विशाल ग्रन्थ लिखे जा सकते हैं। हमें जितना भी संक्षिप्त विवरण उचित दिखता है उसे शामिल  करने का प्रयास करते हैं। 

मार्गरेट को निवेदिता नाम स्वामी जी ने दिया था जिसका अर्थ होता है:ईश्वर को समर्पित। मात्र 43 वर्ष की आयु में दार्जलिंग में ईश्वर की गोद में समा जाने वाली इस शिष्य के नाम पर 2017 में न्यू टाउन कोलकाता में विशाल यूनिवर्सिटी  का जन्म हुआ है।     

27 सितम्बर को धर्ममहासभा का अन्तिम दिन था। गौरव के अन्तिम शिखर पर खड़े होकर स्वामीजी ने कहा:

विवेकानन्द के इन वाक्यों का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण परिणाम हुआ। उन्होंने वेदान्त की सर्वभौमिक वाणी का प्रचार किया था जिसके फलस्वरूप आर्यधर्म,आर्यजाति और आर्यभूमि संसार की नज़रों में पूजनीय हो गयी। 

यहाँ यह समझ लेना बहुत ही महत्वपूर्ण दिखता  है कि आर्य कोई  नस्ल,सम्प्रदाय नहीं,एक सांस्कृतिक पहचान है। समय समय पर, भांति-भांति के लेखकों ने “आर्य शब्द” को ऐसा तोड़ा-मरोड़ा कि  इसका कुछ का कुछ अर्थ निकाल  लिया। संस्कृत में  ‘ऋ / अर्’ से बना आर्य  शब्द का अर्थ है श्रेष्ठ,सरल,शरीफ, सुसंस्कृत धर्म के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति। अन्य धर्मों में भी इसका यही अर्थ देखा गया है। हिन्दूजाति पददलित है, लेकिन  घृणित नहीं; दीन-दुःखी होने पर भी बहुमूल्य पारमार्थिक सम्पत्ति की अधिकारिणी है और धर्म के क्षेत्र में जगद्गुरु होने के योग्य है। अनेक शताब्दियों के बाद विवेकानन्द ने हिन्दूजाति को अपनी मर्यादा का बोध कराया, हिन्दूधर्म को घृणा और अपमान से उबार कर,उसे विश्व-सभा में अति उच्च आसन पर विराजमान कराया।

विवेकानन्द की विजय पर सारे भारत में उल्लास की लहर फैल गयी। दीनता और लांछन से दबी भारतभूमि में मानो आनन्द की सरिता प्रवाहित होने लगी। स्वामीजी की इस सफलता का प्रभाव हमारे प्रत्येक राष्ट्रीय उद्यम और कर्म पर पड़ा । केवल धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आर्थिक और सामाजिक जीवन पर भी उसका बड़ा ही व्यापक प्रभाव हुआ था और उसी दिन से हमारा राष्ट्र सर्वतोमुखी (All round)  विकास के पथ पर आगे बढ़ चला।

रोमाँ रोलाँ(Romain Rolland) ने इस जागरण की ओर इंगित करते हुए लिखा है:

वोह स्वामी विवेकानन्द जिन्हें कोई जानता  तक नहीं था, विश्व भर में प्रसिद्ध हो गए। जिस हिन्दूधर्म को मूर्तिपूजक कहा गया था, जिसे विश्व-धर्म-सम्मेलन में निमन्त्रण तक तो भेजा नहीं  गया था, उसी हिन्दूधर्म के बिन-बुलाये प्रतिनिधि के रूप में, धर्मसम्मेलन में उपस्थित हो विवेकानन्द ने सनातन वैदिकधर्म के लिए सबसे उच्च सिंहासन पर अधिकार जमा लिया। उन्हें ‘साइक्लोनिक हिन्दू मांक’ (तूफ़ानी हिन्दू संन्यासी) और ‘लाइटनिंग ओरेटर’ (विद्युती-वक्ता) के नाम दिये गये। लेकिन इस सम्मान को विवेकानन्द ने अत्यन्त विनयपूर्वक ही ग्रहण किया। वे अपनेआप को “सन्देशवाहक” मात्र ही कहा करते थे। वे श्रीरामकृष्ण के सन्देशवाहक दूत थे – आर्य ऋषियों के संदेशों  के मूर्त प्रतीक थे।

धर्म महासभा समाप्त होते ही स्वामीजी को अनेक स्थानों से व्याख्यान के लिए आमन्त्रण आने लगे। बहुत-सी संस्थाओं सभा-समितियों, गिरजाघरों, महिला-संस्थाओं, शोध-केन्द्रों, शिक्षा-शालाओं, विश्वविद्यालयों और प्रतिष्ठित नागरिकों के घरों में उन्हें आमन्त्रित किया जाने लगा। उसी समय अमेरिका की एक व्याख्यान-कम्पनी ने इस जनप्रिय वक्ता के समक्ष USA  के विभिन्न स्थानों में व्याख्यान देने का प्रस्ताव रखा। अमेरिका की आम-जनता से परिचित होने का सुनहरा अवसर देखकर स्वामीजी ने उसे स्वीकार किया और उस कम्पनी की व्यवस्था के अनुसार वे USA  के एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त का भ्रमण करते हुए व्याख्यान देने लगे। सभी स्थानों पर उनका विशेष सम्मान और अभिनन्दन हुआ। उनके भाषणों का फल भी आश्चर्यजनक हुआ। वे केवल धर्म या वेदान्त दर्शन पर ही भाषण देते रहे हों, ऐसी बात नहीं थी, उन्होंने आर्य-सभ्यता, भारतीय संस्कृति एवं समाज-व्यवस्था, मूर्तिपूजा, सामाजिक रीति-रिवाज, नारीजाति का आदर्श आदि विविध विषयों पर भी भाषण दिये। इसका फल यह हुआ कि मिशनरियों ने भारतवासियों को नंगा,नरमांस-भक्षी,असभ्य,बर्बर,अधर्मी,अविश्वासी, मूर्तिपूजक आदि कहकर जो झूठा प्रचार किया था, वे सब गलत धारणाएँ अमेरिकी जनता के मन से दूर हो गयी।

विविध कारणों से उन्होंने कुछ दिन बाद उस व्याख्यान-कम्पनी से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया और अपनी इच्छानुसार भ्रमण करते हुए व्याख्यान देने लगे। इसी समय से अमेरिका में उनका ठीक-ठीक कार्य आरम्भ हुआ। स्वामीजी का वेदान्त-प्रचार कोई आसान काम नहीं था। विशेषकर ईसाई मिशनरियों के शत्रुतापूर्ण व्यवहार से उन्हें काफ़ी तकलीफ़ उठानी पडती थी। पर वे थे कि उस ओर ध्यान न देकर सिंह के समान वीरतापूर्वक प्रचार कार्य चलाये जा रहे थे। विद्युत्-गति से एक नगर से दूसरे नगर की यात्रा करते हुए कभी-कभी तो वे सप्ताह में 13-14  व्याख्यान तक दे डालते थे। अब तक अमेरिका के अनेक प्रतिष्ठित और बुद्धिजीवी लोग उनके अनुयायी, समर्थक और शिष्य हो चुके थे। कुछ लोगों ने तो संन्यास लेकर वेदान्त-प्रचार में उन्हें सहयोग देना भी प्रारम्भ कर दिया।

फरवरी 1895  में उन्होंने न्यूयार्क में राजयोग और ज्ञानयोग पर एक व्याख्यानमाला आरम्भ की। बाद में वे व्याख्यान पुस्तक आकार  में  प्रकाशित हुए। अमेरिका के शिक्षित और बौद्धिक वर्ग में ये पुस्तक इतनी लोकप्रिय हुई कि कुछ सप्ताह के भीतर ही उनके तीन संस्करण निकालने पड़े। इन ग्रन्थों को पढ़कर अमेरिका के विख्यात दार्शनिक विलियम जेम्स और बाद में रूस के प्रसिद्ध मनीषी टॉल्स्टाय बड़े मुग्ध हुए थे।

तो साथिओ, हम समझ सकते हैं स्वामी जी पर प्रकाशित हो रही लेख श्रृंखला रोचक होने के साथ-साथ प्रत्येक भारतीय को गौरवान्वित अनुभव करवा रही होगी, यही है सच्ची भारतीयता,अपनी मातृभूमि के प्रति समर्पित होना,निष्ठावान होना प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य है।

यहीं पर लेते हैं कल तक के लिए मध्यांतर। 

जय गुरुदेव,धन्यवाद्  


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