29 दिसंबर 2025 का ज्ञानप्रसाद
बेलूर मठ में क्रिसमस का उत्सव एक अद्वितीय परंपरा है, जो सभी धर्मों की एकता का प्रतीक है। मुख्य आयोजन 24 दिसंबर (क्रिसमस ईव) को संध्या आरती के बाद होता है। रामकृष्ण परमहंस के मंदिर में ईसा मसीह (जीसस) की एक तस्वीर रखी जाती है। साधु और ब्रह्मचारी ईसा मसीह की आरती करते हैं और उनकी तस्वीर के आगे केक और फल रखे जाते हैं। इस अवसर पर बाइबिल का पाठ, अंग्रेजी और बांग्ला दोनों भाषाओं में किया जाता है। क्रिसमस कैरल्स (भजन) गाए जाते हैं।
ऑनलाइन उपलब्ध इस परंपरा की शुरुआत स्वामी विवेकानंद ने की थी। दिसंबर 1886 के अंत में (संभवतः 24 दिसंबर), स्वामी विवेकानंद और उनके गुरु भाइयों ने अंतपुर गांव में अग्नि के सामने संन्यास की शपथ ली थी। बाद में उन्हें पता चला कि वह रात ‘क्रिसमस ईव’ थी, जिसके बाद से बेलूर मठ में इस दिन को विशेष रूप से मनाया जाने लगा।
यहाँ यह क्लियर करने की ज़रुरत है कि अंतपुर का क्रिसमस के साथ क्या सम्बन्ध है और स्वामीजी ने सन्यास अंतपुर में लिया था यां बराहनगर में। यह भी जानने की ज़रुरत है कि रामकृष्ण मिशन में मनाई जाने वाली क्रिसमस का आधार श्रीरामकृष्ण परमहंस जी से सम्बंधित है यां स्वामी विवेकानंद से।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के पाठकों से विशेष तौर से एवं अन्य सभी पाठकों से सम्मानपूर्वक आशा की जाती है कि इस लेख में प्रस्तुत समस्त जानकारी (वीडियो क्लिप और चित्रों समेत) में अपना विवेक प्रयोग करेंगें। ऑनलाइन सोर्सेज से इक्क्ठी की गयी जानकारी कितनी Authentic है, इसके बारे में हमारी राय रिज़र्व है। जो भी हो,ज्ञान तो ज्ञान ही है, इसका अमृतपान ही तो इस परिवार का मुख्य उद्देश्य है।
तो आगे चलते हैं :
बेलूर मठ (रामकृष्ण मठ एवं मिशन का मुख्यालय) में Christmas मनाने का विशेष आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व है। यह केवल ईसाई पर्व नहीं, बल्कि सार्वधर्म-समन्वय की जीवंत अभिव्यक्ति माना जाता है।
बताया जाता है कि श्रीरामकृष्ण परमहंस ने ईसाई धर्म का भी गहन अभ्यास किया था। उन्होंने यीशु मसीह को ईश्वर के अवतार के रूप में स्वीकार किया और कहा कि सभी धर्म एक ही सत्य तक पहुँचने के विभिन्न मार्ग हैं। शिकागो में दिए गए स्वामी जी के ऐतिहासिक उद्बोधन में भी यही बात कही गयी थी। स्वामी विवेकानंद का संदेश था “सभी धर्म सत्य हैं।” बेलूर मठ में Christmas मनाना इसी विचार को व्यवहार में उतारने का प्रयास है, जहाँ हिंदू, ईसाई, बौद्ध, इस्लाम आदि सभी परंपराओं का समान सम्मान किया जाता है। 24 दिसंबर की संध्या को बेलूर मठ में:
- यीशु मसीह के जीवन और उपदेशों पर प्रवचन
- बाइबिल के अंशों का पाठ
- भजन और कैरल
- मौन ध्यान (Meditation)
आयोजित किए जाते हैं। इसमें सभी धर्मों के लोग भाग लेते हैं।
मानवता और सेवा का संदेश:
यीशु मसीह का मुख्य संदेश प्रेम,करुणा,त्याग,सेवा ही था। रामकृष्ण मिशन का आदर्श वाक्य है: “आत्मनो मोक्षार्थं जगद्धिताय च” अर्थात स्वयं की मुक्ति और संसार के कल्याण के लिए। इस प्रकार Christmas का भाव रामकृष्ण मिशन की सेवा-परंपरा से पूर्णतः मेल खाता है।
बेलूर मठ में Christmas मनाना यह दिखाता है कि धर्म विभाजन नहीं, एकता का साधन है।आध्यात्मिकता का आधार मानव-कल्याण है। बेलूर मठ में Christmas मनाना किसी धर्म-परिवर्तन का प्रतीक नहीं, बल्कि यह संदेश देता है कि “सत्य एक है, रास्ते अनेक हैं।”
पृष्ठभूमि (24 दिसंबर 1886 की रात):
16 अगस्त 1886 को श्रीरामकृष्ण परमहंस की महासमाधि के बाद नरेंद्रनाथ (विवेकानंद) और अन्य युवा शिष्य अंतपुर में अत्यंत दरिद्रता, रोग और मानसिक संघर्ष के बीच अपने जीवन के दिन गुज़ार रहे थे। इसी संघर्ष की पराकाष्ठा में 24 दिसंबर की रात सभी शिष्य बराहनगर के एक जर्जर भवन में एकत्र हुए। वहाँ तीव्र वैराग्य, गुरु-वियोग का वेदनापूर्ण स्मरण और जीवन को पूर्णतः ईश्वर-समर्पित करने के निश्चय का वातावरण था।
25 दिसंबर 1886 : संन्यास-दीक्षा,सामूहिक-संकल्प की ऐतिहासिक घटना:
प्रातःकाल नरेंद्रनाथ ने साथियों से कहा: “अब हम केवल संन्यासी ही होंगे, हमारा न कोई घर होगा,न कोई संसार।” सभी शिष्यों ने एक साथ आजीवन ब्रह्मचर्य और संन्यास का संकल्प लिया। श्रीरामकृष्ण देह रूप में तो उपस्थित नहीं थे,सभी ने उनकी फोटो/स्मृति के सामने स्वयं को गुरु के लिए समर्पित कर दिया। रामकृष्ण परंपरा में माना जाता है कि “गुरु आत्मा के स्तर पर दीक्षा देते हैं, देह की उपस्थिति अनिवार्य नहीं होती ।” इसे गुरु की “प्रतीकात्मक दीक्षा” कहा गया है।
सबसे पहले सभी ने “केश-त्याग (बाल-मुण्डन)” किया जो संसार-त्याग का बाह्य प्रतीक था। उस क्षण नरेंद्रनाथ भावविभोर होकर बोले: “अब हम रामकृष्ण के संन्यासी हैं।” उसके बाद सभी ने भगवा वस्त्र धारण किए,यहीं से नरेंद्रनाथ का जीवन पूरी तरह बदल गया। कुछ समय बाद नरेंद्रनाथ ने अपना संन्यासी नाम धारण किया,स्वामी विवेकानंद। इस ऐतिहासिक संन्यास-दीक्षा में स्वामी विवेकानंद (नरेंद्रनाथ दत्त) के साथ स्वामी ब्रह्मानंद,स्वामी प्रेमानंद, स्वामी शारदानंद, स्वामी तुरीयानंद, स्वामी अद्वैतानंद एवं अन्य गुरु-भाई शामिल थे। यही समूह आगे चलकर रामकृष्ण मठ एवं मिशन का आधार बना। ऑनलाइन सर्च से मालुम होता है कि यह क्षण विशेष आध्यात्मिक महत्व लिए हुआ था। यह औपचारिक नहीं, बल्कि आंतरिक संन्यास का दिन था। इस दिन का महत्व तो साक्षात् दिख रहा था क्योंकि दरिद्रता, भूख और अनिश्चित भविष्य के बीच लिया गया संकल्प था। यहीं से विवेकानंद का वह मार्ग प्रारंभ हुआ जिसने भारत को जगाया और विश्व को वेदांत से परिचित कराया
तो साथिओ निष्कर्ष निकालता है कि बराहनगर मठ का 25 दिसंबर 1886 वाला दिन, “स्वामी विवेकानंद के संन्यास का जन्म-दिवस” है। 24 दिसंबर तैयारी की रात थी, संन्यास की वास्तविक घटना 25 दिसंबर को हुई।
श्रीरामकृष्ण परमहंस यीशु मसीह को पूर्ण श्रद्धा के साथ मानते थे और उन्हें ईश्वर का अवतार स्वीकार करते थे। यह बात उनके जीवन-अनुभवों और उनके शिष्यों द्वारा लिखित ग्रंथों में स्पष्ट रूप से आती है। श्रीरामकृष्ण केवल सैद्धांतिक रूप से नहीं, बल्कि व्यावहारिक साधना के रूप में भी ईसाई धर्म में प्रविष्ट हुए थे। उन्होंने कुछ समय के लिए हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों को प्रणाम करना छोड़ दिया और केवल यीशु मसीह का ध्यान किया। वे चर्च के चित्रों और क्राइस्ट की छवियों के सामने ध्यान में लीन रहते थे। यह साधना लगभग 3 दिनों तक चली। ईसाई साधना के दौरान श्रीरामकृष्ण को यीशु मसीह का साक्षात दर्शन हुआ। श्रीरामकृष्ण कथामृत में वर्णन है कि उन्होंने एक दिव्य प्रकाशमय पुरुष को अपनी ओर आते देखा,
वह पुरुष उनके हृदय में विलीन हो गया, उसी क्षण उन्हें यह बोध हुआ कि यीशु मसीह ईश्वर के अवतार हैं
श्रीरामकृष्ण कहा करते थे: “जितने मत,उतने पथ।” (As many faiths, so many paths), “राम, कृष्ण, बुद्ध, ईसा सब एक ही परम सत्य के अवतार हैं।” उनके लिए Christ कोई विदेशी देवता नहीं,बल्कि उसी एक परम सत्य का स्वरूप थे।
तो साथिओ आज के ज्ञानप्रसाद लेख का समापन यहीं पर होता है। कल वाले लेख में शुक्रवार वाले लेख से आगे के दिव्य दर्शन करेंगें
जय गुरुदेव, धन्यवाद्


