हमारी व्यक्तिगत,ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की सामूहिक आदरणीय बहिन सुमनलता जी ने हमें सम्मान देते हुए एक सुझाव दिया कि सप्ताह के अंतिम शनिवार को हम अपने बारे में कुछ बताया करें,यह दिन हमारे लिए पूर्णतया रिज़र्व कर दिया और सभी साथिओं ने एकमत से न केवल इस स्पेशल विशेषांक का समर्थन किया बल्कि ऐसे-ऐसे विस्तृत कमेंट लिख कर अपनी स्वीकृति रजिस्टर कराई कि हमारी आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित हो उठी। इनमें से अनेकों कमेंट, अमूल्य सम्पति की भांति हम अपनी लाइब्रेरी में संजोये रखे हैं, समय-समय पर पढ़ते भी रहते हैं,पढ़ते समय लिखने वाले की छवि सामने आना स्वाभाविक है लेकिन यहाँ एक बात वर्णन करने योग्य है कि “हम किसी को भी न तो देखें हैं,न मिले हैं,कभी-कभार फ़ोन पर बात ही हुई है, ऐसी स्थिति में इस तरह के हृदयस्पर्शी कमेंट कैसे लिखे जाते हैं।” हमारा इनका क्या सम्बन्ध है? क्या लगते हैं मेरे यह सब ? आज के युग में जहाँ हर कोई स्वार्थी हुआ जा रहा है, परस्पर सम्मान और स्नेह जैसे शब्द तो शायद ओझल ही हो चुके हैं, इतना स्नेह और और सम्मान तो बिल्कुल आश्चर्यजनक,अविश्वसनीय है। बिलकुल सत्य है, आश्चर्यजनक और अविश्वसनीय है, किन्तु सत्य है। बहिनों को तो ईश्वर ने भावनाशील,संवेदनशील बनाया है लेकिन आदरणीय डॉ चंद्रेश बहादुर जी तो पुरुष हैं, लगभग हर बार ही कमेंट करके इस स्पेशल विशेषांक का न केवल स्मरण ही कराते हैं बल्कि इस सेगमेंट की प्रतीक्षा भी करते हैं।
आखिर है क्या इस स्पेशल विशेषांक में ? क्या है हमारे यूट्यूब चैनल में ?
सबसे बड़ी विशेषता है समर्पण की,स्नेह की,संबंधों की,आत्मा के मिलन की। हमारे गुरुदेव की पंक्तियाँ “हमने कितनी ही रातें सिसकियों में गुज़ारी हैं” शायद ही किसी को भूल सकती हों। 31 मई 1893 को स्वामी विवेकानंद ने विदेश जाते समय मुंबई से प्रस्थान किया तो उनकी आँखे गीली हो गयी थीं। मातृभूमि से लगाव उन्हें व्यथित कर रहा था। हृदय के आवेग को रोकने का प्रयास करते हुए स्वामीजी दोनों हाथों से अपनी छाती को दबाने लगे।
तो साथिओ जब हमारे गुरु ही ऐसे हैं, इतने भावनाशील हैं तो हम उनसे अलग कैसे हो सकते हैं। हमारे केस में तो यह कहना ही उचित रहेगा कि जो “जैसा सोचता है,वैसा ही हो जाता है।” सारा दिन रात तो गुरुदेव जैसे महान व्यक्तित्वों के उद्बोधन समझने में ही गुज़र जाता है, रात को भी इसके ही स्वप्न आते हैं,कई बार तो ऐसी कोई बात याद आ जाती है तो आधी रात को ही उठ कर पॉइंट लिख लेते है,कहीं ऐसे न हो कि इस समय आया विचार, लेख लिखने तक भूल ही जाये। और सबसे कठिन और Challengeable स्थिति तो तब होती है जब खुद समझी हुई बात परिवार के आगे रखनी होती है, उनको समझानी होती है। यहाँ यह बताना आवश्यक समझते हैं कि यूट्यूब पर कमेंट करने वाले तो कुछ एक पाठक ही हैं लेकिन दूसरे सात प्लैटफॉर्म्स पर भी तो कंटेंट पोस्ट हो रहा है। कोई पता नहीं, समय आने पर कोई क्या कह दे। हमारे वरिष्ठ साथी सोशल मीडिया साइटस पर ज़्यादा एक्टिव तो नहीं है लेकिन जो भी हैं, वोह देख ही रहे होंगें कि इन साइट्स पर क्या गंदगी फैलाई जा रही है। गंदगी फैलाने के कारण की बात तो किसी अन्य एपिसोड में करना उचित होगा लेकिन हम सौभाग्यशाली हैं कि हम बचे हुए हैं। फूँक-फूँक कर अंगारों भरी राह पर चल रहे हैं।
परम पूज्य गुरुदेव एवं स्वामी जी को रेफर करते हुए कल की ही “पूर्णतया व्यक्तिगत घटना” आप सबसे शेयर करना चाहते हैं।
अक्सर हम दोनों ज्ञानप्रसाद लेखों को आपस में डिसकस करते रहते हैं। कल वाले लेख में दर्शाई गयी “स्वामी जी की वेदना” की बात अभी आरम्भ ही की थी हमसे कुछ बोला ही नहीं जा सका, गला रुंध सा गया और आँखों में आंसू आ गए। आद नीरा जी कहने लगीं, “स्वामी जी की वेदना तो ठीक है लेकिन आपको क्या हो गया ? आपको भारत से ज़्यादा प्यार हो गया है ?” ऐसे थोड़े ही चलेगा !!
यह किसी एक जगह से प्यार होने की बात नहीं है। यह भावना की बात है, संवेदना की बात है। जब आंखों से आंसू टपकते हैं तो वह सीधे हृदय की बात कहते हैं, सीधे आत्मा की आवाज़ बोलते हैं। कहते हैं कि शराबी, शराब पीने के बाद सच बोलता है। वोह भी उसकी आत्मा की ही आवाज़ होती है। संवेदनशील मनुष्य के आंसू भी “भावना के नशे” से ही निकलते हैं।
आद चंद्रेश जी ने आज के स्पेशल विशेषांक को “मन की बात” का विशेषण दिया है और हमने “आत्मा की वाणी” कहा है। दोनों का अर्थ तो एक ही निकलता है लेकिन महत्व तो इस बात का है कि हमारी आत्मा की आवाज़,जो गुरुदेव की ही आत्मा की आवाज़ है, कितने हृदयों को झकझोड़ सकती है। जिसके भी ह्रदय तक यह पंहुच पायी, जिसने भी अपने ह्रदय की आवाज़, अपने गुरु के ह्रदय की आवाज़ को सुन लिया,समझ लेना चाहिए कि उसके सम्बन्ध के तार गुरु से जुड़ गए और उसके बाद उसका कायाकल्प सुनिश्चित है। ऐसा साक्षात् देखा जा रहा है।
विनाश और सृजन सृष्टि के दो Interconnected तथ्य हैं। हर कोई यही कहे जा रहा है कि हमारे समय में तो ऐसा नहीं होता था, आज पता नहीं क्या हो गया है। ऐसी धारणा रखने वालों ने कभी अपने दिल में झांक कर देखा है कि उन्होंने इस स्थिति के निवारण के लिए कौन से कदम उठाये हैं ? केवल विनाश-विनाश का राग अलापते, ब्रह्माण्ड में नकारत्मकता को बढ़ाने से कुछ भी सकारात्मक की आशा नहीं की जा सकती। विज्ञान बार-बार कह चुका है कि सारा ब्रह्माण्ड एक यूनिट है,नकारात्मक और सकरात्मक शक्तियां हर युग में परस्पर युद्ध करती आ रही हैं लेकिन इस युद्ध का अंत धर्मस्थापना से ही होता है
कहने को तो वर्तमान समय विकास की पराकाष्ठा का समय है लेकिन हिटलर जैसे लोग आज भी देखने को मिल रहे हैं। वर्षों पहले उसने गैस चैम्बर्स में बंद करके कितने ही लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। बांग्ला देश में बिल्कुल ऐसी ही घटना सुनने में आयी है जहाँ एक घर में कितने ही लोगों को बंद करके आग लगा दी गयी थी। क्या यही है विकास? मंगल और चाँद पर प्लाट खरीदने की बात होती देखकर, कोई भी भावनाशील मनुष्य समाज के इन ठेकेदारों को, मुट्ठीभर राजनेताओं को पूछ सकता है कि क्या आपने धरती माँ का कम विनाश किया है जो अब दूसरे प्लेनेट में पंहुच रहे हो।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जब हिटलर को पता चल गया कि वोह हार रहा है तो उसने न केवल स्वयं को बल्कि अपनी एक दिन की पत्नी ईवा के साथ साइनाइड खाकर आत्महत्या कर ली, उसके बाद का वृतांत और भी अधिक शिक्षाप्रद है। आत्महत्या के बाद उन दोनों के अवशेष बंकर की सीढ़ियों से ऊपर लाए गए और सीक्रेट दरवाज़े से बाहिर लॉन में पेट्रोल डाल कर राख कर दिए। उसकी मृत्यु का समाचार अगले दिन रेडियो पर प्रसारित किया गया था।
तो साथिओ यह उस डिक्टेटर की कथा है जिसे शायद ही कोई ऐसा हो,जो न जानता हो। तो राजगद्दियों पर विराजमान,हमारे आज के डिक्टेटर कहाँ Exist करते हैं ? अनेकों का अंत तो हम देख ही चुके हैं, किसी का मर्डर हुआ है, कोई जेल में जीवन के अंतिम दिन गुज़ार रहा है। हिटलर की भांति उनसे भी पूछना प्रसांगिक लगता है कि कहाँ गयी उनकी शक्ति? शक्ति तो केवल धर्म की ही होती है, धर्मस्थापना करने भगवान् आते ही हैं, यां ऐसे कहा जाए कि भगवान् सब देख रहे हैं, सभी का लेखा जोखा हर समय अपडेट किये जा रहे हैं, ज़्यादा शेर बनने को ज़रुरत नहीं है। सतकर्म ही सहायक होंगें, बुरे कर्मों का नतीजा हिटलर के अंत जैसा ही होगा।
“हाँ, अब आता है की इस भयावह स्थिति में ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के क्या आशा की जा सकती है ?”
गुरुदेव के साहित्य में हर समस्या की समाधान है। शायद ही जीवन का कोई ऐसा पहलु हो जिस पर गुरुदेव में अपनी लेखनी नहीं चलाई। स्थिर होकर, बैलेंस होकर, नियमितता के साथ लेखों का अध्ययन करने से ह्रदय में सकारात्मक एवं दिव्य विचारों का विकास होगा, उच्च विचार जन्म लेंगें जो आसपास के वातावरण को दिव्य बनायेगें, चारों तरफ दिव्यता होगी और युगपरिवर्तन में हमारा योगदान होगा। समझा जा सकता है कि आंतकवादिओं का तो हम मुकाबला नहीं कर सकते लेकिन अपने भगवान की सरल प्रक्रिया में तो हम भागीदारी रजिस्टर करा ही सकते हैं।
यहाँ एक बात और करने का मन कर रहा है !!
अक्सर पूछा जाता है कि पिछले 100 वर्ष से तो तुम्हारे गुरु “धरती पर स्वर्ग के अवतरण,मनुष्य में देवत्व का उदय, युगपरिवर्तन, नया युग आ रहा है” आदि की बात कर रहे हैं, क्या यह सब हो गया ?
यह मूढ़मति का प्रश्न है। इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए गुरुदेव को समझना होगा जिसका सबसे सरल माध्यम उनका दिव्य साहित्य है। उस साहित्य की दिव्यता केवल उसी को अनुभव हो सकती है जो पूरे मन से, एक-एक शब्द को देखकर,एक-एक वाक्य को समझकर अंतर्मन में उतारने में समर्थ है। इस सामर्थ्य का साक्षात् प्राकट्य हम कुछ एक साथिओं के कमैंट्स में देख रहे हैं, ऐसा अनुभव होता है कि साक्षात् गुरुदेव ही उनसे यह कमैंट्स लिखवा रहे हैं, ऐसे साथिओं का कायाकल्प कैसे न हो ?
हमारे आदरणीय अरुण भाई साहिब गुरुकार्य के लिए इतने उत्सुक हैं की जैसा लेख पढ़ते हैं उसी के अनुसार संकल्प लेना शुरू कर देते हैं ,भैया जी हम कहना चाहेंगें कि गुरुशक्ति आपसे जो कोई भी कार्य करवाना चाहती है इस जन्म में तो करवा ही लेगी, न जाने और कितने जन्मों तक आपके साथ रहेगी क्योंकि आप तो कुछ भी नहीं कर रहे हैं, सब कुछ गुरुदेव ही कर रहे हैं।
वैसे तो रामकृष्ण परमहंस गुरुदेव के पूर्वजन्म थे, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि 1902 में स्वामीजी के प्राण त्यागने के बाद 1911 में आंवलखेड़ा में जन्मा बालक गुरुदेव ही हों ? ऐसा हम इसलिए कह रहे हैं कि गुरुदेव और स्वामीजी की शिक्षा कोई अलग नहीं है, लेकिन यह hypothesis पूर्णतया हमारा ही है, इसका ठीक उत्तर तो हिमालय गुरु सर्वेश्वरानन्द जी के पास ही होगा।
गुरुदेव के सम्बन्ध में पूछे गए मूढ़मति प्रश्न का उत्तर तो उसी दिन मिल गया था जिस दिन गुरुदेव का अवतरण हुआ था। हम में से हर कोई जो इन पंक्तियों को पढ़ रहा है,स्वयं अपने अंदर झांक कर बताये कि 100 वर्ष पूर्व उसका दैनिक जीवन ऐसा था ? उसके लिए तो साक्षात् स्वर्ग का अवतरण हो चुका है।
विश्व में हो रही घटनाएं बहुत ही दिल दहलाने वाली हैं, घबरा कर हिटलर के साथ तुलना करना स्वाभाविक है लेकिन आत्मबल के सन्देश, सकारात्मकता के सारे ज्ञानप्रसाद लेख क्या केवल पढ़ने के लिए ही थे? विश्व की आठ बिलियन जनसँख्या में से 1 मिलियन नकारात्मक शक्तियां भी सक्रीय नहीं हैं। तो निष्कर्ष क्या निकला ?अधिकतर विश्व में अभी भी धर्म की शक्ति सक्रीय है,विधाता अपना कार्य कर रहा है, वह अपने समर्पित राजकुमार का विनाश होता नहीं देख सकता, शर्त केवल एक ही है, उसके कार्य में सहयोग करने की, सकारत्मक शक्तियों के प्रसार की।
विज्ञान के सिद्धांत के अनुसार Negativity will vanish if the percentage of positivity is very high.
आज के विशेषांक का समापन चश्मे का रंग बदलने के लिए कह रहा है।
जय गुरुदेव,धन्यवाद्