वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

Boston के प्रोफेसर राइट के साथ स्वामी विवेकानंद की अविस्मरणीय भेंट- लेख शृंखला का नौंवा लेख 

आज के ज्ञानप्रसाद लेख में स्वामी विवेकानंद की जापान,कनाडा से होते हुए अमेरिका की यात्रा एवंम उससे जुड़े कुछ अविस्मरणीय क्षणों का वर्णन है। 

उचित रहेगा कि बिना किसी विलम्ब के सीधा ज्ञानप्रसाद के अमृतपान की ओर बढ़ा जाए I

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खेतड़ी के राजा की इच्छानुसार उनके प्राइवेट सेक्रेटरी मुंशी जगमोहनलाल भी स्वामीजी को जहाज में बैठाने बम्बई तक आये । मद्रास से उनके प्रिय शिष्य आलासिंगा पेरुमल भी आये थे। P&O  कम्पनी के ‘पेनिनसुलर’ नामक जहाज के लिए स्वामी विवेकानन्द के नाम  प्रथम श्रेणी की एक टिकट खरीदी गयी। 31  मई 1893 को जहाज छूटा। जगमोहनलाल और आलासिंगा के नेत्र सजल हो उठे। स्वामीजी की आँखे भी गीली हो रही थीं। मातृभूमि का लगाव उन्हें व्यथित कर रहा था। हृदय के आवेग को रोकने का प्रयास करते हुए वे दोनों हाथों से अपनी छाती को दबाने लगे।

डेक पर खड़े होकर वे बिना पलकें झपकाए  भारत की तटभूमि की ओर निहारते रहे। मेरा महिमामय भारतवर्ष ! हाय, पराधीन, पददलित भारतभूमि! भारत की सैकड़ों चिन्ताएँ उनके मानस पटल पर छा रही थीं। 

इन शब्दों को पढ़कर कोई भी (हमारे समेत) व्यथित हुए नहीं रह सकता।  

जहाज बम्बई से श्रीलंका,सिंगापुर और हांगकांग होते हुए बढ़ चला। इसके बाद जापान के शहरों ( नागासाकी, ओसाका, क्योटो और टोकियो) से होते हुए भूमि-मार्ग से जापान के ही नगर योकोहामा आये। जहाँ भी गए,दूर पूर्व के देशों में  आर्य सभ्यता का प्रभाव कितना व्यापक था, इसे स्वामीजी  विशेष रूप से देखते आ रहे थे। साथ ही एशिया की आध्यात्मिक एकता के बारे में भी उनकी धारणा दृढ़ होती जा रही थी। आधुनिक जापान  की सर्वांगीण उन्नति ने उनकी दृष्टि विशेष रूप से आकृष्ट की। स्वाधीन जापान ने कुछ वर्षों के भीतर ही पाश्चात्य राष्ट्रों के साथ मुकाबला  करते हुए अद्भुत प्रगति की थी। जापान की जनसँख्या बहुत ही थोड़ी थी लेकिन चालीस करोड़ चीनियों के साथ युद्ध में मुट्ठी भर जापानियों  ने विजय प्राप्त की थी। इस जीत से जापान के आत्मविश्वास और संगठन-शक्ति की ही घोषणा हुई थी। स्वामीजी ने कहा था: 

हमारे पाठक  स्वयं देख सकते हैं आज (2025 में)  चीन और रूस के बारे में उनकी भविष्यवाणी अक्षरशः सत्य हो हुई  है। पश्चिमी देशों की Machine civilization  ने आज सारे विश्व को ध्वंस के जिस कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है, इसके बारे में भी उन्होंने स्पष्ट शब्दों में चेतावनी दी थी।

मातृभूमि भारत की व्याधियों के बारे में सोच-सोचकर उनके प्राण व्यथित हो रहे थे। योकोहामा नगर  से उन्होंने अपने साउथ इंडिया  शिष्यों को लिखा: 

ऐसे ही शब्दों में परम पूज्य गुरुदेव के सन्देश को ऑनलाइन गायत्री परिवार के बहुत ही छोटे परन्तु समर्पित मंच पर अनेकों बार प्रसारित किया जा चुका है, एक बार फिर से दोहराने में कोई हर्ज़ नहीं है।  गुरुदेव कहते हैं : 

वैरागी द्वीप में शताब्दी समारोह से सम्बंधित  श्रमदान को देखकर,हर रोज़ प्राप्त हो रही नई से नई जानकारी गुरुदेव के शब्दों को सार्थक करते दिख रही है ।   

योकोहामा से स्वामी जी समुद्री जहाज़  द्वारा प्रशान्त महासागर की नील जलराशि को पार करते हुए 15  जुलाई को कनाडा के वैंकुवर बन्दरगाह पर उतरे। वहाँ से ट्रेन द्वारा वे अमेरिका की प्रख्यात महानगरी शिकागो आये। शिकागो नगर में स्वामीजी बिल्कुल अज्ञात थे और उनके पास कोई परिचय-पत्र आदि भी नहीं था। अतः वे एक होटल में ठहरे और 12  दिन तक घूमते हुए शिकागो की अभूतपूर्व प्रदर्शनी देखते रहे। क्रिस्टॉफर कोलम्बस द्वारा अमेरिका की खोज को 400  वर्ष पूरे हो रहे थे। इसी उपलक्ष्य में यह विश्वमेला आयोजित किया गया था। मेला बहुत ही बड़ा था। कितने ही लोग दूसरे देशों से देखने आये थे और चहल-पहल का तो पूछना ही क्या ! सब कुछ स्वामीजी को नया लग रहा था। पश्चिमी देशों की आर्थिक समृद्धि और कर्मकुशलता के बारे में उनकी धारणा कुछ धूमिल सी थी। विज्ञान के कितने ही नये-नये आविष्कार हो गये हैं, कल-कारखानों का कितना विकास हो गया है, इन धनिक राष्ट्रों की शिल्पकला में कितनी उन्नति हो गयी है। इस सारी  उन्नति को देखते ही भारत की निर्धनता आदि की बात याद आते ही उनका हृदय वेदना से बोझिल हो उठता था। प्रदर्शनी के Enquiry office  में जाने पर उन्हें बताया गया कि विश्वधर्म महासभा सितम्बर में होगी। 

स्वामीजी के पास इतने दिनों तक होटल में रहने के लिए पैसे कहाँ थे? साथ ही में उपयुक्त परिचय-पत्र के अभाव में धर्मसभा में प्रतिनिधि बन पाना असम्भव सा था। इसके अलावा प्रतिनिधियों के निर्वाचन की अन्तिम तिथि भी बीत चुकी थी। सब कुछ निराशाजनक था । जब उन्हें कुछ न सूझा तो  उन्होंने अपने दक्षिण भारतीय शिष्यों को समुद्री तार  भेजा और साथ में ही सब बताते  हुए विस्तृत  पत्र भी लिखा। उन्होंने दृढ़ निश्चय किया कि जैसे भी हो, वे अन्त तक प्रयास करेंगे क्योंकि  उन्हें दैवी आदेश जो प्राप्त हो चुका था। 

शिकागो के होटल बहुत महँगे थे। उन्हें पता चला कि बोस्टन शहर थोड़ा सस्ता है। अतः उन्होंने बोस्टन की यात्रा की। बोस्टन में स्वामीजी जहाँ कहीं भी जाते, वहाँ के लोग उनकी ओर आकृष्ट हो जाते। बोस्टन में ट्रेन से यात्रा करते की एक धनाढ्य महिला के साथ परिचय हुआ। वे स्वामीजी के व्यक्तित्व से अत्यन्त प्रभावित हुईं और उन्हें आमन्त्रित करके अपने घर ले गयी। वहाँ पर धीरे-धीरे उनका कई प्रतिष्ठित लोगों के साथ परिचय हो गया।

25 अगस्त, 1893 को, बोस्टन में, विवेकानंद की पहली बार हार्वर्ड विश्वविद्यालय के ग्रीक भाषा के अध्यापक Prof  JH Wright से मुलाकात हुई। राइट विवेकानंद के गहन ज्ञान से हैरान थे और उन्हें आगामी संसद में वक्ता के रूप में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया। वह इतने आश्चर्यचकित थे कि उन्होंने विवेकानंद को अपने घर में अतिथि के रूप में रहने का निमंत्रण दिया। 25 से 27 अगस्त, 1893 तक, विवेकानंद राइट के घर, 8 आर्लिंगटन स्ट्रीट पर रहे। पहले ही दिन इन युवा संन्यासी के साथ चार घण्टे तक बातचीत करने के फलस्वरूप Prof Wright  उनकी प्रतिभा से इतने मुग्ध हुए कि उन्होंने स्वामीजी को धर्ममहासभा में प्रतिनिधि के रूप में प्रवेश दिलाने का भार अपने ऊपर ले लिया। जब विवेकानंद ने Prof Wright  से कहा कि उनके पास संसद में भाग लेने के लिए कोई Letter of recommendation  या प्रमाण पत्र नहीं है, तो उन्होंने कथित तौर पर कहा, “स्वामी, आपसे आपके प्रमाण पत्र मांगना ऐसे है जैसे सूरज से उसके चमकने के अधिकार के बारे में पूछना।” फिर राइट ने स्वयं धर्म  संसद के अध्यक्ष को परिचय पत्र लिखा और उन्हें सुझाव दिया कि वे विवेकानंद को वक्ता के रूप में आमंत्रित करें और कहा कि  “यहां एक व्यक्ति है जो हमारे सभी विद्वान प्रोफेसरों से कहीं अधिक ज्ञानी है।” राइट ने यह भी जाना कि विवेकानंद के पास रेलवे टिकट खरीदने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे, इसलिए उन्होंने उनके लिए भी रेलवे टिकट खरीद ली।

संसद की समाप्ति के बाद भी वे पत्राचार के माध्यम से एक-दूसरे के संपर्क में रहे। विवेकानंद राइट की सहायता और दयालुता के लिए सदा आभारी रहे। 18 जून 1894 को लिखे एक पत्र में विवेकानंद ने Prof Wright  को भाई कहकर संबोधित किया और लिखा,”तुम्हारे जैसे मजबूत दिल मनुष्य साधारण नहीं हैं, मेरे भाई। यह एक अजीब जगह है-हम सब की यह दुनिया। कुल मिलाकर मैं इस देश के लोगों से मिली दयालुता के लिए भगवान का बहुत-बहुत आभारी हूँ। मैं इस देश में एक पूर्ण अजनबी की तरह, बिना किसी ‘क्रेडेंशियल्स’ के आया।” अगर नीयत अच्छी हो तो रास्ते स्वयं ही बनते जाते हैं। यह सब मानो पूर्वनियोजित दैवी-व्यवस्था के अनुसार ही हुआ।

हमारे पाठक, हमारी लेखनी से भलीभांति परिचित हैं,जब तक हम पूरी तरह से Sure नहीं होते पाठकों के समक्ष लाने में झिझकते ही हैं। Prof Wright के साथ स्वामीजी जी की मुलाकात इतनी महत्वपूर्ण है कि अलग-अलग स्थानों पर,ऑफलाइन/ऑनलाइन बहुत कुछ उपलब्ध है। इन सभी स्रोतों को  पूरी तरह चेक करके ही यहाँ प्रस्तुत किया गया है, यदि किसी भी समय, किसी भी पाठक को अनजाने में हुई त्रुटि दिखे तो हम तुरंत संशोधन करने का प्रयास करेंगें। प्रोफेसर राइट के विकिपीडिया पेज यह जानकारी उपलब्ध है। 

11 सितम्बर 1893  सोमवार धर्मजगत् के इतिहास में चिरस्मरणीय रहेगा, क्योंकि इसी दिन पूर्व और पश्चिम का मिलन हुआ था, इसी दिन समग्र जगत् में विश्वबन्धुत्व (Universal brotherhood) का सूत्रपात हुआ था और इसी दिन प्राचीन भारत के वेदान्त-धर्म ने स्वामी विवेकानन्द को अपना यन्त्र बनाकर महान् धर्मसम्मेलन में सर्वोच्च स्थान प्राप्त कराया  था।

प्रातःकाल यथारीति पाठ और संगीत आदि के साथ महासभा का श्रीगणेश हुआ। मंच पर बीच में बैठे थे अमेरिका के रोमन कैथलिक सम्प्रदाय के धर्मप्रमुख सभापति कार्डिनल गिबन्स और उनके दाहिने एवं बायें दोनों ओर विराजमान थे विभिन्न धर्मों के प्रतिनिधिगण । स्वामी विवेकानन्द किसी सम्प्रदाय विशेष के नहीं थे। वे तो समग्र भारतवर्ष के सनातन वैदिक धर्म के प्रतिनिधि के रूप में उपस्थित थे। नीचे एक हॉल था और उसके बाद एक बड़ी गैलरी, जिसमें अमेरिका तथा अन्य देशों के चुने हुए 7000  नर-नारी उपस्थित थे। मंच पर ईसाई धर्म की प्रमुख शाखाओं के साथ ही यहूदी, जैन, हिन्दू, बौद्ध, कन्फ्यूशियन,इस्लाम और पारसी आदि धर्मों के प्रतिनिधिवृन्द अपनी अपनी राष्ट्रीय वेशभूषा में आसीन थे।

सभापति द्वारा आमन्त्रित प्रतिनिधियों ने पहले से तैयार किये हुए भाषणों के माध्यम से अपने धर्म के सम्बन्ध में विचार प्रकट किये। स्वामीजी तो कुछ लिखकर ले नहीं गये थे। उन्होंने खड़े होकर “अमेरिकावासी बहनों  और भाइयो” कहकर सभा को सम्बोधित किया। इन पांच  शब्दों के भीतर ही ऐसी विपुल शक्ति भरी थी, जिसने श्रोताओं का हृदय स्पन्दित कर दिया,  तुरन्त सैकड़ों नर-नारी उठकर खड़े हो गये और सभी ओर से प्रचण्ड तालियाँ बजने लगी। लोगों की उत्तेजना  और तालियाँ रुकती ही न थीं।

सभी वक्ताओं ने प्रचलित प्रथा का अनुसरण करते हुए “श्रोताओं” कह कर सम्बोधित किया था लेकिन विवेकानन्द ही एकमात्र  ऐसे थे जिन्होंने “बहनो और भाइयो” कहकर मानवजाति को सम्बोधित किया था । वक्ता के हृदय का भ्रातृभाव सभी के हृदय में प्रविष्ट होकर झंकृत हो उठा। क्षण भर के लिए हजारों नर-नारियों के हृदय में सम्पूर्ण मानवजाति की एकता की अनुभूति साकार हो उठी।

आज के ज्ञानप्रसाद लेख का समापन मनोज जी की उस वीडियो के साथ कर रहे हैं जिसे हमारे साथी पहले भी देख चुके हैं।  

https://youtu.be/r6_3LzSsuBA?si=KReKQZ3RlRgdqOjN

जय गुरुदेव,धन्यवाद् 


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