वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

स्वामी जी सम्बंधित खंडवा और पूना के दो घटनाक्रम-लेख श्रृंखला का आठवां लेख 

आदरणीय रेणु श्रीवास्तव जी की पसंद की प्रार्थना को आज के लेख के साथ अटैच करने  में अपना सौभाग्य समझते हैं। 

आज के ज्ञानप्रसाद लेख के लिए हम एक बार फिर से 91 पृष्ठों का पुस्तक “स्वामी विवेकानंद-संक्षिप्त जीवनी तथा उपदेश की ओर रुख कर रहे हैं। खंडवा(मध्य प्रदेश) में स्वामी जी को विश्व धर्म सभी का निमंत्रण प्राप्त हुआ था और पूना जाते समय  ट्रेन में स्वामीजी ने जिस उपदेश को प्रकट किया उसे सपोर्ट करने के लिए हमने एक शार्ट वीडियो लिंक भी अटैच किया है, उनके साथ ही प्रसिद्ध राष्ट्रवादी लोकमान्य तिलक भी यात्रा कर रहे थे। 

तो साथिओं यहीं से शुरू होता है आज का ज्ञानप्रसाद    

पोरबन्दर से स्वामीजी द्वारका आये। फिर उन्होंने माण्डवी, नारायण सरोवर, आशापुरी तथा पालीताना के शत्रुंजय पर्वत आदि देखे। उसके बाद  वे बड़ौदा होकर खंडवा आये। 

शिकागो के विश्वधर्म सम्मलेन में भाग लेने की इच्छा उनके मन में पहले पहल मध्य प्रदेश के खंडवा नगर में  ही उत्पन्न हुई थी। ऑनलाइन रिसर्च से पता चलता है कि इस धर्म महासभा के लिए विधाता ने स्वामीजी को मानो पहले से ही चिह्नित (Assign) कर दिया था। 

स्वामीजी की विदेश यात्रा में खंडवा के महत्व को जानने के लिए जब ऑनलाइन रिसर्च की गयी तो न जाने कितनी ही वीडियोस और न्यूज़ कट्टिंग्स मिल गयीं, जिन्हें यहाँ पर शामिल करना लगभग असंभव ही है लेकिन एक बात हो सत्य है कि स्वामी जी के जिस भी पहलू को ढूढ़ा गया, ज्ञान के महासागर में डूबने के सिवाय कोई भी विकल्प नज़र नहीं आया। मन मसोस कर कहना पड़ता है, “अरे बेटे इतने विशाल व्यक्तित्व को जान पाना तेरे बस की बात नहीं हैं !!!! जितना अमृत  मिल रहा उसी की एक आध बूँद से  अपने जीवन को सुधार ले तो बहुत बड़ी उपलब्धि होगी।” 

12 जनवरी 2020 में प्रकाशित ETV  न्यूज़ की रिपोर्ट के अनुसार स्वामी जी का व्यक्तित्व इतना धनी था कि देश भर में उनसे जुड़ी चीजों को आज भी संभाल के रखा गया है. स्वामी जी वर्ष 1893 में विश्व धर्म सभा में शामिल होने से पहले कुछ दिनों के लिए खंडवा भी आए थे, इस दौरान उनसे जुड़ी यादों को आज भी संजो कर रखा गया है और उनकी  पूजा भी की जाती है।  

वर्ष 1893 में विश्व धर्म सभा में शामिल होने से पहले  जून-जुलाई के महीने में दो दिन के लिए स्वामीजी खंडवा आए थे। खंडवा के साहित्कार कैलाश मांडलेकर के अनुसार और उन्हें शिकागो सभा  में जाने का निमंत्रण यहीं पर मिला था। उस दौरान स्वामी जी यहां के मेयर  हरिदास चटर्जी के यहां रुके थे।  इस दौरान उन्होंने जिस अलमारी और पलंग का उपयोग किया था वे आज भी अस्तित्व में है।  जिस परिवार के द्वारा ये फर्नीचर खरीदा गया था, खंडवा के उस राठौर परिवार ने आज भी बकायदा उसे न केवल सहेज कर रखा है बल्कि उसकी पूजा भी करते हैं। स्वामी जी की यादों को सजोंकर रखने वाले डॉ यूजी राठौर बताते हैं कि उनके पूर्वजों ने  उस समय के चटर्जी परिवार से स्वामी जी का फर्नीचर 35000 रुपए  में खरीदा था। बाद में जब उन्हें मालूम हुआ  कि इस फर्नीचर का उपयोग स्वामी विवेकानंद ने किया था, तभी से वोह इस पलंग और फर्नीचर का उपयोग नहीं करते बल्कि उसकी पूजा करते हैं।

राठौर परिवार द्वारा स्वामीजी के फर्नीचर के प्रति इतनी श्रद्धा व्यक्त होती देख कर सहसा ही स्मरण हो उठा कि  शांतिकुंज से प्रसारित होने वाले “दैनिक गुरुवर के कक्ष” आदि के क्लिप्स विश्व के घर-घर में पहुँचाने के पीछे भी इसी  श्रद्धा का प्रकाट्य है। जिन लोगों ने कभी भी गुरुदेव के साक्षात् दर्शन नहीं किये, कभी शांतिकुंज नहीं आये उनके लिए ज्ञानप्रसाद लेख,शांतिकुंज से पोस्ट होने वाला दैनिक साहित्य अवश्य ही एक Eye opener हो सकता है। यहाँ एक बात बहुत ही महत्वपूर्ण है कि ज्ञानप्रसाद पोस्ट करना एक बात है और उसे पढ़ने के लिए प्रेरित करना,समझ पाना,समझा पाना दूसरी बात है। हमारा सारा प्रयास समझने और समझाने में ही लगा रहता है। 

तो साथिओ यह है स्वामीजी के प्रति श्रद्धा का एक अतिउत्कृष्ट उदाहरण। कल बेटी संजना ने ज्ञानप्रसाद लेखों के बारे में यूट्यूब पर कमेंट करके हमारी सराहना में  जो शब्द लिखे उनके लिए तो यही कह सकते हैं कि गुरुदेव हमें इतनी शक्ति और भक्ति दो कि हम अंतिम श्वास तक गुरुकार्य करते हुए यथासंभव ज्ञान का प्रसार करते रहें। 

उपरोक्त कंटेंट जिस न्यूज़ आइटम पर आधरित  है उसका लिंक देते हुए आशा करते हैं कि बहुत ही छोटी सी वीडियो अवश्य देखी जाएगी।

https://share.google/tKiyEiJrcPWWx5m6l

तो साथिओ खंडवा के इस ज्ञान के बाद आइये आगे चलते हैं।         

समस्त भारत में भ्रमणकाल के ये दिन स्वामीजी के लिए महान् शिक्षा के अवसर थे। इस समय उन्होंने खूब सीखा, खूब ग्रहण किया। एक गोताखोर की तरह भारतरूपी रत्नाकर के महासागर में से अमूल्य रत्नों को निकाला और जाना। धर्मभूमि भारत के चप्पे-चप्पे पर जो विचारधन बिखरा हुआ था उन्होंने संग्रह किया और उसे जाना।  सभी धर्मों में उन्हें “शाश्वत एकत्व” दिख पड़ा। विभिन्न धर्मों के मूल उद्गम (Origin) का भी उन्हें पता मिला। 

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के साथिओं ने स्वामीजी की रामकृष्ण मठ द्वारा प्रकाशित 2 घंटे की वीडियो तो अवश्य देखी होगी लेकिन यहाँ एक बार फिर से उस ऐतिहसिक भाषण का वोह भाग देखने का समय है जहाँ स्वामीजी सभी धर्मों के  मूल उद्गम की बात कर रहे हैं। यहाँ पर हमने एक वीडियो शार्ट लिंक अटैच किया है जहाँ उपरोक्त बात की जा रही है। 

समाजस्रोत की कीचभरी रुद्ध अवस्था को देखकर स्वामीजी के  प्राण वेदना से आकुल हो उठे। उनके ह्रदय में इस रुद्ध प्रवाह को गतिशील एवं निर्मल बनाने का मार्ग रूपायित हुआ। उनकी सबसे बड़ी Priority  देशवासियों का दैन्य और अज्ञान था जिसे देख कर उनका हृदय व्याकुल हो उठा। उनके गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस जी  कहा करते थे कि “खाली पेट धर्म नहीं होता।” इस कथन की सत्यता का उन्होंने प्राणों ही प्राणों में अनुभव किया। इस समस्या का समाधान  कैसे हो, इस चिन्ता ने उनके अंतर्मन में मानो अग्नि सी प्रज्वलित कर दी। दिन रात उन पर एक ही चिन्ता,भारत देश की ही चिंता  सवार रहती थी जिससे वह क्षण भर के लिए भी स्वयं को मुक्त नहीं कर पाते। नींद के समय भी वे ही चिन्ताएँ उनके हृदय में जाग्रत रहतीं। 

खंडवा से स्वामीजी बम्बई (आजकल के मुंबई) होते हुए पूना गये। पूना जाते समय गाड़ी में एक विलक्षण घटना घटी, जिससे स्वामीजी के विराट् व्यक्तित्व का परिचय मिलता है। गाड़ी में स्वामीजी को द्वितीय क्षेणी में यात्रा करते देखकर उसी डिब्बे में बैठे कुछ महाराष्ट्रीय शिक्षित लोग अंग्रेजी भाषा में संन्यासियों की निन्दा करने लगे। उन्होंने सोचा था कि स्वामीजी अंग्रेजी नहीं जानते। उनका कहना था कि भारत के पतन के लिए एकमात्र संन्यासी-सम्प्रदाय ही उत्तरदायी है। उन्होंने जोंक की तरह समाजवृक्ष की शक्ति का शोषण कर उसकी मृत्यु कर डाली  है आदि आदि। उस डिब्बे में लोकमान्य तिलक भी थे, उन्होंने इन महाराष्ट्रिय सहयात्रियों के विचारों का समर्थन नहीं किया। चर्चा जब पराकाष्ठा पर पहुँच गयी तब स्वामीजी चुप नहीं रह सके। वे बोल उठे:

स्वामीजी के मुख से धर्म का क्रमविकास, देश-विदेश के धर्मों की प्रगति का इतिहास तथा अनेक गम्भीर दार्शनिक तत्त्व आदि के विषय में सुनकर सहयात्रियों को विवश होकर हथियार डाल देना पड़ा।तदुपरान्त तिलक सस्नेह आग्रहपूर्वक स्वामीजी को अपने मकान पर ले गये और लगभग एक मास तक उन्हें अपने साथ रखा। स्वामीजी का देशप्रेम, दीन-दुखियों के प्रति उनकी सहानुभूति आदि ने तिलक के हृदय पर गहरा प्रभाव डाला। 

पूना से स्वामी जी  कोल्हापुर, बेलगाँव, मरमागोआ आदि होते हुए मैसूर आये और वहाँ के राजमहल में अतिथि के रूप में ठहरे। स्वामीजी के विराट् व्यक्तित्व के संस्पर्श में आकर मैसूर के महाराजा बड़े प्रभावित हुए एवं उन पर गुरु की तरह श्रद्धा करने लगे। एक दिन उन्होंने कहा, “स्वामीजी मैं आपकी पादपूजा करूँगा लेकिन  स्वामीजी राजी नहीं हुए। उन्होंने अनेक मूल्यवान् वस्तुएँ भेंट करनी चाहीं लेकिन स्वामीजी ने ‘कुछ भी ग्रहण नहीं किया। महाराजा ने स्वामीजी से उनकी व्यक्तिगत सेवा करने की प्रार्थना की। इस पर स्वामीजी ने कहा, “दीन- दुःखियों की सेवा ही मेरी सेवा है।” 

राजमहल में एक दिन पण्डितों की एक विराट् सभा आयोजित की गयी। पण्डितों का भाषण समाप्त होने के पश्चात् स्वामीजी से भी कुछ बोलने का अनुरोध किया गया। स्वामीजी ने संस्कृत में सार्वभौम वेदान्त के सम्बन्ध में ऐसा हृदयस्पर्शी भाषण दिया कि चारों और से “धन्य! धन्य !” की ध्वनि उठने लगी।

स्वामीजी के मद्रास पहुँचते ही नगर में चारों ओर हलचल मच गयी। विश्वविद्यालय से दल-के-दल शिक्षक और छात्र उनसे मिलने को आने लगे। प्राचीनतम वेदों से लेकर आधुनिकतम ज्ञान तक, फिर काव्यशास्त्र, शिल्पकला, संगीतविद्या, नीतिशास्त्र, योग, भौतिकविज्ञान, राजनीति आदि प्रत्येक विषय में उनका समान रूप से अधिकार था । सब लोग उनकी बुद्धि की पैठ देखकर विस्मित थे। 

एक प्रत्यक्षदर्शी लिखते हैं:

तरुण संन्यासी के मुख से नवजागरण का सन्देश सुनकर सभी मुग्ध थे। शिकागो धर्ममहासभा में स्वामीजी को हिन्दूधर्म का प्रतिनिधि बनाकर भेजने के लिए जब मद्रास के प्रमुख नागरिक बड़े उत्साह के साथ धन-संग्रह के कार्य में जुटे हुए थे, ठीक उसी समय एक रात को अर्धनिद्रा की अवस्था में स्वामीजी ने एक अद्भुत स्वप्न देखा कि  ज्योतिर्मय देह में उनके गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस  समुद्र के जल पर से होकर चले जा रहे हैं और उन्हें अपने पीछे-पीछे चले आने का संकेत कर रहे है। क्षण भर बाद ही उनकी नींद खुल गयी और उनका हृदय एक अवर्णनीय आनन्द से पूर्ण हो उठा, साथ ही उन्हें एक देववाणी, “जाओ” सुनाई पड़ी 

श्रीरामकृष्ण जी की इच्छा जान लेने के बाद अब स्वामीजी का  पाश्चात्य देशों में जाने का संकल्प दृढ़ हो गया। दो-एक दिन के भीतर ही यात्रा की सारी तैयारियाँ पूरी हो गयीं ।

दो वर्ष पूर्व स्वामीजी ने खेतड़ी के सन्तानहीन राजा को पुत्र होने का आशीर्वाद दिया था। राजा को पुत्रलाभ हुआ। अतः उनके विशेष अनुरोध पर राजपुत्र को आशीष देने उन्हें खेतड़ी जाना पड़ा। राजा, राजपुत्र और प्रजा को आशीर्वाद देने के बाद स्वामीजी जहाज पकड़ने बम्बई गये। 

इसके आगे का वर्णन कल वाले लेख में करना उचित होगा 

जय गुरुदेव ,धन्यवाद्


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