24 दिसंबर 2025 का ज्ञानप्रसाद
आज का ज्ञानप्रसाद 2020 में प्रकाशित हुए “स्वामी विवेकानंद और विश्व धर्म सम्मेलन शिकागो” रिसर्च पेपर पर आधारित है। रामजय कॉलेज छपरा बिहार के आदरणीय डॉ संतोष रजक जी का पांच पृष्ठों का रिसर्च पेपर वर्तमान लेख श्रृंखला में एक विशेष योगदान लेकर आया है जिसे “शोध समागम” नामक रिसर्च Journal ने प्रकाशित किया है। रिसर्च पेपर के अंत में दी गयी References लिस्ट, पेपर की Validity को प्रमाणित कर रही है, पाठक कहीं यह न समझ बैठें कि यह कोई ऐसी वैसी रिसर्च है, फिर भी यदि कभी भी,कहीं भी कोई त्रुटि दिखाई दे तो हम संशोधन करने को संकल्पित हैं।
स्वामीजी उन दिनों के भारत की दयनीय स्थिति से पीड़ित और आध्यात्मिकता के प्रसार के लिए पाश्चात्य देशों में गए थे,क्या उन्हें दोनों लक्ष्यों में सफलता मिली? साथिओं से आग्रह है कि कृपया पूर्णतया बिना किसी पक्षपात के आज के भारत एवं विश्व की छवि को पैनी दृष्टि से देखें और फिर कोई निष्कर्ष निकालें।
पिछले 100-150 वर्षों में भारत कहाँ से कहाँ पँहुच गया है,किसी से छिपा नहीं है। आज स्वामीजी,पूज्य गुरुदेव जैसे महासंत हमारे साथ नहीं हैं लेकिन उनका साहित्य एक अदृश्य गुरु की भांति अँधेरे में दीपक की भांति हमारा पथ प्रदर्शक है। हम सबका कर्तव्य बनता है कि ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से प्रकाशित होने वाला प्रत्येक लेख पूर्ण श्रद्धा एवं नियमितता से ग्रहण किया जाये,उससे मार्गदर्शन प्राप्त किया जाये। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो अनेकों की भांति बातें बनाने के सिवाय और कुछ भी नहीं होगा।
आज का लेख यहीं से शुरू होता है।
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9 सितम्बर 1893 को शिकागो में विश्वधर्म-सम्मेलन आयोजित हुआ था। भारत का एक युवक, व्यावहारिक रूप से पूर्णतया अज्ञात हिन्दू संन्यासी, जिसने इसमें भाग लिया, वह सम्मेलन में सबकी हैरानगी का कारण, सबसे महान, सबसे लोकप्रिय ओर प्रभावशाली व्यक्ति बन गया।
यह सब अब इतिहास बन चुका है। विश्वधर्म सम्मेलन एवं स्वामीजी का इसमें भाग लेना, इन दोनों के अभिप्राय अथवा महत्व को स्पष्ट समझने के लिये हमें अपने आप से प्रश्न पूछना होगा:
“ऐसी कौन सी परिस्थितियां थीं जिन्होंने स्वामी विवेकानन्द को विश्वधर्म-सम्मेलन में प्रथम स्थान प्राप्त कराया?
इतिहास में इस प्रश्न के भिन्न-भिन्न उत्तर दिए गए हैं लेकिन प्रथम स्थान मिलने से पहले यह समझना होगा कि स्वामी जी सम्मलेन में गए क्यों थे ?
कुछ व्यक्तियों का कहना है कि स्वामीजी का पाश्चात्य देशों में जाने का प्रधान कारण विश्वधर्म सम्मेलन में भाग लेना था, भारत की निर्धन जनता के उत्थान के लिये धन एकत्र करना था। स्वामीजी ने कन्याकुमारी में भारतीय द्वीप की अन्तिम चट्टान पर बैठकर तीन दिन/रात लगातार ध्यान किया था। उनके ध्यान का विषय ईश्वर या भगवान नहीं थे, बल्कि भारत का भूत, वर्तमान और भविष्य था। अपने प्राणों से भी प्रिय मातृभूमि पर किये गये ध्यान में स्वामीजी का आमना-सामना भारत के प्राचीन गौरव एवं उस समय की स्थिति से हुआ था। उन्होंने स्पष्ट देखा कि यदि भारत को भविष्य में विकास करना है, तो यह उसकी उच्चतम अध्यात्मिक चेतना द्वारा ही संभव होगा। स्वामीजी के समय में भारत की स्थिति ऐसी नहीं थी जैसी आज 2025 में है, उस समय भारत बहुत ही दरिद्र था। लाखों लोग आर्थिक रूप से पिछड़े हुए थे, राजनीतिक रूप से भी भारत स्वतन्त्र नहीं था, सामाजिक रूप से कठोर जातिवाद के नियमों से बँधा था।
स्वामीजी के जीवनीकार हमें बताते हैं कि जब स्वामीजी ने कन्याकुमारी में समुद्र की ओर देखा, तो उनकी दृष्टि में एक प्रकाश की किरण आई जिसने उन्हें लाखों लोगों के हित के लिए अमेरिका जाने का आह्वान किया, अपनी बौद्धिक शक्ति द्वारा उन्हें धन एकत्र करने के लिए प्रेरित किया। उन्हें प्रेरणा मिली कि भारत लौटकर उन्हें अपने देशवासियों के उत्थान के लिए स्वयं को समर्पित करना होगा या इस प्रयास में मर जाना होगा ।
विश्वधर्म सम्मेलन से पहले की रात में यदि स्वामीजी ने कुछ सोचा था, तो वह भारतवासियों की दरिद्रता के विषय में ही था। उनकी अति दरिद्र मातृभूमि और धन-विलास से परिपूर्ण अमेरिका के बीच की विषमता को देख स्वामीजी सो न सके। भाव के आवेग में उन्होने अपना बिस्तर छोड़ दिया और फर्श पर लेटकर रोते हुए पूछने लगे:
“हे माँ! क्या मैं नाम-यश की अपेक्षा करूँ, जबकि मेरी मातृभूमि सर्वाधिक दरिद्रता में डूबी हुई है। दरिद्र भारतवासियों की कितनी दुःखद स्थिति है, वहाँ लाखों लोग एक मुट्ठी अन्न के लिये तरस रहे हैं, और यहाँ ये लोग अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए लाखों रूपये खर्च कर रहे हैं। भारत की जनता को ऊपर कौन उठायेगा? कौन उन्हें रोटी देगा ? मुझे मार्ग दिखाओं। हे माँ! मैं कैसे उनकी सहायता करूँ।”
कुछ दिनों बाद उन्होंने एक शिष्य को लिखा:
“मैं इस देश में अपने कौतूहल को शान्त करने नहीं आया और न ही नाम या यश के लिये, बल्कि इसलिये आया हूँ, कि यदि मैं किसी भी प्रकार से भारत के दरिद्रों के लिये सहारा ढूँढ़ सकूँ।”
जैसा कि बाद में ज्ञात हुआ स्वामीजी को सहायता नहीं मिली। विश्वधर्म सम्मेलन के अपने व्याख्यानों में से एक में उन्होंने कहा:
“मैं इस देश में अपने निर्धन भाइयों के निमित्त सहायता माँगने आया था लेकिन मैं यह पूरी तरह समझ गया हूँ कि एक ईसाई राष्ट्र में ईसाइयों द्वारा मूर्तिपूजकों (हिन्दुओं) के लिये सहायता पाना कितना कठिन है।”
यह सत्य है कि लोगों ने उन्हें बहुत पसंद किया और कुछ ने बड़ी निष्ठा से उनका साथ दिया एवं मित्रवत् व्यवहार किया लेकिन स्वामीजी की आशा के विपरीत उनके भारतीय कार्य के लिये उत्साहपूर्ण सहायता बड़े पैमाने पर कभी नहीं आयी। अपने “प्रारम्भिक उद्देश्य” से हारे स्वामीजी भारत वापस आ जाते परन्तु क्या वे आ सके?
अधिकतर लोग पाश्चात्य देशों में धन मिलने पर भी उसे न लेकर लगातार अपनी शिक्षाओं को फैलाते देख आश्चर्यचकित हो जाते है । एक पत्र में स्वामीजी ने लिखा है:
“मनु के अनुसार, सन्यासी के लिए धन एकत्र करना (अच्छे कार्य के लिये भी) अच्छा नहीं है ओर मुझे यह अनुभव होने लगा है कि प्राचीन ऋषि सही थे। मैं इन बचकाने विचारों में था कि यह करो और वह करो। शायद यही पागलों वाले प्रश्न, मुझे इस देश में लाने के लिये आवश्यक थे।”
इस विषय पर कुछ विचारक यह भी कहते हैं कि यद्यपि स्वामी जी को अपने उद्देश्य में सफलता न मिली,फिर भी वे विदेश में रूके रहे।
कहा जा सकता है कि यां तो उनके विचार पहले से अधिक उच्चतर हुए या फिर उनकी प्राथमिकताएँ बदल गयी थी। हो सकता है कि पाश्चात्य देशों के प्रति उनका दृष्टिकोण ओर भी बड़ा हो गया था। उनके अनुसार स्वामीजी को यह प्रत्यक्ष प्रतीत हुआ हो कि
“पश्चिमी देशों को आध्यात्मिक संदेश की उतनी ही आवश्यकता है जितनी कि भारत को भौतिक उन्नति के लिए धन की। इसलिए पाश्चात्य जगत में आध्यात्मिकता के बीज बोना उनका प्राथमिक कार्य हो गया।”
कुछ पाश्चात्यवादी महात्मा बुद्ध का उदाहरण देकर कहते हैं कि स्वामीजी का पश्चिम देशों को जाने का विशेष प्रयोजन पश्चिम देशों का “आध्यात्मिक पुनरूत्थान” करना ही था। आंशिक रूप से यह भी सच हो सकता है कि पश्चिमी देशों के लिये स्वामीजी की फिलॉसफी किसी भी प्रकार से भारतीयों द्वारा उनके भारतीय देशभक्त होने के दावे से भिन्न नहीं है।
कुछ भारतीय सभी को यह विश्वास दिलाना चाहेंगे कि स्वामीजी केवल भारत और हिन्दूधर्म के लिये पश्चिमी देशों को गये थे।
उदाहरण स्वरूप स्वामीजी ने मद्रास में अपने युवा प्रशंसकों के समूह से जो कहा था, वे उसे इंगित करते हैं:
“समय आ चुका है हमारे मत के प्रचार का, समय आ गया है ऋषियों के मूल्यों के क्रियाशील होने का। क्या हम अपने प्राचीन मत की दृढ़प्राचीर को इन विदेशी प्रभाव से नष्ट होता देखकर भी निष्क्रिय खड़े रहेंगे? क्या हम अभी भी अपनी सामाजिक दलों और अपनी प्रान्तीयता की संकीर्णताओं से जकड़े रहेंगे या हम इनसे बाहर निकलकर अन्य लोगों के विचारसागर में से भारत का हित खोजने का प्रयास करेंगे। पुनरूत्थान हेतु भारत को पुनः शक्तिशाली और एकजुट होना पड़ेगा और अपनी सभी जीवन्त शक्तियों पर ध्यान केन्द्रित करना होगा ।”
प्रत्येक शोधकर्ताओं,विचारकों आदि को अपना पक्ष रखने की पूर्ण स्वतंत्रता है एवं हमें उनका सम्मान करना चाहिए लेकिन हमें इस तथ्य को कभी भी भूलना नहीं चाहिये कि स्वामी जी ने कहीं भी विशेष तौर से हिन्दू की बात नहीं की। विवेकानन्द जैसे व्यक्तित्व को किसी देश/ क्षेत्र, विश्व के किसी भी अन्य भाग में सीमित करना असंभव है। स्वामीजी सार्वभौमिक(यूनिवर्सल) हैं। वे इस या उस देश के नहीं, बल्कि पूरे विश्व के हैं, कोई भी उन पर अपना होने का विशेष दावा नहीं कर सकता है।
जब भारत से किसी ने स्वामीजी से घर लौटने का आग्रह किया, तो स्वामीजी गरज उठे,
“घर लौट आऊँ, कहाँ है घर ? मैं मुक्ति-मुक्ति की परवाह नहीं करता, बल्कि झरने की तरह दूसरों के सुख के लिये मैं लाखों बार नरक जाने को भी तैयार हूँ। यही मेरा धर्म है, सत्य ही मेरा ईश्वर है, सारा ब्रह्माण्ड ही मेरा देश है। मेरे पास शिक्षा हेतु यही सत्य है कि मैं ईश्वर की सन्तान हूँ। मैं अपने जीवन का उद्देश्य जानता हूँ। मैं भारत का जितना हूँ, उतना ही विश्व का भी हूँ, इसमें पाखण्ड कुछ भी नहीं है। मेरा कार्य अन्तर्राष्ट्रीय है, केवल भारतीय नहीं ।”
ऐसा प्रतीत होता है कि स्वामीजी जानते थे कि विश्वधर्म सम्मेलन को उनके कार्य की पहली प्रत्यक्ष सीमा चिन्ह के रूप में माना जायेगा । पश्चिम देश में जाने से एक माह पहले उन्होंने स्वामी तुरीयानन्द से कहा, जो कुछ भी तुम सुन रहे हो, या वहाँ (विश्वधर्म सम्मेलन की ओर इशारा करते हुए) जो हो रहा है, वह सब “इसके लिये (मानवता के लिए ही हो रहा है।” अपनी छाती पर प्रहार कर उन्होंने अन्तिम शब्दों पर जोर दिया, “इसके लिये (मेरे देश के लिए ) ही सब कुछ व्यवस्था की गई है।
मैसूर, रामनाद ओर खेतड़ी के राजाओं ने यात्रा का वित्तीय भार वहन करने का वादा किया और मद्रास के नवयुवक उस उद्देश्य को सफल बनाने को अत्यन्त उत्साही थे, जो स्वामीजी के विश्वधर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिये सम्भव हो सकता था। स्वामीजी जैसे उत्सुक व्यक्ति के लिये तो किसी भी चुनौती का सामना करने के लिए, अभावग्रस्त की सेवा करने में तत्पर, चाहे वह जैसे भी सम्भव हो, विश्वधर्म सम्मेलन एक आदर्श था। उन्होंने देख लिया था कि विश्वधर्म सम्मेलन ही वह उचित मंच है, जहाँ से वे अपने जीवनदायी आध्यात्मिक कोश और विचारों का आदान-प्रदान कर सकते हैं।
अतः निष्कर्ष तो यही निकलता है कि स्वामीजी की पश्चिम यात्रा का उद्देश्य न तो केवल पश्चिम का आध्यात्मिक उत्थान था और न ही केवल भारत का भौतिक उत्थान, बल्कि दोनों ही थे, यदि ऐसा न होता तो आज हम भारत में जो भौतिक समृद्धि देख रहे हैं,पाश्चात्य देशों में जो भारतीयता देख रहे हैं, कैसे संभव हो पाती। आज सारा विश्व हथियारों की दौड़ में लगा हुआ है, दूसरे को नीचे दिखाकर शक्तिशाली होने का दावा कर रहा है,ऐसी स्थिति में यदि कोई विकल्प है तो केवल एक ही:
आध्यात्मिक ज्ञान,भौतिक विकास। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।
रिसर्च रिपोर्ट पर आधारित लेख का यहीं पर समापन होता है,कल फिर से स्वामीजी का पुस्तक का अध्ययन होगा।
धन्यवाद्,जय गुरुदेव