22 दिसंबर 2025 का ज्ञानप्रसाद
विश्वगुरु स्वामी विवेकानंद पर आधारित लेख श्रृंखला का आज का ज्ञानप्रसाद लेख श्रीरामकृष्ण मठ द्वारा प्रकाशित पुस्तक “स्वामी विवेकानंद: संक्षिप्त जीवनी एवं उपदेश” पर आधारित है। लेख में इतना कुछ जानने को है कि यदि सारांश लिख दिया जाये तो Repetition जैसा लगेगा। बेहतर होगा कि पाठक स्वयं ही,अपने विवेक एवं बुद्धि के अनुसार ज्ञान के अथाह सागर में धीरे-धीरे उतरने का प्रयास करें, विश्वास कीजिये बहुत आनंद आएगा। लेख के साथ 19 मिंट की वीडियो भी अटैच की है,उसे भी देखना बहुत ही लाभदायक रहेगा।
तो आइए चलते हैं ज्ञान के गंगासागर में, विश्वशांति की कामना के साथ :
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
अर्थात शान्ति: कीजिये प्रभु ! त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में,अन्तरिक्ष में, अग्नि – पवन में, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन में,सकल विश्व में अवचेतन में,शान्ति राष्ट्र-निर्माण और सृजन में, नगर , ग्राम और भवन में प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण – कण में, शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए
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यह ज्ञानप्रसाद लेख श्रीरामकृष्ण मठ द्वारा प्रकाशित पुस्तक “स्वामी विवेकानंद: संक्षिप्त जीवनी एवं उपदेश” के 21वें रिवाइज्ड एडिशन पर आधारित है। 2017 में प्रकाशित इस पुस्तक के लेखक स्वामी अपूर्वानंद जी का दिव्य ज्ञान प्रदान करने के लिए ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं। पुस्तक में प्रकाशित “नरेन्द्र से विवेकानन्द” चैप्टर ने इस तुच्छ लेखक (अरुण त्रिखा) को इतना मंत्रमुग्ध किया कि अंतर्मन से आवाज़ निकली कि इस दिव्यता को अपने साथिओं के साथ अवश्य शेयर किया जाये।
16 अगस्त 1886 को श्रीरामकृष्ण परमहंस देव जी की महासमाधि के पश्चात् नरेन्द्रनाथ (स्वामी विवेकानंद जी ) ने अपने गुरुभ्राता तारकनाथ की सहायता से कोलकाता नगर के निकट वराहनगर के एक “भूतहा मकान” में प्रथम मठ (रामकृष्ण मठ ) स्थापित किया जो रामकृष्ण आंदोलन का केंद्र बना। यही वह स्थान था जहाँ से स्वामी जी ने भारत भ्रमण के लिए प्रस्थान किया,रामकृष्ण संघ की नींव रखी और बाद में अमेरिका के लिए प्रस्थान किया। इस केंद्र से रामकृष्ण मठ 1892 तक चला। वराहनगर मठ ही आज के प्रसिद्ध बेलूर मठ का प्रारम्भिक रूप था।
आगे बढ़ने से पहले पाठकों को बताना महत्वपूर्ण समझते हैं कि गायत्री परिवार के जन्मदाता एवं हमारे गुरुदेव पंडित श्रीराम शर्मा जी के चार जन्मों में से एक जन्म श्री रामकृष्ण परमहंस भी था। इस लेख के साथ अटैच की गयी स्लाइड में उनके चारों जन्म दर्शाये गए हैं। श्रीरामकृष्ण के महाप्रयाण के बाद नरेन्द्रनाथ आदि युवाभक्त काशीपुर में एकत्र हुए थे जिन्हें श्रीरामकृष्ण ने त्यागमन्त्र में दीक्षित किया था। श्रीरामकृष्ण के जिन शिष्यों ने आगे चलकर संन्यास ग्रहण किया वे संख्या में “सोलह” थे। उनके नाम इस प्रकार हैं:
1.नरेन्द्र (विवेकानन्द),
2.राखाल (ब्रह्मानन्द),
3.योगीन (योगानन्द),
4.बाबूराम (प्रेमानन्द),
5.निरंजन ( निरंजनानन्द),
6.तारक ( शिवानन्द),
7.शरत् (सारदानन्द),
8.शशी (रामकृष्णानन्द),
9.काली (अभेदानन्द),
10. लाटू (अद्भुतानन्द),
11.हरिनाथ ( तुरीयानन्द),
12.गोपाल (अद्वैतानन्द),
13.सारदा (त्रिगुणातीतानन्द),
14.गंगाधर (अखण्डानन्द),
15.सुबोध (सुबोधानन्द)
16.हरिप्रसन्न (विज्ञानानन्द) ।
श्रीरामकृष्णदेव जी की प्रयोग की जाने वाली सारी वस्तुएँ, उनकी भस्मास्थि वराहनगर के इस भूतहा मकान में लायी गयीं और कुछ त्यागी भक्त आकर वहीं रहने लगे। नित्य पूजापाठ, ध्यान-भजन-कीर्तन, शास्त्र-अध्ययन आदि चलने लगा। इस प्रकार श्रीरामकृष्ण की महासमाधि के डेढ़ महीने के भीतर ही उन्हीं के विशेष निर्देशानुसार वराहनगर का मठ स्थापित हुआ। आज समस्त संसार में 160 स्थायी केन्द्र और लगभग 50 उपकेन्द्र स्थापित कर श्रीरामकृष्ण-संघ जो बहुजन हितकर कार्य परिचालित कर रहा है उसका शुभारम्भ वराहनगर मठ को केन्द्र बना कर ही हुआ था। क्रमशः एक-एक कर प्रायः सभी त्यागी भक्तों ने वराहनगर मठ में योगदान किया।
जनवरी 1887 में नरेन्द्र आदि युवक-भक्तों ने आनुष्ठानिक रीति से विधिवत् विरजाहोम करके संन्यास ग्रहण किया। विरजाहोम एक गहन आध्यात्मिक प्रक्रिया है जो व्यक्ति को सांसारिक बंधनों से मुक्त कर आध्यात्मिक उत्थान के लिए तैयार करती है, जिसमें आत्मा को परम पवित्र अवस्था में ले जाया जाता है। यह प्रक्रिया संन्यास दीक्षा का महत्वपूर्ण भाग है जिसका उद्देश्य पिछले कर्मों का नाश करना और स्वयं को शुद्ध करना, शारीरिक और मानसिक रोगों से मुक्ति और दिव्य ऊर्जा प्राप्त करना होता है।
नरेन्द्रनाथ ने उस समय कौन-सा नाम ग्रहण किया था इसका ठीक- ठीक पता नहीं चलता। किसी-किसी के मतानुसार उन्होंने विविदिषानन्द अथवा सच्चिदानन्द नाम ग्रहण किया था। अमेरिका जाते समय उन्होंने विवेकानन्द नाम ग्रहण किया।
त्याग, तपस्या एवं कठोरता से पूर्ण वराहनगर मठ का जीवन रामकृष्ण-संघ के इतिहास का एक उज्ज्वल अध्याय है।
उस समय वहाँ भोजन आदि की कोई स्थायी व्यवस्था न थी। उन जैसे नवयुवकों को कोई आसानी से भिक्षा भी नहीं देता। इसलिए हर दिन भर पेट भोजन भी नहीं मिल पाता।
स्वामी विवेकानन्द स्वयं एक किस्सा सुनाते हुए कहते थे: “वराहनगर में ऐसे दिन बीते हैं जब खाने के लिए कुछ भी नहीं रहता। कुछ दिन तक नमक और भात ही चलता लेकिन उस ओर किसी का ध्यान भी नहीं जाता था। उस समय हम जप ध्यानादि के प्रबल प्रवाह में उतर रहे थे। अहा ! कैसे विलक्षण दिन थे वे ! वह कठोरता देखने पर भूत भी भाग जाते, मनुष्यों की तो बात ही क्या!”
1886 के अन्तिम भाग से 1892 के प्रारम्भ तक वराहनगर मठ का यह ‘भूतहा’ मकान इन नवीन तपस्वियों की साधना का स्थान रहा। श्रीरामकृष्ण का त्याग,वैराग्य, उनकी पवित्रता, उनकी ईश्वरप्राप्ति के लिए तीव्र व्याकुलता तथा सदा भगवत्तन्मयता इन सभी के प्राणों में नयी प्रेरणा जगाया करती थी।
वराहनगर मठ को क्रमशः एक स्थायी रूप लेते देख कर स्वामीजी ने कुछ निश्चिन्तता की साँस ली। उनके गुरुभाई अब तीर्थ-पर्यटन को जाने लगे। स्वामीजी को भी अपने अन्तर से विवेक का आह्वान सुनाई दे रहा था। वे जान गये थे कि समस्त विश्व में उथल-पुथल मचा देने वाली एक विराट् घटना उनकी प्रतीक्षा कर रही है। श्रीरामकृष्ण ने जिस कार्य का निर्देश दिया था उसके सार्थक रूपांतरण के लिए वे गम्भीर रूप से विचार करने में मग्न हो गये।
पहले कुछ दिन के लिए स्वामीजी वैधनाथ (आज के झारखंड का नगर ) और शिमला आदि स्थानों का भ्रमण करने गए लेकिन वराहनगर लौट आये। 1888 में वह पुनः अकस्मात् निकल पड़े और बिना किसी की सहायता के, कमण्डलुधारी परिव्राजक संन्यासी के वेश में वाराणसी, अयोध्या, लखनऊ, आगरा, वृन्दावन, हाथरस होते हुए हिमालय की तलहटी में स्थित हरिद्वार, ऋषिकेश तक चले गये। किन्तु शरीर की अस्वस्थता तथा गुरुभाइयों के विशेष अनुरोध पर कुछ समय बाद उन्हें फिर वराहनगर मठ लौट आना पड़ा।
भारत में एवं सारे विश्व में एकत्व-साधना (Unification sadhna) ही श्रीरामकृष्ण के आविर्भाव तथा समन्वयपूर्ण जीवन का उद्देश्य था।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से प्रकाशित होने वाला प्रत्येक लेख इस धारणा से लिखा जाता है कि किसी भी टेक्निकल शब्द यां स्थिति को यूँही न छोड़ दिया जाए बल्कि यथासंभव समझने का प्रयास किया जाए। उसी धारणा को ध्यान में रखते हुए यहाँ पर एकत्व-साधना को समझना आवश्यक हो जाता है।
एकत्व साधना का अर्थ है “अकेलेपन या अलगाव” की भावना को मिटाकर, स्वयं को और समस्त ब्रह्मांड को एक ही चेतना का हिस्सा मानने का अभ्यास, जो ध्यान, प्राणायाम और आत्मज्ञान (Self-realization) के माध्यम से किया जाता है, जहाँ साधक अपनी “मैं” और “दूसरों” के भेद को भूलकर परम शून्य में खोकर शुद्ध चेतना का अनुभव करता है, जिससे जीवन में एकता और आंतरिक शांति स्थापित होती है। यह साधना व्यक्ति की पहचान, उसके “मैं” के भाव और विश्लेषणात्मक मन (Analytical mind) को मिटाने पर केंद्रित होता है ताकि केवल शुद्ध चेतना ही बाकी रह जाये। लेकिन यदि अपने आसपास देखा जाये तो शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति मिल सके जो शर्मा,वर्मा,गुप्ता आदि विशेषणों को छोड़कर, डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, टीचर पदवियों को छोड़कर,एक साधारण सा मानव अनुभव करने में गर्व अनुभव करता हो। समाज में तो ऐसी भी विडंबना है कि घर के बाहिर “रिटायर्ड So and so की Name plates” लगाकर,अलग सी Identity बनाकर प्रदर्शन करने में गर्व (घमंड) महसूस किया जाता है।
खैर जो भी हो,हमारा तो कार्य है “स्वयं का सुधार”, यही तो गुरुदेव का उद्घोष है। आइये आगे चलते हैं।
एकत्व साधना में आरामदायक स्थिति में बैठकर, अपनी स्वाभाविक साँसों (अंदर आती और बाहर जाती) पर ध्यान केंद्रित करना होता है , उनके तापमान और प्रवाह को महसूस करना होता है। हर साँस के प्रति जागरूक रहना ही एक महत्वपूर्ण तकनीक है। मन को बाहरी दुनिया से हटाकर अंतर-जगत में लाना और उस परम शून्य का अनुभव करना, जहाँ कोई व्यक्ति, वस्तु या समय नहीं होता; स्वयं को खोकर सब कुछ पाना, यही इस साधना का लक्ष्य होता है। यह समझना लक्ष्य होता है कि एक ही दिव्य चेतना सभी शरीरों और वस्तुओं में व्याप्त है और इस ज्ञान के साथ जीना ही सच्ची साधना है। सांसारिक वस्तुओं (धन, परिवार, इंद्रिय सुख) में सुख की बुद्धि को छोड़ना और “आत्मा के ज्ञान” को ही परम उपयोगी समझना इस साधना का उद्देश्य होता है क्योंकि भौतिकता में शाश्वत (Eternal, means lasting forever) सुख नहीं है।
इस साधना से मन शांत होता है,एकाग्रता (Concentration) बढ़ती है, आंतरिक और बाह्य जगत का एकीकरण (Integration) होता है, सद्बुद्धि, सात्त्विकता और सक्रियता (Activation) में वृद्धि होती है और पशुता घटती है और देवत्व का बढ़ता है।
स्वामी जी के चिन्तन का एकमात्र उद्देश्य था कि विश्वमानवता, विश्वबन्धुत्व और विश्वप्रेम (Universal humanity, universal brotherhood, and universal love) का उदय कैसे हो,यह आदर्श कैसे कार्यान्वित हों, पाठक स्वयं ही अनुभव कर सकते हैं कि मात्र 39 वर्ष की आयु में ही उन्होंने कौन-कौन से प्रयास किये,उनके ह्रदय में कितनी टीस थी, भारत के लिए कितना दर्द था, “स्वामी विवेकानंद की आत्मकथा” डाक्यूमेंट्री में इस दर्द का बहुत ही सही चित्रण किया गया है, रामकृष्ण मठ चेन्नई ने यह डाक्यूमेंट्री बनाकर हम सब पर बड़ा उपकार किया है। उन्होंने कहा था कि समस्त विश्व के लोग मेरे जाने के बाद भी मेरे साहित्य से मार्गदर्शन प्राप्त करते रहेंगें। हमारे कमरे में स्वामी जी का टंगा छोटा सा चित्र इन शब्दों की सार्थकता व्यक्त करता दिखता है, ऐसे लगता है जैसे उनके साथ बात हो रही हो।
आज के लेख का यहीं पर मध्यांतर होता है,ज्ञान के इस अथाह सागर में कल यहीं से आगे कदम बढ़एंगें।
धन्यवाद्,जय गुरुदेव




