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स्वामी विवेकानन्द जी की तीन अल्मोड़ा यात्रायें- लेख शृंखला का चौथा लेख 

सुकरात और अल्बर्ट आइंस्टीन जैसे विचारकों ने अक्सर दोहराया है: The more I study, the less I know, समय-समय लोगों ने इस तथ्य को अपनी सुविधा के अनुसार तोड़-मरोड़ कर अलग-अलग अर्थ निकाले। जिसे पढाई में कोई रूचि नहीं थी उसने कहा कि यदि मुझे अधिक पढ़कर कंफ्यूज ही होना है तो मैं पढूं ही क्यों? लेकिन विचारकों ने इस स्टेटमेंट को हल्के  में नहीं लिया। उनके अनुसार ज्ञान अनंत है, इसे जितना अधिक जानेगें,जिज्ञासा बढ़ती ही जाएगी। सागर के तट पर गहराई तो कुछ भी नहीं है, ज्यों-ज्यों भीतर जाते हैं,गहराई बढ़ती ही जाती है। यहाँ  एक और तथ्य निकल कर आता है कि तट पर  सागर की गहराई तो मापी जा सकती है लेकिन अंदर की गहराई का अनुमान लगाना इतना सरल नहीं है (वैज्ञानिकों ने अवश्य ही मापी होगी !!!) ज्यों-ज्यों ज्ञान की गहराई बढ़ती जाती है साधक ऐसी स्थिति को मानने के लिए Convince हो जाता है कि “मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं है” क्योंकि ज्ञान तो अनंत है। 

हमारी भी स्थिति कुछ ऐसी ही है। प्रोफेसर त्रिपाठी जी ने जब से स्वामी जी की तीन अल्मोड़ा यात्राओं का सुझाव दिया था तब से हमारी रिसर्च आरम्भ हो गयी थी लेकिन कल रात से अब तक, जब यह पंक्तियाँ लिख रहे हैं, अगर पांच घण्टे सोने के निकाल दें तो 20 घंटे नॉन स्टॉप पढ़ने के बाद आज का ज्ञानप्रसाद संभव हो पाया है। 

लेख का आरम्भ हेमंत कुमार जी के 2021 में प्रकाशित रिसर्च पेपर पर आधारित है और समापन जागरण समाचार पत्र की न्यूज़ आइटम  से हो रहा है। दोनों सोर्सेज के लिंक नीचे दिए गए हैं : 

https://www.jagran.com/uttarakhand/nainital-swami-vivekananda-has-also-been-associated-with-green-revolution-national-youth-day2022-22373435.html

आइये विश्व शांति की कामना करें और आज के लेख का शुभारम्भ करें। 

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अल्मोड़ा नगर कूर्मांचल की राजधानी के रूप में प्रसिद्ध रहा है। यह जिस पहाड़ी पर बसा हुआ है, उसके एक ओर कोसी तथा दूसरी ओर सुआल नदी बहती है। मध्यकाल में कुमाऊं के राजाओं द्वारा बसाया यह अनूठा नगर चारों ओर पहाड़ियों से घिरा है: उत्तर में कसार देवी, पूर्व में बानड़ी देवी, पश्चिम में स्याही देवी तथा दक्षिण में मुक्तेश्वर की पर्वतश्रृंखला नगर को एक सुविस्तृत दृश्यावली और अनुपम खुला सौन्दर्य प्रदान करते हैं

स्वामी विवेकानन्द जैसे महापुरूष ही नहीं, ब्रूस्टर और रुडोल्फ नामक प्रतिभाशाली चित्रकार एवं नोबेल प्राइज  विजेता रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे कलाकार भी यहां निवास कर “कला साधना” कर चुके हैं। निश्चय ही यहाँ के वायुमंडल में आध्यात्मिक जिज्ञासा तथा कलात्मक सौन्दर्य-बोध को प्रदान करने वाली कोई बात रही होगी जिसने आज तक कलाकारों, खोजियों, साधकों को इस नगर से जोड़े रखा है।

अल्मोड़ा के पवित्र आँचल में स्वामी विवेकानन्द जी की तीव्र इच्छा थी। वह हिमालय के किसी एकांतवास में गहन समाधि लेना चाहते थे। इसी इच्छा के लिए स्वामी जी ने 1888 में कलकत्ता से प्रस्थान किया, ऋषिकेश पहुंचे, यहां से उनकी इच्छा बद्रीनाथ यात्रा करने की हुई। अचानक उनके शिष्य शरद चंद गुप्ता (सदानन्द) का स्वास्थ्य खराब होने के कारण बद्रीनाथ की यात्रा छोड़नी पड़ी। 

19 जून 1889 को अखण्डानन्द द्वारा अल्मोड़ा के बद्रीशाह को लिखे गये पत्र में स्वामी जी के अल्मोड़ा में आगमन का प्रथम संकेत मिलता है जिसमें विवेकानन्द जी को गुरुभाई नाम से संबोधित किया गया है। जैसे ही स्वामी जी कलकत्ता से अल्मोड़ा के लिए प्रस्थान हो रहे थे एक बार फिर भाग्य ने बाधा डाल दी। उसी दिन उनके प्रिय शिष्य सदानन्द का अचानक स्वास्थ्य खराब होने के कारण इस यात्रा को भी स्थगित करना पड़ा। किन्तु अल्मोड़ा जाने का विचार उन्होंने नहीं छोड़ा।

आखिरकार 1890 में उन्होंने आल्मोड़ा की प्रथम यात्रा की। 6 जुलाई को उन्होंने अपने दो गुरुभाई शारदानन्द और वैकुण्ठनाथ जो कि उस समय अल्मोड़ा में ही थे, को पत्र लिखा: 

पहाड़ी की तलहटी पर स्थित “कुमाऊँ का द्वार” नाम से प्रसिद्ध काठगोदाम रेलवे स्टेशन में स्वामी विवेकानन्द अखण्डानन्द के साथ हाथ में छड़ी और कमण्डल लिए पहुंचे। वहां से दोनों नैनीताल के लिए प्रस्थान हुए। वहां से अल्मोड़ा तक उन्होंने पैदल यात्रा की भोजन के लिए दोनों  भिक्षा का आश्रय लेते थे, किन्त भोजन का सौभाग्य कभी-कभी ही मिल पाता था।अल्मोड़ा मार्ग की चढ़ाई पैदल चढ़ते- चढ़ते उनका निराहारी शरीर अचेत होने लगा। एक मुस्लिम कब्रिस्तान के सामने मूर्छित होकर गिर पड़े। साथी अखण्डानन्द उनकी यह हालत देख जल की तलाश में निकल पड़े। इसी बीच एक फकीर की दृष्टि  स्वामी जी पर पड़ी उसके हाथ में एक ककड़ी थी । उसने इस ककड़ी को स्वामी जी को भेट किया किन्तु स्वामी जी का शरीर सामर्थ्यहीन था जिस कारण वह हाथ आगे नहीं बढ़ा सके। अतः स्वामी जी ने धीमे स्वर में फकीर को ककड़ी मुंह में डालने के लिए निवेदन किया। फकीर बोला, “मैं एक मुसलमान हूँ आप मेरे हाथ का कैसे खा सकते हैं ?। स्वामी जी ने उत्तर दिया तो इसमें क्या हुआ? क्या हम सब भाई नहीं हैं ? 

इस यात्रा में स्वामी जी ने केवल साधना की और कुछ एक  परिचित लोगों से मुलाकात की। अल्मोड़ा में वह कई दिनों तक खजांची मोहल्ले में बद्री शाह के मेहमान बनकर रहे। 

16 सितंबर 2021 में न्यूज 18 समाचार पत्र में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार अल्मोड़ा के खजांची मोहल्ले में स्वामी विवेकानंद का सामान आज भी मौजूद है।  यहां उनकी चरण पादुका, छड़ी, किताबें और टेबल लैंप रखा हुआ है। स्वामी विवेकानंद की दवात की शीशियां भी यहां रखी हुई हैं।  जिस कप में वह चाय पीते थे, वह भी इस भवन में देखने को मिल जाएगा। 

खजांची मोहल्ले का अपना एक ऐतिहासिक महत्व है। इस मोहल्ले में रहने वाला  ठुलघरिया शाह परिवार, अंग्रेजों का खजांची रहा।  इसी कारण इसका नाम खजांची मोहल्ला रखा गया।  यही वह मोहल्ला है जहां स्वामी विवेकानंद हिमालय यात्रा के दौरान दो बार शाह के मेहमान बनकर रहे। 

सात वर्षों बाद 1897 में स्वामी जी दूसरी बार अल्मोड़ा यात्रा पर आये। इस यात्रा के समय वह अज्ञात सन्यासी नहीं थे, वह शिकागो विश्वधर्म सम्मेलन से विश्व विख्यात स्वामी विवेकानन्द बन चुके थे। उनके आगमन पर अल्मोड़ा में उनका भव्य स्वागत हुआ। पूरे नगर को सजाया गया था। लोधिया से एक सुसज्जित घोड़े में उन्हें नगर में लाया गया और 11 मई 1897 के दिन खजांची बाजार में उन्होंने जनसमूह को संबोधित किया। इस स्थान पर तब 5000  लोग एकत्र हुए थे | अभिनन्दन समारोह के दौरान स्वामी विवेकानन्द उस फकीर को पहचान गए जिसने 1890 की प्रथम हिमालय यात्रा के दौरान कब्रिस्तान  के निकट स्वामी जी के अचेत होने पर ककड़ी खिलाकर उनकी जान बचाई थी। स्वामी जी ने उस फकीर का आभार प्रकट करते हुए धन्यवाद किया। उसके पास गये और उसे दो रुपये भी दिये।

स्वामी विवेकानन्द ने अपने संबोधन में कहा था:

उल्लेखनीय है कि 1916 में स्वामी विवेकानन्द के शिष्य, स्वामी तुरियानंद और स्वामी शिवानंद ने अल्मोड़ा में ब्राइट एंड कार्नर पर एक केन्द्र की स्थापना कराई। जो आज “रामकृष्ण कुटीर” नाम से जाना जाता है।

1897 की यात्रा के दौरान स्वामी विवेकानन्द ने करीब तीन माह तक देवलधार और अल्मोड़ा में निवास किया। इस अंतराल में उन्होंने स्थानीय लोगों के आग्रह पर अल्मोड़ा में तीन बार विभिन्न सभागारों में व्याख्यान दिया। 28 जुलाई, 1897 को अल्मोड़ा के तत्कालीन इंग्लिश क्लब में हुए व्याख्यान की अध्यक्षता तत्कालीन गोरखा रेजीमेंट के प्रमुख कर्नल पुली ने की। इसमें कई अंग्रेज अफसरों के अलावा अल्मोड़ा के स्थानीय लोग शामिल हुए। स्वामी विवेकानन्द 2 अगस्त 1897 में अल्मोड़ा से लौट गए।

स्वामी जी की अल्मोड़ा में तीसरी यात्रा मई-जून 1898 में हुई जब “प्रबुद्ध भारत पत्रिका” का फिर से प्रकाशन आरम्भ हुआ।  

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अब आते हैं जागरण की न्यूज़ आइटम पर: 

दुनिया के लिए प्रेरणास्रोत स्वामी विवेकानंद अपने जीवन का अंतिम समय उत्तराखंड के लोहाघाट स्थित अद्वैत आश्रम में बिताना चाहते थे। 

देवभूमि में पांच बार आध्यात्मिक यात्रा कर चुके युगपुरुष की उत्तराखंड से कई स्मृतियां जुड़ी हैं।

स्वामी जी ने वर्ष 1888 में नरेंद्र के रूप में हिमालयी क्षेत्र की पहली यात्रा शिष्य शरदचंद गुप्त (बाद में सदानंद) के साथ की थी। शरद जी हाथरस में स्टेशन मास्टर थे। इस यात्रा का विस्तृत विवरण हमारे अन्य लेख में दिया गया है जिसका लिंक नीचे दे रहे हैं:

स्वामी विवेकानंद ने दूसरी यात्रा जुलाई, 1890 में की थी। तब स्वामी जी अयोध्या से नैनीताल पैदल पहुंचे थे। प्रसान्न भट्टाचार्य के आवास पर छह दिन रुकने के बाद अल्मोड़ा से कर्णप्रयाग, श्रीनगर, टिहरी, देहरादून व ऋषिकेष पहुंचे थे। इस यात्रा के दौरान उन्होंने तप, ध्यान व साधना की। अल्मोड़ा के काकड़ीघाट में पीपल वृक्ष के नीचे उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त हुआ था। कसार देवी गुफा में कई दिनों तक ध्यान किया और उत्तिष्ठ भारत की प्रेरणा प्राप्त हुई।

स्वामीजी ने उत्तराखंड में तीसरी यात्रा शिकागो से लौटने के बाद 1897 में की। अल्मोड़ा पहुंचने पर लोधिया से खचांजी मोहल्ले तक पुष्प वर्षा की गई थी। वहां वह लाला बद्रीलाल साह के अतिथि रहे। देवलधार एस्टेट में उन्होंने गुफा में ध्यान लगाया था।

हिमालय की चौथी यात्रा मई-जून 1898 में की थी। इस बीच अत्यधिक श्रम के चलते उनका स्वास्थ्य खराब रहा। इस यात्रा के दौरान उन्होंने अल्मोड़ा के थॉमसन हाउस से “प्रबुद्ध भारत” पत्रिका का फिर से प्रकाशन आरंभ किया। 222 साल पुराने देवदार के वृक्ष के नीचे भगिनी को दीक्षा दी। इस यात्रा में उन्होंने रैमजे इंटर कॉलेज में पहली बार हिंदी में भाषण दिया था। उनके इस भाषण से लोग काफी प्रभावित हुए थे।

उत्तराखंड में उनकी अंतिम यात्रा वर्ष 1901 में मायावती के अद्वैत आश्रम में हुई थी। डॉ. लखेड़ा बताते हैं कि आश्रम को बनाने वाले कैप्टन सेवियर की मृत्यु पर 170 किलोमीटर की दुर्गम यात्रा कर वह 3 जनवरी, 1901 को अद्वैत आश्रम लोहाघाट पहुंचे और 18 जनवरी, 1901 तक रहे। इस दौरान उन्होंने तप किया था। जैविक खेती की बात की, आज भी आश्रम में जैविक खेती हो रही है।

तो साथिओ, कल शनिवार है अपने साथिओं के योगदान का दिन। 

जय गुरुदेव 


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