18 दिसंबर 2025 का ज्ञानप्रसाद
आज का ज्ञानप्रसाद लेख एक बहुत ही बेसिक प्रश्न का उत्तर दे रहा है: स्वामीजी की विदेश यात्रा से सामान्य भारतीय को क्या लाभ मिला? क्या आध्यात्मिकता से पेट की भूख शांत होती है ?
तो आइये आज के ज्ञानप्रसाद लेख का अमृतपान करें।
*********************
देश दशा का अनुभव:
सन् 1888 में स्वामीजी सामान्य भारतवासी को जानने के लिए देश-भ्रमण के लिए निकले I उस समय उन्होंने अपने पास एक भी पैसा न लिया और न किसी तरह की सामग्री । केवल भगवान के भरोसे वे आश्रम से निकल पड़े। सबसे पहले वृंदावन होकर हाथरस पहुँचे। वहाँ का स्टेशन मास्टर शरदचंद्र उनका भक्त बन गया,उसने बड़े आग्रह के साथ स्वामी जी को अपने यहाँ ठहराया। एक दिन उसने पूछा, ” स्वामीजी ! आप उदास क्यों जान पड़ते हैं ?” स्वामीजी ने उत्तर दिया, “बेटा ! मुझे एक महान कार्य पूरा करना है लेकिन अपने साधनों की अल्पता देखकर मैं निराश हो जाता हूँ । मेरे गुरु का आदेश है कि अपनी मातृभूमि का पुनरुत्थान किया जाए। हमारी मातृभूमि से सच्ची आध्यात्मिकता लुप्त हो गई है और चारों तरफ भुखमरी का भूत घूम रहा है । इसलिए भारतवर्ष को शक्तिशाली बनाकर, इस देश की आध्यात्मिकता द्वारा विश्व को विजय करना चाहिए। “
कुछ समय बाद स्वामीजी हाथरस से चल दिए लेकिन शरदचंद्र ने उनका साथ न छोड़ा। उसने नौकरी से इस्तीफा दे दिया और साधु बनकर इनके साथ ही चल दिया।
स्वामीजी हिमालय के विभिन्न स्थानों में भ्रमण करने लगे जहाँ शरदचंद्र बीमार पड़ गया। तब स्वामीजी ने उसकी इतनी अधिक सेवा की जितनी कोई नौकर भी नहीं कर सकता। हरिद्वार पहुँचकर स्वामी जी स्वयं ही बीमार हो गए और पाँच महिने की चिकित्सा तथा सेवा सुश्रुषा से बड़ी कठिनाई से नीरोग हुए। इस बीच में खबर आई कि कोलकाता का आश्रम आर्थिक संकट के कारण बड़ी बुरी हालत में है । स्वामीजी शीघ्र ही कोलकाता पहुँचे और कुछ व्यवस्था करके फिर भारतवर्ष की यात्रा पूर्ण करने को निकल पड़े। इस यात्रा में स्वामीजी को बड़े अनुभव हुए और उन्होंने विभिन्न भारतीय वर्गों की अच्छी जानकारी प्राप्त की । राजस्थान भ्रमण करने के लिए वे पहले अलवर पहुँचे और वहाँ दो-तीन दिन में ही उनकी ऐसी ख्याति हो गई कि हिन्दू ही नहीं, मुसलमानों के समूह भी दर्शनों को आने लगे। अंत में वहाँ के महाराज ने उनको बुलाया और सत्संग करके अपने को धन्य माना ।
अलवर में रहते समय एक गरीब बुढ़िया ने उनको बड़े प्रेम से रोटी खिलाई थी। स्वामीजी उसे कभी नहीं भूले। जब अमरीका से विश्व- विजयी बनकर लौटे तो उस बुढ़िया के घर स्वयं ही पहुँचे और उसके हाथ से मोटी रोटी और साग बनवा कर खाया। चलते समय उसके घर वालों को चुपचाप सौ रुपए सहायता के लिए दे आए। राजस्थान में ही खेतड़ी के पास एक गाँव में स्वामी जी तीन दिन तक रहे । वहाँ के निवासी उनसे प्रश्नोत्तर तो रात-दिन करते रहे लेकिन किसी ने भी भोजन तो क्या पानी के लिए भी नहीं पूछा। यह देखकर एक गरीब हरिजन को बड़ी व्यथा हुई। रात्रि में सबके चले जाने पर वह स्वामीजी के पास पहुँचकर अपना मनोभाव प्रकट करने लगा। स्वामीजी ने जब उससे रोटी लाने के लिए कहा तो वह डरकर कहने लगा कि मेरी रोटी खाकर आपका धर्म भ्र्ष्ट हो जायेगा और इस बात के प्रकट होते ही मुझे गाँव से बाहिर निकाल दिया जाएगा। स्वामीजी के आश्वासन देने पर वह तीन-चार रोटियाँ दे गया और स्वामीजी ने उनमें अमृत के समान स्वाद पाया। फिर जब वे खेतड़ी के राजा के गुरु बनकर राजमहल में ठहरे तो उन्होंने इस घटना का जिक्र किया। राजा साहब ने हरिजन को बुलवाया। पहले तो वह बहुत घबड़ाया और क्षमा माँगने लगा लेकिन राजा ने उसकी बड़ी प्रशंसा की और उसे पुरस्कृत करके उसकी गरीबी को दूर कर दिया।
गुजरात के एक छोटे से गाँव लिम्बड़ी में स्वामीजी संन्यासियों के एक आश्रम में ठहरे,स्वामीजी को व्यभिचार-कर्म (Adultery) करने के लिए कहा गया लेकिन जब उन्होंने इस व्यभिचार से घृणा प्रकट की तो उनको एक कोठरी में बंद कर दिया और मारने का भय दिखाने लगे । स्वामीजी बड़ी कठिनाई से उनके फंदे से छूटे और उनको भ्रष्ट कर्म करने के अपराध में गिरफ्तार कराया। इस घटना से स्वामीजी के ब्रह्मचर्य व्रत की दृढ़ता का परिचय मिलता है।
मैसूर के महाराज ने भी उनका बड़ा सत्कार किया। एक दिन वहाँ के दीवान ने उनको कोई भेंट देने का बड़ा आग्रह किया और चैक-बुक देकर अपने सेक्रेटरी को साथ में भेज दिया कि नगर की सबसे बड़ी दुकान में स्वामीजी जो कुछ पसंद करें वही दिला दिया जाए। स्वामीजी ने सब कुछ देखा-भाला लेकिन अंत में बारह आने की कोई छोटी-सी चीज लेकर दीवान साहब के आग्रह का पालन किया। इस प्रकार उन्होंने अपने व्यवहार से यह सिद्ध कर दिखाया कि सच्चा संन्यासी सांसारिक प्रलोभनों से अपने को दूर ही रखता है ।
देशोद्धार का संकल्प:
स्वामीजी भारत भ्रमण करते हुए देश की अंतिम सीमा पर पहुँच चुके थे। वे रामेश्वर होकर कन्याकुमारी पहुँचे । वहाँ भारतभूमि के अंतिम छोर की शोभा देखते हुए उन्होंने थोड़ी ही दूर समुद्र के बीच निकली एक बड़ी शिला को देखा। स्वामीजी तैरकर वहाँ पहुँचे और शिला पर बैठकर कई घंटों तक अपने देश की दशा पर विचार करते रहे। अंत में उनके मुख से स्वतः ही ये उद्गार निकले:
“हम लाखों साधु संन्यासी लोगों के लिए क्या कर रहे हैं ? अध्यात्म का उपदेश ? यह तो पागलपन है । मेरे गुरु रामकृष्ण जी ने ठीक ही कहा था कि भूख से मरते हुओं को धर्म का उपदेश देना व्यर्थ है। जहाँ लाखों को दो टाइम का भोजन नहीं मिलता वहाँ वे धार्मिक कैसे बन सकते हैं ? उनके लिए अध्यात्म किस काम का ? इसलिए पहले देशवासियों की आर्थिक अवस्था सुधारने के लिए वैसी ही शिक्षा देनी चाहिए। उसके बाद वे स्वयं अपनी समस्याओं को सुलझा लेंगे लेकिन इस काम के लिए पहले तो कार्यकर्ता चाहिए और ऊपर से धन। मैं भिखारी संन्यासी इसको कैसे दूर कर सकता हूँ ? लेकिन कोई बात नहीं, गुरु की कृपा से मैं इसे अवश्य करूँगा। भारत के एक-एक नगर से ऐसे व्यक्ति इकट्ठे होंगे जिनका हृदय लोगों की दशा सुधारने के लिए तड़प रहा होगा, जो इसके लिए जीवन अर्पण करने को तैयार होंगे। लेकिन पैसा कहाँ से आएगा? इस कार्य का भार लेकर मैं राजा से लेकर रंक तक के पास घूम चुका हूँ लेकिन सर्वत्र सहानुभूति के शब्द ही मिले हैं। इसलिए मैं इस कंगाल देश में किसी का सहारा न लेकर पश्चिमी देशों में जाऊँगा और अपनी विद्या-बुद्धि के प्रभाव से पैसा प्राप्त करूँगा । फिर स्वदेश आकर लोगों के उद्धार की योजना पूरी करूँगा या इसी प्रयत्न में प्राण दे दूँगा।”
मद्रास पहुँचने पर स्वामीजी के पास अनेक जिज्ञासुओं की भीड़ रहने लगी। एक हिन्दू पंडित आया जिसका आचार-विचार पूरी तरह से अंग्रेजी हो चुका था । उसने वेदों को ऋषियों के अर्थहीन लेख बताया और कहा, “स्वामीजी ! संध्या वंदन का समय नहीं मिलता, इसलिए उसे छोड़ दिया जाए तो कोई हानि है ?”
भारतीय संस्कृति के प्रति ऐसी अवज्ञापूर्ण बातें सुनकर स्वामीजी एकदम आवेश में आए और गरजकर कहने लगे,” क्या कहा? जिन प्राचीन महामानवों की बुद्धि के घोड़े चलते नहीं बल्कि उड़ते थे, जिनकी महिमा पर जरा-सा भी विचार करने के प्रति तुम एक क्षुद्र कीड़े की तरह जान पड़ते हो, उन सब ऋषियों के पास तो इस कार्य के लिए समय था, और मेरे साहब! आपके पास ही समय नहीं है। तुमने अंग्रेजी के चार अक्षर सीखकर, कुछ पुस्तकें पढ़ लीं तो उन्हीं से तुम्हारा दिमाग हिल गया है। उन ऋषियों के विज्ञान की तुमने परीक्षा ही कहाँ की है ? तुमने कभी वेदों को पढ़ने का कष्ट उठाया है ? उनमें समझने की शक्ति हो तो फिर उस संबंध में बातें करो। “
स्वामी विवेकानंद जैसे महान व्यक्तित्व को समर्पित वर्तमान लेख श्रृंखला के प्रत्येक लेख का अमृतपान करते समय पाठकों के ह्रदय में बेसिक प्रश्न तो अवश्य ही उठते होंगें कि जिन गरीब भारतीयों की वेदना से प्रभावित होकर स्वामी जी ने विदेश की धरती पर इतने कष्ट भरे दिन व्यतीत किये, क्या उनकी स्थिति में कोई सुधार हुआ? क्या स्वामी जी के प्रवचनों ने औसत भारतीय के पेट की भूख को शांत करने में सहायता की?
तो साथिओ, निम्नलिखित विवरण जिसे हमने ऑनलाइन/ऑफलाइन रिसर्च करके, अनेकों स्रोतों से संकलित किया है अवश्य ही इन प्रश्नों के उत्तर देने में सहायक हो सकते हैं:
स्वामी विवेकानंद की विदेश यात्रा से भारत को सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि पश्चिमी जगत में भारतीय धर्म, संस्कृति और वेदांत दर्शन की महानता स्थापित हुई, जिससे भारत की “आध्यात्मिक पहचान” बनी और भारतीयों में आत्म-सम्मान व आत्मविश्वास जागा। भारत ने विश्व-बंधुत्व (Universal brotherhood) का संदेश दिया, भारत को “विश्व-गुरु (World teacher)” के रूप में प्रस्तुत किया,देश में राष्ट्रवाद, जन-जागरण तथा समाज-सेवा के बीजों को बोया, जिससे भारत की अध्यात्मिक शक्ति दुनिया के सामने आई और भारत को “ज्ञान का केंद्र” के रूप में देखा जाने लगा।
विदेश यात्रा के प्रमुख लाभ:
1. शिकागो धर्म संसद (1893) में स्वामीजी के भाषणों ने वेदांत और हिंदू धर्म के उच्च सिद्धांतों को दुनिया के सामने रखा, जिससे भारत को आध्यात्मिक महाशक्ति के रूप में मान्यता मिली उन्होंने ‘सर्वधर्म समभाव’ (सभी धर्मों के प्रति समान आदर) का संदेश दिया, जो मानवता के कल्याण के लिए आवश्यक था।
2.राष्ट्रवाद और आत्मविश्वास का संचार: विदेशों में भारत की प्रशंसा सुनकर, भारतीयों में सोई हुई राष्ट्रीय भावना और आत्मगौरव जगा, जिससे वे अपनी संस्कृति पर गर्व करने लगे। उन्होंने भारतीयों को अपनी आध्यात्मिक विरासत को पहचानने और उसे विश्व के सामने प्रस्तुत करने के लिए प्रेरित किया।
3.जन-जागरण और समाज-सेवा का बीजारोपण:विवेकानंद ने महसूस किया कि भारत का उत्थान तभी होगा जब गरीबों और आम जनता की स्थिति सुधरेगी; उन्होंने भारत लौटने के बाद शिक्षा, सेवा और राष्ट्रीय उत्थान के कार्यों पर जोर दिया। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की, जो आज भी सेवा और परोपकार के कार्यों में लगा है। 4.आध्यात्मिक ज्ञान का प्रसार: उनके भाषणों और शिक्षाओं के कारण योग, वेदांत और भारतीय दर्शन अमेरिका और यूरोप में लोकप्रिय हुए, जिससे पश्चिमी देशों में भारतीय विचारों के प्रति रुचि बढ़ी।
5.भारत की ‘विश्व-गुरु’ छवि:उन्होंने भारत को केवल एक गरीब देश नहीं, बल्कि ज्ञान और आध्यात्मिकता का स्रोत दिखाया, जिसने पूरी दुनिया को रास्ता दिखाने की क्षमता रखता है।
स्वामी विवेकानंद के प्रवचनों ने सीधे तौर पर पेट की भूख तो नहीं मिटाई, लेकिन उन्होंने सेवा, शिक्षा और आत्मनिर्भरता पर जोर देकर लाखों भारतीयों को गरीबी से बाहर निकलने और आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा दी, जिससे अप्रत्यक्ष रूप से उनकी आर्थिक स्थिति सुधरी और भोजन की व्यवस्था हो पाई। उन्होंने गरीबों के लिए सेवाश्रम खोले और भोजन व शिक्षा दी, जो पेट की भूख शांत करने का एक सामाजिक-आध्यात्मिक समाधान था। शांतिकुंज समेत न जाने भारत में कितने ही आश्रम कार्यरत हैं जो योग और जीवन-शैली के साथ-साथ खाद्य-वितरण करके भी मदद कर रहे हैं, जो पेट की भूख मिटाने में सहायक हैं।
स्वामी जी के प्रवचन सीधे तौर पर अन्न तो नहीं देते लेकिन वे प्रेरणा, शिक्षा और सेवा का माध्यम हैं जो भारतीयों को आर्थिक रूप से मजबूत कर रहे हैं। आधुनिक गुरुओं ने इस परंपरा को आगे बढ़ाते हुए सीधे खाद्य-वितरण और आर्थिक Empowerment से भी मदद की है, जिससे औसत भारतीय के पेट की भूख शांत करने में अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष, दोनों तरह से सहायता मिली है।
कल तक के लिए मध्यांतर
