17 दिसंबर 2025 का ज्ञानप्रसाद
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से प्रस्तुत की जा रही वर्तमान लेख श्रृंखला पूज्यवर की दिव्य रचना “धर्म और संस्कृति के महान उन्नायक -स्वामी विवेकानंद” पर आधारित है। आज प्रस्तुत किये गए लेख में दो ऐसी घटनाएं वर्णित की गयी हैं जिन्हें हमने अनेकों बार सुना/जाना है लेकिन फिर भी हमारा कर्तव्य बनता है कि इन्हें बार-बार समझकर अपने जीवन में उतारा जाये।
श्रीरामकृष्ण मठ द्वारा प्रकाशित 2 घंटे की मूवी बार-बार देखने से भी जी नहीं भरता,हमने न जाने कितनी ही बार देखी है। लेखों के साथ इस मूवी को अटैच करना पाठकों को थोड़ा-थोड़ा करके देखने का सौभाग्य प्रदान करता है।
आइये आज के लेख का शुभारम्भ करें:
रामकृष्ण परमहंस देव से नरेन्द्र का संपर्क क्रमशः बढ़ता जा रहा था, इस निरंतर संपर्क से स्वामी जी की आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रगति बढ़ती ही गयी।
इस समय की एक घटना का वर्णन करते हुए एक लेखक ने बताया है कि एक बार रामकृष्ण परमहंस ने नरेन्द्र को एकांत में बुलाकर कहा: “देखो अति कठोर तपस्या के प्रभाव से मुझे कितने ही समय से “अणिमा” (इसका विवरण आगे आ रहा है) आदि सिद्धियाँ प्राप्त हो चुकी हैं लेकिन मेरे जैसे मनुष्य के लिए, जिसे पहने हुए वस्त्र का भी ध्यान नहीं रहता, उन सब सिद्धियों का उपयोग करने का अवसर ही कहाँ मिल सकता है? इसलिए मैं चाहता हूँ कि माँ (काली देवी) से पूछ कर वोह सब सिद्धियां तुझे सौंप दूँ, क्योंकि मुझे दिखाई पड़ रहा है कि आगे चलकर तुझे माँ का बहुत बड़ा काम करना है। इन सब शक्तियों का तेरे भीतर संचार हो जाए तो समय पड़ने पर उनका उपयोग हो सकता है, कहो, तुम्हारा क्या विचार है ?”
नरेन्द्र को यद्यपि अब तक के अनुभवों से परमहंस देव की दिव्य शक्तियों पर बहुत कुछ विश्वास हो चुका था, तो भी उन्होंने कुछ देर विचार करके कहा, “महाराज, क्या इन सब सिद्धियों से मुझे ईश्वर- प्राप्ति में सहायता मिल सकेगी?”
नरेंद्र, परमहंस देव की अद्भुत शक्ति को एक बार पहले देख चुके थे अनुभव भी कर चुके लेकिन फिर भी सिद्धियां प्राप्त करने की आनाकानी कर रहे थे।
जिस अद्भुत शक्ति का यहाँ वर्णन किया जा रहा है उसे विस्तार में रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन की “स्वामी विवेकानंद-संक्षिप्त जीवनी तथा उपदेश” शीर्षक वाली अद्भुत पब्लिकेशन में पढ़ा जा सकता है। हमने स्वयं इस अद्भुत पुस्तक के कुछ दिव्य पन्नों का स्वाध्याय करके अपने पाठकों के लिए निम्नलिखित वृतांत का प्रयास किया है :
दक्षिणेश्वर से घर लौटकर नरेंद्र ने पढाई में मन लगाने का प्रयत्न किया लेकिन वे किसी भी तरह श्रीरामकृष्ण को भूल नहीं पा रहे थे। दिन-रात श्रीरामकृष्ण का ही विचार उन्हें बेचैन किये रहता था।अन्त में चिन्ता से व्याकुल एक दिन वे अकेले ही दक्षिणेश्वर की ओर चल पड़े। दक्षिणेश्वर में उनके प्रथम आगमन को एक मास बीत चुका था। इधर श्रीरामकृष्ण मानो नरेन्द्र के आने की बात जानकर ही अपने कमरे में छोटे तख्त पर अकेले बैठे प्रतीक्षा कर रहे थे। नरेन्द्र के आते ही वे आनन्द से अधीर हो उठे और “तू आ गया ?” कहकर उनका हाथ पकड़ा उन्हें तख्त पर अपने पास बैठा लिया। फिर बड़े ही स्नेह से उनकी ओर देखने लगे। देखते ही देखते श्रीरामकृष्ण में अद्भुत भावान्तर उपस्थित हुआ। वे भावाविष्ट होकर अस्पष्ट स्वर में अपनेआप से ही कुछ बोलते हुए धीरे-धीरे नरेन्द्र के बिलकुल निकट आ गये। इसके बाद जो हुआ उसका वर्णन नरेन्द्रनाथ ने इस प्रकार किया है:
अकस्मात् मेरे निकट आकर उन्होंने अपने दाहिने पाँव से मुझे छू दिया। उस स्पर्श से क्षणभर में ही मुझे एक अपूर्व अनुभूति हुई। आँखें खुली ही थी,मैंने देखा, दीवार समेत कमरे की सारी चीजें बड़े वेग से घूमती हुई न जाने कहाँ विलीन होती जा रही हैं और समग्र विश्व के साथ मेरा “मैं-पन”(Me-ness, मैं-मैं की प्रवृति) भी मानो एक सर्वग्रासी महाशून्य में विलीन हो जाने के लिए वेग से बढ़ता चला जा रहा है। मैं अपनेआप को विशाल ब्रह्मांड का एक छोटा सा कण समझने लगा हूँ। मैं भय से अत्यंत व्याकुल हो गया। मन में आया: मैं-पन का नाश ही तो मृत्यु है ! वही मृत्यु सामने, अति निकट आ पहुँची है! अपने को सम्हाल न सकने के कारण मैं चिल्ला उठा, “अजी, आपने मेरा यह क्या कर डाला? मेरे माता-पिता जो हैं !”
“वेअद्भुत ‘पागल’ मेरी यह बात सुन ठहाके मारकर हँस उठे। फिर अपने हाथ से मेरी छाती का स्पर्श करते हुए कहने लगे, “तो अब रहने देते हैं। एक ही बार में आवश्यक नहीं, समय आने पर ही होगा।” आश्चर्य की बात यह कि उनके इस प्रकार स्पर्श करते हुए,यह बात कहते ही मेरी वह अपूर्व अनुभूति एकदम चली गयी। मैं होश में आया और कमरे के भीतर-बाहर की सभी वस्तुएँ मुझे फिर पहले ही जैसी स्थित दिखाई देने लगी।”
एक पल के भीतर ही यह सारी घटना घट गयी। नरेन्द्र ने सोचा: क्या यह सम्मोहन-विद्या है? इन्द्रजाल है? उन्होंने दृढ़ संकल्प लिया कि अब फिर इस तरह इनके हाथों की कठपुतली नहीं बनूँगा। फिर यह भी सोचा कि जो व्यक्ति पल भर में मेरे जैसे दृढ इच्छाशक्ति-सम्पन्न मनुष्य के मन को मिटटी के ढेले की भांति तोड़-मरोड़ का गढ़ सकता है तो यह कोई सामान्य व्यक्ति तो हो नहीं सकता, अवश्य ही वे शक्ति-सम्पन्न है।
इस घटना से नरेन्द्र के आत्मविश्वास और चित्त की दृढ़ता पर एक प्रचण्ड आघात हुआ। वास्तव में नरेन्द्रनाथ जिस ब्रह्मज्ञान में प्रतिष्ठित होना चाहते थे, वही ब्रह्मज्ञान श्रीरामकृष्ण ने उस दिन उन्हें देना चाहा था लेकिन उनके ध्यान में आया कि अभी उसका समय नहीं आया है। कुछ वर्ष बाद काशीपुर के उद्यान भवन में नरेन्द्र को निर्विकल्प समाधि में प्रतिष्ठित कर उन्होंने वह ज्ञान,वह अपरोक्षानुभूति प्रदान की। उस घटना की चर्चा किसी अन्य समय पर करना उचित रहेगा।
इस घटना के समाप्त होते ही श्रीरामकृष्ण मानो एक पूर्णतया भिन्न व्यक्ति बन गये। वे अब नरेन्द्र को खिलाने-पिलाने और उनकी आवभगत करने को व्यग्र हो उठे। नरेंद्र से तरह-तरह के तरीके से प्रेम प्रकट करने लगे, इतने पर भी मानो उन्हें तृप्ति नहीं होती थी। इधर संध्या हो आयी। नरेन्द्र विदा लेने लगे। श्रीरामकृष्ण ने हठपूर्वक कहा, “बोलो फिर शीघ्र ही आओगे!” अतः उन्हें वैसा ही वचन देकर नरेन्द्र कलकत्ता लौट आये।
तो साथिओ, रामकृष्ण परमहंस गुरुदेव के पास ऐसी दिव्य शक्ति थी। लेख के आरम्भ में जिस “अणिमा सिद्धि” की बात हुई है आगे चलने से पूर्व उसे भी समझ लेना उचित रहेगा।
विकिपीडिया के अनुसार “अणिमा सिद्धि” अष्ट सिद्धियों (आठ चमत्कारी शक्तियां) में से पहली और सबसे महत्वपूर्ण सिद्धि है, जिसका अर्थ है अपने शरीर को एक अणु (Atom) के समान अत्यंत सूक्ष्म या छोटा करने की शक्ति, जिससे साधक अदृश्य होकर किसी भी छोटे से छोटे स्थान में प्रवेश कर सकता है, जैसा कि हनुमान जी ने नागमाता सुरसा राक्षसी से बचने के लिए किया था। यह शक्ति आध्यात्मिक साधना और चेतना के विकास से प्राप्त होती है, जिससे व्यक्ति अपने भौतिक स्वरूप पर नियंत्रण पा सकता है। यह सिद्धि योग, ध्यान और आध्यात्मिक जागरूकता के माध्यम से प्राप्त की जाती है, जिसमें साधक पदार्थ और ऊर्जा के सूक्ष्म पहलुओं को समझने लगता है।
तो साथिओ इस विवरण के बाद आइये देखें गुरु-शिष्य के बीच क्या वार्तालाप चल रहा है:
रामकृष्ण परमहंस ने कहा ” ईश्वर प्राप्ति के संबंध में तो संभवतः इन सिद्धियों से चाहे कोई सहायता प्राप्त नहीं हो सकेगी फिर भी ईश्वर प्राप्ति के पश्चात जब उनका कार्य करने में तू प्रवृत्त होगा तो ये सब बहुत उपयोगी होंगीं।”
नरेन्द्र बोले, “ मेरा मुख्य उद्देश्य तो ईश्वर प्राप्ति है, इन सिद्धियों की मुझे क्या आवश्यकता हो सकती है? पहले ईश्वर-दर्शन हो जाए, फिर देखा जाएगा कि इन सिद्धियों को ग्रहण किया जाए या नहीं। यदि इस समय अत्यंत चमत्कारिक विभूतियों और सिद्धियों को प्राप्त करके ईश्वर-प्राप्ति के ध्येय को भुला दिया जाए और स्वार्थी बनकर इनका अनुचित प्रयोग हो गया तो यह बड़ी हानि हो जाएगी ”
इस उत्तर को सुनकर परमहंस देव बहुत संतुष्ट हुए और उन्होंने समझ लिया कि नरेन्द्र सही मायनों में त्याग-भावना वाला मनुष्य है और वह सेवा-मार्ग में बहुत अधिक प्रगति कर सकेगा।
बहुप्रचलित घटना-काली माता से विवेक का वरदान
1884 में नरेन्द्र के पिता श्री विश्वनाथ दत्त का देहांत हो गया और पारिवारिक झगड़ों के कारण घर की आर्थिक स्थिति अत्यंत शोचनीय हो गई। किसी दिन तो घर में चूल्हा भी नहीं जल पाता था और सबको भूखा ही रह जाना पड़ता था। नरेन्द्र उस समय तो MA में पढ़ रहे थे, लेकिन अध्यात्म की तरफ मनोवृत्ति होने के कारण रोजगार की तरफ कुछ ध्यान न देते थे। अचानक आयी इस विपत्ति के आ जाने से उनका ध्यान कोई नौकरी करने की तरफ गया। उन्होंने सरकारी और गैर सरकारी कार्यालयों में किसी छोटी-मोटी नौकरी के लिए चक्कर लगाने शुरू किये लेकिन कई महीने बीत जाने पर भी जब सफलता न मिली और परिवार वालों का कष्ट बहुत बढ़ गया। ऐसी स्थिति में उनको परमहंस देव का ख्याल आया कि उनके आशीर्वाद से इस विपत्ति से छुटकारा पाया जाए। जब नरेन्द्र ने अपनी समस्या गुरुदेव के सम्मुख रखी और उनसे काली माता के सम्मुख इसकी प्रार्थना करने का आग्रह किया, तो उन्होंने कहा,”भैया, मुझसे तो ऐसी बात कही नहीं जाएगी, तू ही क्यों नहीं कहता ? तू माँ को नहीं मानता, इसीलिए तो यह सारा बखेड़ा खड़ा हुआ है।”
परमहंस देव के समझाने पर नरेन्द्र मंदिर के भीतर पहुँचे और उन्होंने देखा कि वास्तव में वहाँ अनंत प्रेम की वर्षा करती हुई माता का चिन्मय स्वरूप उपस्थित है। भक्ति और प्रेम से उनका हृदय भर गया और बार-बार प्रणाम करके कहने लगे:
“माँ, विवेक दो, वैराग्य दो, भक्ति दो, और ऐसा करो जिससे नित्य तुम्हारा दर्शन होता रहे।”
जब वे बाहर आए तो परमहंस जी ने पूछा,”क्यों, माँ के पास जाकर आर्थिक तंगी को दूर करने की प्रार्थना की?” उनके इस प्रश्न से चौंक कर नरेन्द्र ने कहा,”नहीं, उसे तो मैं भूल ही गया अब क्या होगा ?” परमहंस देव ने कहा,” जा,जा, फिर चला जा। वहाँ जाकर माँ को सब बात बता दे, वे अवश्य सब व्यवस्था कर देंगी।” नरेन्द्र फिर मंदिर में गए पर भीतर पहुँचते ही फिर सब बात भूल गए और बार-बार ज्ञान और भक्ति के लिए प्रार्थना करके बाहर निकल आए। तीसरी बार भी ऐसा ही हुआ और तब वे परमहंस देव को पकड़ कर बैठ गए कि “यह सब आपकी ही लीला है, अब मेरे परिवार के निर्वाह की व्यवस्था आप ही कीजिए।
अंत में परमहंस जी को कहना पड़ा: “जा, उनको रोटी और मोटे कपड़े की कमी नहीं रहेगी” और हुआ भी ऐसा ही।
इस घटना से मालूम होता है कि जिन व्यक्तियों का दृष्टिकोण आध्यात्मिक होता है, वह कठिनाई में पड़ने पर भी ईश्वर से अपने स्वार्थ-संबंधी कोई याचना नहीं करते। उनकी दृष्टि में इन क्षणभंगुर वस्तुओं का मूल्य ज्ञान और भक्ति जैसे संसार-सागर से पार लगाने वाले तत्त्वों की अपेक्षा अत्यंत न्यून होता है । यही कारण है कि घोर आर्थिक कष्ट में फँसे होने पर भी वे काली माँ के सामने वैसी तुच्छ बात को न कह सके और ज्ञान और भक्ति का वरदान माँगकर ही चले आए।
हमको इसकी तुलना आजकल के उन साधकों से करनी चाहिए जो कोई साधारण-सा अनुष्ठान आरंभ करते ही बड़ी-बड़ी कामनाओं की पूर्ति का स्वप्न देखा करते हैं और जब अपनी अयोग्यता के कारण कुछ प्रगति नहीं होती, तो देवता को झूठा बता कर,किसी अन्य देवता से अपना काम करवाने के लिए चल पड़ते हैं। भगवान् न हुए, आपके नौकर ठहरे !!!
इससे हम समझ सकते हैं कि वर्तमान समय में अध्यात्म मार्ग से लोगों की श्रद्धा हटते जाने का कारण क्या है ?
स्वामी जी एवं गुरुदेव परमहंस के दिव्य मिलन के नाट्य रूपांतर का यहीं पर मध्यांतर होता है,प्रतीक्षा कीजिये कल के एपिसोड का।
जय गुरुदेव,धन्यवाद्
