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स्वामी विवेकानंद को अपने प्रश्न का उत्तर रामकृष्ण परमहंस से ही मिला- लेख श्रृंखला का प्रथम लेख

परम पूज्य गुरुदेव की मात्र 43 पृष्ठों की दिव्य पुस्तक “धर्म और संस्कृति के महान उन्नायक -स्वामी विवेकानंद” पर आधारित लेख श्रृंखला का प्रथम लेख आज ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच पर प्रस्तुत करते हुए अत्यंत हर्ष का आभास हो रहा है। 

स्वामी विवेकानंद जी के विशाल व्यक्तित्व पर जितना विशाल साहित्य प्रकाशित हो चुका है उसमें से कुछ अमूल्य रत्न खोज कर अपने साथिओं के लिए प्रस्तुत करना अत्यंत कठिन (किन्तु असंभव नहीं)  कार्य है। केवल हमारे चैनल पर ही इस विषय पर अनेकों लेख प्रकाशित हो चुके हैं। 

आइये,गुरुदेव के आशीर्वाद से आज के ज्ञानप्रसाद का शुभारम्भ करें। 

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कलकत्ता (आजकल का कोलकाता) नगरी में चूहों से होने वाली बीमारी (प्लेग) का प्रकोप था। प्रतिदिन सैकड़ों व्यक्तियों पर इस बीमारी का आक्रमण होता था। बिगड़ती हालत  देखकर सरकार ने स्थिति का नियंत्रण करने के लिए कड़े नियम बनाए लेकिन  जब नगर निवासी अनुशासन का  पालन करने में ढील करने लगे तो शहर के भीतर और चारों तरफ फौज तैनात कर दी गई। इससे नगर एवं आसपास के इलाकों  में बड़ा आतंक सा  फैल गया और उपद्रव हो जाने की आशंका होने लगी।

स्वामी विवेकानंद उस समय विदेश में हिन्दू धर्म की ध्वजा फहराकर, भारतवर्ष का दौरा करके कोलकाता आए ही थे। वे अपने सहकारियों के साथ बेलूर में रामकृष्ण मठ की स्थापना योजना में संलग्न थे। लोगों पर इस घोर विपत्ति को आया देखकर स्वामी जी सब काम छोड़कर “कर्मक्षेत्र” में कूद पड़े और बीमारों की चिकित्सा तथा सफाई के लिए एक बड़ी योजना बना डाली। 

सेवाव्रत को इतना उच्च स्थान देने वाली आत्मा को सारा विश्व स्वामी विवेकानंद के नाम से जानता है।

उस समय भारत में तीव्र वेग से अंग्रेजी राज्य और ईसाई संस्कृति का प्रसार हो रहा था। इसके परिणाम-स्वरूप देश में उच्चवर्ग का विश्वास अपने धर्म और सभ्यता पर से हिल गया था और ऐसा प्रतीत होने लगा था कि  कुछ ही समय में इस देश में ईसाइयत की पताका उड़ने लगेगी लेकिन  उसी समय देश में ऐसे कितने ही महामानवों का आविर्भाव  हुआ जिन्होंने इस प्रबल  धारा को अपने प्रभावों से दूसरी  तरफ मोड़ दिया। उन्होंने हिन्दू-धर्म के सच्चे स्वरूप को संसार के सामने रखा और लोगों को विश्वास दिला दिया कि आत्मोन्नति  और कल्याण  की दृष्टि से हिन्दू-धर्म से बढ़कर धार्मिक सिद्धांत संसार में और कहीं नहीं है। 

बाल्यावस्था में स्वामी विवेकानंद को, जिनका नाम उस समय नरेन्द्र था, बड़े ही दिव्य वातावरण में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। इस वातावरण के प्रभाव से ही वे बहुत छोटी आयु में ही ब्रह्मसमाज में जाने लगे थे। यह संस्था उच्चवर्ग के नवशिक्षित लोगों द्वारा स्थापित  की गई थी और हिन्दू धर्म की कितनी ही मान्यताओं (देवी-देवता, मूर्ति-पूजा, अवतारवाद, गुरुवाद  आदि) के विरुद्ध उसने आंदोलन उठाया था। यह  लोग जातपात का निराकरण, सब जातियों की समानता, स्त्री-शिक्षा, बड़ी उम्र में विवाह  आदि अनेक सुधारों के लिए भी जोरों से प्रयत्न करने लगे।

नरेन्द्र के विचार भी इनसे मिलते- जुलते थे, इसलिए प्रायः उनकी सभाओं  में जाने लगे। ब्रह्मसमाज में ध्यान का अभ्यास करने पर विशेष जोर दिया जाता था लेकिन  जब ध्यान करने और नियमित रूप से समाज की प्रार्थना में सम्मिलित होने पर “ईश्वर के साक्षात्कार” के संबंध में कोई प्रगति न हुई तो उनका विश्वास ब्रह्मसमाज से हटने लगा।  एक दिन उन्होंने अकस्मात ही समाज के अध्यक्ष महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर ( गुरुदेव रविन्दरनाथ ठाकुर  के पिताजी) के पास जाकर प्रश्न किया, “महाशय आपने ब्रह्म को देखा है ?” एक छोटे लड़के के मुँह से ऐसा प्रश्न सुनकर महर्षि चौंक  पढ़े और बोले,”लड़के तेरी आँखें तो योगी की तरह हैं।” लेकिन नरेन्द्र को इस उत्तर से संतोष नहीं हुआ और वे अपने प्रश्न का उत्तर जानने के लिए अन्य धार्मिक समझे जाने वाले लोगों से यही चर्चा करने लगे। नरेन्द्र को इस प्रकार ईश्वर की खोज में चारों और भटकते देखकर एक दिन उनके काका ने कहा कि, “तुझे यदि वास्तव में ईश्वर को प्राप्त करना हो तो ब्रह्मसमाज आदि को छोड़ कर ठाकुर रामकृष्ण परमहंस के पास जा। 

इस विवरण को लिखते समय हमें 26 अक्टूबर 2022 वाले   पूर्वप्रकाशित लेख का स्मरण हो आया जिसे हमने  चेतना की शिखर यात्रा 1 को आधार बना कर लिखा था। यहाँ पर उस प्रसंग को निम्नलिखित शब्दों में शामिल करना अनुचित न होगा:  

कुछ ही दिन बाद, पड़ोस में ही एक सज्जन के यहाँ श्री रामकृष्ण परमहंस, पधारे। नरेन्द्र को भी संगीत कार्यक्रम में भाग लेने के लिए वहाँ बुलाया गया। परमहंस जी इस अपरिचित किशोर को देखकर एकाएक उसकी तरफ आकर्षित हो गए और उसका परिचय प्राप्त करके एक दिन उन्होंने उसे दक्षिणेश्वर आने को कहा।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस देव जी का स्वामी विवेकानंद जी से प्रथम मिलन 1881 में हुआ था। इस पहले मिलन में स्वामी रामकृष्ण जी  ने उन्हें सीने से लगा लिया था और ऐसे  फूटफूट कर रोए थे, जैसे वर्षों से गुम हुई संतान को पाकर माता-पिता विह्वल हो उठते हैं। स्वामी जी तब रोज़गार  की तलाश में भटक रहे थे। माता पिता ने उनका नाम वीरेश्वर रखा था। स्वामी जी के अंतकरण में मोक्ष पाने का आवेग अपने चरम पर था। यह आवेग पेट की भूख और प्यास से भी अधिक प्रचंड हो उठा  था, इतना प्रचंड कि इसकी  तृप्ति के लिए वे साधु संतों के यहाँ भटकते रहते थे। रामकृष्ण परमहंस जी के पास पहुँचते ही और गुरु के स्नेह को  देखते ही उन्हें ऐसा  लगा कि खोज पूरी हुई।  

उन्होंने पूछा, “क्या आपने ईश्वर को देखा है ?”  जिस वेग से प्रश्न आया था, उससे भी प्रचंड वेग से उत्तर मिला, “तुम देखना चाहते हो क्या?” 

नरेन्द्र ने अब तक कितने ही संन्यासियों और योगियों से यही प्रश्न पूछा था। इतने विश्वास और वेग के साथ किसी ने भी उत्तर  नहीं दिया। 

कोई कहता था,“हाँ देखा है लेकिन उस “हाँ” में विश्वास का बल नहीं था।” कोई कहता,“अगर कहें कि देखा है तो यह अपनी स्थिति का ढिंढोरा पीटना हुआ। यदि मना करते हैं तो उत्तर गलत हो जाएगा। इसलिए कुछ न कहना ही ठीक है। तुम अपनी जिज्ञासा बताओ हम समाधान देने का प्रयास करेंगे इत्यादि इत्यादि।” 

नोबल पुरस्कार विजेता कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर से भी नरेंद्र ने  यही प्रश्न पूछा था। महर्षि देवेन्द्रनाथ नदी की धारा में नाव  पर विश्राम कर रहे थे। नरेन्द्र नाथ तैर कर नाव  पर आ गए और धम्म से भीतर कूदे। कूदते ही उन्होंने महर्षि  देवेंद्र से ईश्वर के बारे में पूछा । नरेन्द्रनाथ के प्रश्न से देवेन्द्र हड़बड़ा गये, उन्हें लगा जैसे कोई कालर पकड़ कर पूछ रहा हो। नरेन्द्र ने अपनी उत्कंठा को पूरी तरह व्यक्त करते हुए ही पूछा था। उसमें डराने जैसा कोई रंग नहीं था, लेकिन उनकी उत्कंठा ने ही योगी को अचकचा दिया था। वह कहने लगे, “पहले बैठो तो सही, शांत होकर बैठो। मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देता हूँ।” इस व्यवहार ने नरेन्द्र नाथ को आभास करा दिया कि मेरे प्रश्न का उत्तर इनके पास नहीं है। यह कह  कर वे  वापस चले आए कि अब आपको कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है। मुझे उत्तर मिल गया है।

देवेन्द्रनाथ ठाकुर शिक्षा प्रसार में बहुत रूचि लेते थे, उन्होंने भारत के भिन्न-भिन्न  स्थानों पर विशेषकर बंगाल में कई शिक्षा संस्थान खोले। 1863 में बोलपुर में एकांतवास के लिए 20 बीघा भूमि खरीदी और वहां आत्मिक शांति अनुभव  होने के कारण इसका नाम “शांति निकेतन” रख दिया।  परम पूज्य गुरुदेव ने भी युगतीर्थ शांतिकुंज की स्थापना इसी शांति का अनुभव करने हेतु की थी। कनाडा में मनोरम दिव्य वातावरण में विकसित हो रहे शांतिवन का भी  यही प्रयोजन है।     

स्वामी विवेकानंद जी सिद्ध योगियों के व्यवहार और रुख से ही अपने प्रश्न का भविष्य समझ लेते थे, रामकृष्ण परमहंस के सान्निध्य में पहुँचकर उनकी भटकन भरी यात्रा को एक तरह का विराम ही लग गया था। 

ठाकुर ने  नरेन्द्र से कहा, “जो माँगना है अपनी माँ से स्वयं ही माँग लेना, मुझ से कुछ मत कहना।” जिस समय रामकृष्ण परमहंस जी ने यह बात कही थी, तब नरेन्द्र के मन में अपने परिवार के निर्वाह की चिंता घुमड़ रही थी। गुरु के कहने पर वे मंदिर में माँ की प्रतिमा के पास गये तो सही लेकिन कुछ माँगते नहीं बना। माँ के मनोहारी रूप ने उन्हें इतना भाव विभोर कर दिया कि वे माँगने की बात ही भूल गये। बिना कुछ कहे वापस चले आए। रामकृष्ण जी ने उन्हें दो बार और मंदिर में भेजा। दोनों बार वे फिर बिना कुछ  मांगे  वापस आ गये। इसके बाद गुरु ने कहा “तू माँ का काम कर,माँ तेरी सारी चिंताओं का ख्याल अपनेआप रखेगी। परिवार के लिए छोटी-मोटी वस्तुओं की कभी कोई कमी नहीं रहेगी।” 

हमारे गुरुदेव का  भी तो यही सन्देश है “तू मेरा काम कर, मैं तेरा काम करूँगा” स्वामी विवेकानन्द, रामकृष्ण परमहंस से 1881 में मिले थे, उस समय उनकी आयु केवल 18 वर्ष की थी। इस दिव्य मिलन के केवल पाँच वर्ष बाद ही 1886 में ठाकुर ने शरीर छोड़ दिया। 

जब नरेन्द्र दक्षिणेश्वर पहुँचे तो उन्हें प्रथम बार अच्छी तरह देखने पर परमहंस जी के मन में जो भाव उत्पन हुए थे  उसकी  चर्चा करते हुए उन्होंने एक बार कहा था, “मैंने  देखा कि उसका अपने शरीर की तरफ कुछ भी ध्यान नहीं है। सिर  के बाल और पोशाक में किसी भी प्रकार की दिखावट नहीं थी। अन्य साधारण लोगों की तरह उसकी दृष्टि बाहरी वस्तुओं की तरफ नहीं थी। उसकी आँखों को देखकर मुझे जान पड़ा कि उसके मन के एक बड़े भाग को मानो किसी ने भीतर की तरफ खींच रखा है।”

रामकृष्ण परमहंस से भी नरेन्द्र ने वही प्रश्न किया कि ” क्या आपने ईश्वर को देखा है ?” उन्होंने कहा -“हाँ देखा है। जिस प्रकार मैं तुम सबको देखता हूँ और तुम्हारे साथ बात करता हूँ उसी प्रकार ईश्वर को भी देखा जा सकता है और उसके साथ बातें की जा सकती हैं, लेकिन  इसके लिए प्रयत्न कौन करता है? लोग स्त्री, पुत्र, संपत्ति के लिए हाय-हाय करते फिरते हैं, उनके वियोग में रोते हैं। ईश्वर नहीं मिल पाया, इसके लिए कौन रोता है ? ईश्वर की प्राप्ति नहीं हुई इसके लिए यदि मनुष्य उसी प्रकार व्याकुल हो जाए जैसे स्त्री- पुत्र आदि के लिए हो जाता है, तो वह अवश्य ईश्वर के दर्शन कर सकेगा।”

परमहंस जी का उत्तर सुनकर नरेन्द्र के मन में यह भाव आया कि ये अन्य धर्मोपदेशकों की तरह पुस्तकें पढ़कर ऐसी बातें नहीं कर रहे हैं बल्कि  इन्होंने सर्वस्व त्यागकर, संपूर्ण मन से ईश्वर की आराधना करके  अपने अंत: प्रदेश में उसे जैसा देखा है, वैसा ही कह रहे हैं। हो सकता है कि विदेशी दार्शनिकों की व्याख्या के अनुसार ये अर्धपागलों की श्रेणी में आते हों, तो भी ये महापवित्र और महात्यागी हैं और इसीलिए मानव-हृदय की श्रद्धा, भक्ति, पूजा और सम्मान के सच्चे अधिकारी हैं।

साथिओ यहीं पर इस लेख का मध्यांतर होता है। 


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