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मात्र 1200 शब्दों में सिमटी, विशाल व्यक्तित्व “स्वामी विवेकानंद” की बायोग्राफी 

हम जानते हैं कि हमारे साथी हमें प्रश्न कर सकते हैं कि जब हम स्वामी विवेकानंद जी के बारे में इतना विस्तार से लिख चुके हैं,जान चुके हैं तो इस छोटे से लेख का क्या औचित्य है, अवश्य औचित्य है !!! 

हम अपने विद्यार्थी जीवन के अनुभव से कह सकते हैं कि जब किसी विशाल विषय को कुछ एक शब्दों में वर्णन करने की बात आती है तो बहुत ही कठिन होता है। समझ ही नहीं आता कि क्या लिखा जाये और क्या छोड़ा जाये। इसके साथ ही इस संक्षिप्त बायोग्राफी लिखने का दूसरा उद्देश्य है कि ऑनलाइन/ऑफलाइन त्रुटिओं का संशोधन करना। हमारे समेत लेखन की रेस में,अनेकों लेखक महत्वपूर्ण तिथिओं,स्थानों आदि को चेक करना भूल जाते हैं,Take it easy,Who cares वाली प्रवृति Overcome कर जाती है। हर लेख की भांति आज के लेख में भी त्रुटिओं के संशोधन का प्रयास किया है लेकिन प्रकाशन के बाद भी,कोई भी,किसी भी समय त्रुटि नोटिस होती है तो उसका संशोधन करने को वचनबद्ध हैं। 

हमने,इसी तरह की एक Major  त्रुटि को तब नोटिस किया जब “स्वामी विवेकानंद” शीर्षक से परम पूज्य गुरुदेव द्वारा रचित पुस्तक के ऊपर रिसर्च कर रहे थे। तीन दिन के लगातार प्रयास के बाद ही त्रुटि का निवारण करने में सफल हो पाए। इसी पुस्तक पर आधारित लेख श्रृंख्ला का शुभारम्भ कल के लेख से होगा। आदरणीय बहिन कोकिला जी का धन्यवाद् करते हैं जिनके सुझाव से स्वामी जी से सम्बंधित अथाह सागर में से हमें कुछ अमूल्य मोती चुगने का सौभाग्य प्राप्त होगा। 

आदरणीय साथिओं से नियमितता की भीख माँगते  हैं,कहीं ऐसा न हो कि शताब्दी वर्ष से सम्बंधित,हमारे मन में उठ रहे प्रयास धरे के धरे न रह जाएँ। हम समय-समय पर अपने प्रयासों को सार्वजानिक करते रहेंगें, अभी तक तो गुरुकक्षा की निकटतम विद्यार्थिन आदरणीय नीरा जी से ही विचार विमर्श किया जा रहा है लेकिन स्मरण रहे कि शताब्दी वर्ष की महत्ता के साथ-साथ परम पूज्य गुरुदेव के आध्यात्मिक जन्म दिवस, वसंत पंचमी 2026 को भी अविस्मरणीय बनाना है। 

इन्हीं विचारों के साथ, आज के लेख का शुभारम्भ शांतिपाठ (अर्थसहित)  से करते हैं : ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

अर्थात शान्ति: कीजिये प्रभु ! त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में,अन्तरिक्ष में, अग्नि – पवन में, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन में,सकल विश्व में अवचेतन में,शान्ति राष्ट्र-निर्माण और सृजन में,  नगर , ग्राम और भवन में प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण – कण में, शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए 

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स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863  को कोलकाता में पिता विश्वनाथ दत्त और माता भुवनेश्वरी देवी के घर हुआ था। पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे। स्वामी जी का  बचपन का, घर का नाम वीरेश्वर रखा गया,किन्तु उनका औपचारिक नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था। 

ऑनलाइन/ऑफलाइन स्रोतों से प्राप्त जानकारी के अनुसार स्वामी जी का बचपन का नाम “विवेकानंद” नहीं था। 

इस प्रश्न का उत्तर ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के साथिओं के पास अवश्य ही होगा क्योंकि अभी दो दिन पहले ही प्रकाशित हुए लेखों में इस तथ्य की चर्चा की गयी थी। उन लेखों में इस तथ्य के सोर्स की भी बात की गयी थी।   

अधिकतर लोगों का मानना है कि स्वामी जी के गुरु, रामकृष्‍ण परमहंस ने उन्‍हें “विवेकानंद” नाम दिया था लेकिन ऐसा नहीं है। यह नाम उनके गुरु ने नहीं, बल्‍क‍ि किसी और ने दिया था। 

दरअसल,स्वामी जी को अमेरिका जाना था लेकिन उनके पास इस यात्रा के लिए धन नहीं था।  उनकी इस पूरी यात्रा का खर्च राजपूताना के खेतड़ी नरेश  ने उठाया था और उन्होंने ही स्वामी जी को “स्‍वामी विवेकानंद” का नाम भी दिया।  इसका उल्‍लेख प्रसिद्ध फ्रांसिसी लेखक रोमां रोलां ने अपनी पुस्तक  The Life of Vivekananda and the Universal Gospel में भी किया है। 

सितम्बर 11, 1893 को शिकागो USA  में आयोजित विश्‍वधर्म संसद में जाने के लिए राजा के कहने पर ही स्वामी जी ने यह नाम स्वीकार किया था। यहाँ यह बताना प्रसांगिक लगता है कि  जब विवेकानंद जी ने अमेरिका में आयोजित हुए धर्म संसद में अपने हिंदी भाषण की शुरुआत की थी, तो हर दिल को जीत लिया था।  उनके भाषण के बाद 2 मिनट तक आर्ट इंस्टीट्यूट ऑफ शिकागो तालियों से गूंजता रहा।  वह भाषण आज भी याद किया जाता है, जिससे स्वामी विवेकानंद को एक अलग पहचान मिली थी . 

ईश्वर चन्द्र विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन इंस्टिट्यूट  में प्रवेश लेने के  समय स्वामी विवेकानंद की उम्र 8 वर्ष थी। 1879 में कलकत्ता लौटने  के बाद उन्होंने  प्रेसीडेंसी कॉलेज में एडमिशन लिया जिसके बाद मेट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की जिसमें उन्हें  काफी अच्छे अंक प्राप्त हुए थे और 1884 में कला स्नातक की डिग्री प्राप्त की थी। इन्हें बचपन से ही धार्मिक कार्यक्रम तथा सनातन में रुचि थी इसीलिए वह हिन्दू धर्म की पुस्तकें, वेद, ग्रन्थ, पुराण, काव्य आदि पढ़ा करते थे। स्वामी जी  मानसिक तथा शरीरिक दोनों कार्यो पर समानता से ध्यान देते थे तथा प्रतिदिन व्यायाम किया करते थे,बचपन से बुद्धिमान थे तथा महाभारत, रामायण जैसे काव्य और ग्रंथों  को पढ़ चुके थे जिससे काफी प्रभावित थे। स्मरण शक्ति इतनी तीव्र  थी कि जिसे एक बार पढ़ लेते थे उसे कभी भूलते नहीं  थे।

स्वामी विवेकानंद ने 25 साल की आयु में संत बनने का निर्णय ले लिया था। विद्यार्थी जीवन में  उनकी मुलाकात नोबल प्राइज विजेता गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर जी के पिता महाऋषि देवेंद्र नाथ ठाकुर  से हुई जो ब्रह्मसमाज के बहुत बड़े कार्यकर्त्ता थे।  उन्होंने विवेकानंद को रामकृष्ण परमहंस से मिलने के लिए कहा ताकि उन्हें  अपने मन में उठ रहे प्रश्नों का उत्तर मिल  सके। रामकृष्ण परमहंस का सारा जीवन ईश्वर प्राप्ति के लिए साधना में ही गुजरा, वे मानवता के लिए काम करने वाले  संत थे जो एक अच्छे विचारक के रूप में भी काम करते थे। रामकृष्ण परमहंस जी का जन्म 18  फ़रवरी 1836  को बंगाल प्रांत में हुआ था। स्वामी विवेकानंद बहुत ही जिज्ञासु थे जिस कारण वे रामकृष्ण परमहंस के प्रिय शिष्य बन गये जिनसे उन्होंने आत्मज्ञान,धर्मज्ञान आदि की शिक्षा प्राप्त की। 16 अगस्त 1886 को मात्र 50 वर्ष से भी कम आयु में  कैंसर के कारण रामकृष्ण परमहंस जी की मृत्यु हो गयी ।

रामकृष्ण मिशन की स्थापना विवेकानंद जी ने 1 मई 1897 को की थी। इस मिशन का  लक्ष्य अस्पताल, स्कूल और कॉलेजों का निर्माण करना था। इस मिशन का मुख्यालय बेलूर मठ हावड़ा में स्थित है। 

विवेकानंद  महलों में जाना, गरीबों से मिलना, धार्मिक  स्थलों (वाराणसी, अयोध्या, आगरा, वृन्दावन आदि ) जाना बहुत पसंद करते थे।  उनका मानना था कि  ऐसा करने से समाज और धर्म का ज्ञान प्राप्त होता है एवं  पता चलता  है कि समाज में  किस प्रकार के परिवर्तनों  की आवश्यकता है

स्वामी जी ने 1888 में ऋषिकेश की पहली यात्रा की थी। यह यात्रा  उन्होंने अपने शिष्य शरदचंद के साथ की थी। इसके बाद 1890 में  अयोध्या से नैनीताल की पैदल यात्रा की। उनकी तीसरी यात्रा 1897 में उत्तराखंड की थी जब उन्होंने  गुफा में ध्यान लगाया था तथा एक यात्रा हिमालय की भी की थी।

स्वामी विवेकानंद की बायोग्राफी अधूरी सी ही रहेगी यदि हम शिकागो, भाषण की बात न करें। इस भाषण के बाद स्वामी जी पूरे  विश्व में अत्यधिक प्रसिद्ध हो गये थे क्योंकि  उस भाषण में उन्होंने अध्यात्म, सनातन धर्म, वैदिक दर्शन की बात की थी। 11 सितम्बर 1893 को विश्व धर्म सम्मेलन के दौरान दिए गए  भाषण का आरम्भ जब उन्होंने Sisters and brothers of America” से किया, तो दो मिंट तक तालियां बजती रहीं। स्वामी जी ने भारत देश की संस्कृति का वर्णन किया और सनातन हिन्दू धर्म की विशेषताएँ बताते हुए भावना व्यक्त करते हुए धन्यवाद कह कर अपने  भाषण को समाप्त किया जिसके बाद भी पूरे हॉल में तालियाँ गूंजती रहीं। उनका यह भाषण आज भी बहुत प्रसिद्ध है जिसने देश विदेश में भारत की संस्कृति को सम्मान दिलाया और भारत का नाम रोशन किया। स्वामी विवेकानंद को एक अलग पहचान मिली थी। इस भाषण को देश विदेश के आध्यात्मिक एवं राजनैतिक नेताओं ने भी जगह-जगह पर रेफर  करते हुए शिक्षा प्राप्त की है,उनका नाम सम्मानपूर्वक लेते हैं। यहाँ पर  अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ओबामा द्वारा की गयी सराहना को शामिल करना कोई अनुचित नहीं होगा। वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भी अहमदाबाद स्टेडियम में स्वामी जी की प्रशंसा की थी। 

4 जुलाई 1902 को, रात 9:10 के लगभग जब स्वामी जी ने  महासमाधि ली तो उनकी आयु मात्र 39 वर्ष ही थी। उन्होंने इस दिन की शुरुआत अपनी दिनचर्या ध्यान लगाना, बच्चों को शिक्षा देने  से  ही शुरू की थी। जब वह विद्यार्थियों को यजुर्वेद, संस्कृत व्याकरण की शिक्षा देकर अपने कमरे में आराम करने गये तभी आराम करते समय उन्होंने महासमाधि ले ली। 

इस संक्षिप्त बायोग्राफी का समापन स्वामी विवेकानंद के कुछ निम्नलिखित प्रेरणादायक सुविचारों से करने में हम अपना सौभाग्य समझते हैं :  

1.जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते हैं तब तक आप भगवान पर विश्वास नहीं कर सकते।

2.दिन में आप एक बार स्वयं से बात करें,अन्यथा आप एक बेहतरीन इंसान से मिलने का मौका चूक जाएंगे।”

3.“उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति ना हो जाए।”

4.हम जो भी हैं, जैसा भी हैं, हमारे विचारों ने ही ऐसा बनाया है, इसीलिए अपने विचारो पर कंट्रोल करें । शब्द तो बाद में आते हैं, विचार पहले और दूर तक जाते हैं।

5.जीवन का रास्ता स्वयं बना बनाया नहीं मिलता, इसे बनाना पड़ता है जिसने जैसा मार्ग बनाया उसे वैसी ही मंजिल मिलती है।

6.हमें ऐसी शिक्षा चाहिए,जिससे चरित्र का निर्माण हो,मन की शक्ति बड़े,

7.बुद्धि का विकास हो और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सके।यह कभी मत कहो कि  ‘मैं नहीं कर सकता’, क्योंकि आप अनंत हैं। आप कुछ भी कर सकते हैं।

8.हम वो हैं जो हमें हमारी सोच ने बनाया है, इसलिए इस बात का ध्यान रखिए कि आप क्या सोचते हैं।

9.“सोच भले ही नयी रखो मगर संस्कार हमेशा पुराने होने चहिये।”

समापन, जय गुरुदेव 


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