11 दिसंबर 2025 का ज्ञानप्रसाद
हमारी और आदरणीय नीरा जी की चर्चाओं में स्वामी विवेकानंद जी को बड़े सम्मान एवं प्यार से डिसकस किया जाता है। हम तो अनेकों बार कह चुके हैं कि यदि परम पूज्य गुरुदेव ने हमें अपने अनुदान प्रदान करते हुए,ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की ज़िम्मेदारी न सौंपी होती तो हम स्वामी जी के दिव्य साहित्य में रिसर्च कर रहे होते, लेकिन हमारे कहने से कहाँ कुछ हो पाया है? जो कुछ भी हो रहा है किसी दिव्य अदृश्य सत्ता के निर्देशन से ही संभव हो पा रहा है।
हमारे सभी साथी जानते हैं कि ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का मुख्य फोकस परम पूज्य गुरुदेव, गायत्री माँ एवं उनसे सम्बंधित क्षेत्र ही हैं लेकिन समय-समय पर अन्य दिव्य आत्माओं का दर्शन करना ज़रा सा भी अनुचित नहीं है। हमारे साथी, हमारे यूट्यूब चैनल की टैगलाइन “हम अंतिम श्वास तक परम पूज्य गुरुदेव को समर्पित होने का संकल्प लिए हैं” से भलीभांति परिचित हैं।
आज और कल के ज्ञानप्रसाद में स्वामी विवेकानंद जी के भारत आगमन पर “अभूतपूर्व स्वागत” की चर्चा की जा रही है। वर्ष 1863 में अवतरित हुई इस दिव्य आत्मा को मात्र 34 वर्ष की छोटी सी आयु में इतना सम्मान मिलना समस्त विश्व के लिए एक दिव्य सन्देश और मार्गदर्शन देता है। रामनाड के राजा द्वारा उनकी शासकीय बग्घी को घोड़े हटाकर स्वयं खींचना इतिहास की सुर्खियां बना हुआ है।
हमारा सौभाग्य है कि विवेकानंद केंद्र द्वारा प्रकाशित हुए लेख के आधार पर हम यह दो लेख लिख रहे हैं। जिस लेख को आज आरम्भ किया गया है इसी को कल आगे बढ़ाया जायेगा और शनिवार को साथिओं का स्पेशल सेगमेंट प्रस्तुत करने की योजना है।
आज के लेख से सम्बंधित आदरणीय चिन्मय जी की एक वीडियो भी संलग्न की है।
तो आइए इस छोटे से लेख का विश्वशांति (अर्थ साहित) की कामना के साथ शुभारम्भ करें :
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
अर्थात शान्ति: कीजिये प्रभु ! त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में,अन्तरिक्ष में, अग्नि – पवन में, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन में,सकल विश्व में अवचेतन में,शान्ति राष्ट्र-निर्माण और सृजन में, नगर , ग्राम और भवन में प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण – कण में, शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए
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अभूतपूर्व स्वागत:
जैसे-जैसे स्वामी विवेकानंद का जहाज भारत के पास पहुँचता जा रहा था, दक्षिण भारत के अनेक शहरों में लोग अभूतपूर्व सम्मान के साथ स्वामी विवेकानंद का स्वागत करने और उनके स्वागत व आभार के उद्बोधन प्रस्तुत करने की तैयारियां कर रहे थे। उनके एक गुरु-बंधु, स्वामी निरंजनानंद, उनका स्वागत करने के लिए सीलोन आए थे; अन्य लोग मार्ग में थे। वर्ष 1972 तक वर्तमान देश श्रीलंका सीलोन के नाम से ही जाना जाता था।
स्वामी जी के बहुप्रतीक्षित आगमन को लेकर पूरे भारतवर्ष में अत्यंत आनंद एवं उत्साह का वातावरण था। स्वागत समितियों में विभिन्न धार्मिक समुदायों और सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधि सम्मिलित थे। स्वामी विवेकानंद इस बारे में अनभिज्ञ थे कि उनकी वापसी को लेकर भारत के लोगों में कितना अधिक उत्साह है। यद्यपि वे जानते थे कि लोग उनकी विजय से आनंदित थे और उनकी वापसी पर उन्हें प्रसन्नता होगी, लेकिन यहाँ पहुँचने पर उनका जिस उत्साह से स्वागत किया गया, वह अभूतपूर्व था। जिस स्तर का स्वागत हुआ उसकी कल्पना किसी ने भी नहीं की थी, जिनका स्वागत हुआ, उन्होंने भी नहीं और जिन्होंने स्वागत किया, उन्होंने भी नहीं।
15 जनवरी 1897 वाले दिन सीलोन की राजधानी कोलंबो में सूर्योदय, भारतमाता के पुत्र स्वामी विवेकानंद की विजयी वापसी के साथ हुआ। सुबह के इस सूर्य के साथ ही स्वामी जी भी सभी भारतीयों के हृदयों में सहस्त्रसूर्य के समान चमक रहे थे। समाचार-पत्रों में इस प्रकार वर्णन किया गया था:
“स्वामीजी को ला रहे स्टीम लॉन्च को, जेटी की ओर बढ़ते देखकर कोलंबो की भारी भीड़ के मन में उमड़ी भावनाओं तथा उनके प्रेम की अभिव्यक्ति का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। नारों के स्वर और तालियों की आवाज़ में तूफ़ानी लहरों का शोर भी दब गया था।” लोगों के उत्साह को देखकर महासागर की लहरें भी विनम्र हो गईं थी। महासागर भी स्वयं को भूलकर अगस्त्य ऋषि के वंशज, इस नायक की वापसी को बड़ी ही उत्सुकता से देख रहा था। सीलोन में उनका प्रफुल्लित स्वागत, उनका पहला सार्वजनिक स्वागत होने वाला था। स्वामी जी के भारत आगमन में तरह- तरह के आयोजन हुए जिनमें सुदूर दक्षिण में स्थित कोलंबो से लेकर सुदूर उत्तर में अल्मोड़ा तक स्थान कवर किए गए थे। बाद में राजस्थान प्रांत में लगभग एक वर्ष तक चलने वाली विशाल “विजय ही विजय” यात्रा का आयोजन भी हुआ था।
अलग-अलग भागों और समय के अनुसार स्वागत की विधि में अंतर तो आते रहे लेकिन लोगों का उत्साह सर्वत्र ऐसा बना रहा कि क्या कहा जाए। सीलोन और दक्षिण भारत के अन्य नगरों में शोभायात्रा के मार्गों को पानी से धोकर साफ़ किया गया था, घरों के सामने आम के पत्तों के साथ “निराईकुडम” रखे गए थे।
तमिल कल्चर में ‘निराईकुडम’ अर्थात कलश (कुडम) का बड़ा महत्व है। कलश में जल,एक सिक्का और कभी-कभी चावल या धान रखा होता है। कलश के मुख पर रखा नारियल मानव शीश का प्रतीक है और आम के पांच पत्ते पांच इंद्रियों का प्रतीक हैं। भरा हुआ कलश छलकता नहीं है जबकि खाली बर्तन खड़खड़ाता है। यह कथन इस फिलॉसफी का प्रतीक है कि बुद्धिमान लोग शांत होते हैं, जबकि अज्ञानी लोग ऊंचे स्वर में चिल्लाते ही रहते हैं।
दक्षिण भारत की संस्कृति को दर्शाता समस्त यात्रा-मार्ग केले के पत्तों से सजाया गया था। यदि रात्रि का समय हो, तो यात्रा के साथ मशालें भी चलती थीं, घरों के सामने दीप जलाए जाते थे, जो मानो इन शब्दों को वास्तविक अर्थ प्रदान करते थे कि “स्वामी विवेकानंद के साथ ही भारत में प्रकाश का आगमन हुआ!”
जिस प्रकार देवताओं की यात्राओं में छत्र पकड़े जाते हैं, उसी प्रकार स्वामी विवेकानंद की स्वागत-यात्राओं में भी रखे गए। एक प्रत्यक्षदर्शी के अनुसार, “सर्वत्र ध्वज और पताकाएं दिखाई दे रही थीं। इस लेख के लेखक बड़ी ही उत्सुकता से बताना चाहते हैं कि यात्रा के आगे वाद्यवृंद, घोड़ागाड़ी आदि चलते थे,जो केवल किसी देवता अथवा प्रतिमा की यात्रा के समय निकाले जाने वाले जुलूसों में प्रयोग होते थे। पवित्र छत्रों व पताकाओं का उपयोग भी किया गया था।” वातावरण में, जय महादेव का जयघोष गूँज रहा था।
स्वामी जी को, बग्घियों में, रथों में, पालकियों में, आकर्षक रूप से सजाई गई नाव में ले जाया गया जिसकी व्यवस्था रामनाड के राजा ने की थी।
रामनाड (Ramanathapuram) के राजा, जिन्हें सेतुपति कहा जाता था, एक ऐतिहासिक राजवंश थे, जिन्होंने रामनाड रियासत पर शासन किया। इनमें राजा भास्कर सेतुपति, जिन्होंने स्वामी जी की विदेश यात्रा को स्पॉन्सर किया और राजा शन्मुघा राजेश्वर सेतुपति (मुथुरामलिंगा सेतुपति) जैसे प्रमुख शासक थे, जिन्होंने राज्य के विकास और संस्कृति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
यहाँ पर यह बताना प्रसांगिक हो जाता है कि तमिल के नगर Ramanathapuram में ही हमारे सबके प्रिय राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम का जन्म हुआ था एवं यह नगर, रामेश्वरम की भांति भगवान् से सम्बंधित है।
सभी लोग स्वामी जी के भारत आने पर इतने उत्साहित थे कि अल्मोड़ा में उन्हें सजे हुए घोड़े पर ले जाया गया। इस उत्साह का इतिहास में वर्णन आता है कि रामनाड के राजा ने एवं मद्रास व कलकत्ता में युवाओं ने उनका रथ खींचा।
समाचार पत्रों में विवरण आता है कि के कार्यक्रम समाप्त होने पर, स्वामीजी को शासकीय-बग्घी में बिठाकर राजभवन की ओर ले जाया गया, अपने दरबारियों के साथ स्वयं राजा पैदल चल रहे थे। इसके बाद, राजा के आदेशानुसार, घोड़े हटा दिए गए और राजा सहित आम लोगों ने शासकीय-बग्घी को पूरे नगर में खींचा। स्वामी विवेकानंद के सम्मान में कई स्वागत भाषण पढ़े गए, भजनों की रचना की गई। उनके स्वागत में कोलंबो में थेवरम (भगवान शिव को समर्पित दक्षिण भारत के भक्ति गीत) गाया गया, यात्रा के दौरान बैंड पर अनेक भारतीय व अंग्रेज़ी गीतों की धुनें बजाई गईं।’
उनके स्वागत का उत्साह इतना अधिक था कि आज भी उसका वर्णन सुनकर हम रोमांचित हो उठते हैं।
आज के ज्ञानप्रसाद लेख का यहीं पर मध्यांतर होता है।
धन्यवाद्,जय गुरुदेव
