9 दिसंबर 2025 का ज्ञानप्रसाद-
5 नवंबर 2025 को आरम्भ हुई “युगऋषि का अध्यात्म-युगऋषि की वाणी में” दिव्य लेख श्रृंखला का आज 20वां एवं समापन लेख प्रस्तुत किया गया है। सभी साथिओं का ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं जिन्होंने इस लेख श्रृंखला का अध्ययन करके,कमेंट-काउंटर कमेंट करके इस लेख श्रृंखला को सफल बनाने में सहयोग दिया। हम अपने समर्पित साथिओं के सदैव ही ऋणी रहेंगें।
आज के लेख में पंडित लीलाप्रसाद शर्मा जी और परम पूज्य गुरुदेव के बीच हो रहे दिव्य वार्तालाप से यदि हम कुछ एक बातें ही गाँठ बाँध लें तो गुरुकार्य में बहुत बड़ा योगदान होगा। पंडित जी ने गुरुदेव को वही शब्द बोलकर उनकी तस्सली करवा दी थी जो गुरुदेव अपने गुरु आदरणीय सर्वेश्वरानन्द जी को कहते आये हैं। इतना कठिन संकल्प लेना,उसको पूर्ण करना, गुरुकृपा के बिना संभव तो हो ही नहीं पाता।
आदरणीय चिन्मय जी गुरु का शक्ति के बल पर ही बापू ऑडिटोरियम में विशाल युवा-सैलाब को बांध पाए, गुरुदेव अपने गुरु की शक्ति से इतने विशाल गायत्री परिवार का सृजन कर पाए, ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार भी उसी गुरुकृपा से हम सबको श्रद्धा-सूत्र में बांधे रखा है।
जब हम कहते हैं कि गुरुदेव हमसे ऊँगली पकड़ कर, मार्गदर्शन देते हुए ज्ञानप्रसाद लेख लिखवा रहे हैं तो हमें खुद को विश्वास नहीं होता। इसी का एक उदाहरण देखने तो तब मिला जब हम इस लेख श्रृंखला के लेख लिख रहे थे। गुरुदेव ने स्वयं ही पंडित लीलापत शर्मा जी की एक और पुस्तक “कर्मकांड क्यों और कैसे ?” हमारे हाथ में थमा दी। मात्र 48 पन्नों की इस पुस्तक में अनेकों कर्मकांडों के पीछे छिपे लॉजिक का बहुत ही सरलता से वर्णन है। आने वाली लेख श्रृंखला इसी पुस्तक पर आधारित होगी लेकिन उससे पहले कुछ छोटे-छोटे ज्ञान के टुकड़ों को प्रस्तुत करने का विचार है।
अपने वायदे के अनुसार कल के लेख में तो कबीर की उलटबांसियों को जानने का अवसर मिलेगा,देखेंगें कि कैसे कबीर जी बात को सीधी न कहकर घुमा-फिराकर हमें कितना कुछ समझा गए हैं।
तो आइए आज के लेख का शुभारम्भ विशन्ति की कामना से करें:
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
अर्थात शान्ति: कीजिये प्रभु ! त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में,अन्तरिक्ष में, अग्नि – पवन में, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन में,सकल विश्व में अवचेतन में,शान्ति राष्ट्र-निर्माण और सृजन में, नगर , ग्राम और भवन में प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण – कण में, शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए
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ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से प्रकाशित हो रही दिव्य लेख श्रृंखला के कल वाले यानि 19वें अंक का समापन मथुरा की घीआ मंडी स्थित अखंड ज्योति संस्थान में वंदनीय माता जी और हमारे आदरणीय पंडित लीलापत शर्मा जी के दिल को छू जाने वाले संस्मरण के साथ हुआ था। खाना खाने के बाद बर्तन साफ़ करने की बात तो अवश्य ही सभी पाठकों के ह्रदय में एक विशेष स्थान बना गयी होगी लेकिन माता जी का पंडित जी को कहना, “बेटा! तू मुझे भूल गया है, मैं ही तेरी माँ हूँ” ने उनके जीवन में ऐसा चमत्कार कर दिया कि उन्होंने उसी दिन स्वयं को पूर्णतया मिशन को समर्पण करने का निश्चय कर लिया।
पंडित जी तो बचपन से ही माँ के वात्सल्य, ममता और दुलार के प्यासे थे।
जिस समय पंडित जी और वंदनीय माता जी के बीच यह दिव्य वार्ता चल रही थी, गुरुदेव कहीं बाहिर गए हुए थे। जब गुरुदेव आए तो पंडित जी ने उनसे समर्पण की बात कही और यह भी बताया कि वंदनीय माता जी के प्यार ने हमें समर्पण के लिए प्रेरित किया है, हम सदा-सदा के लिए मिशन के हो चुके हैं।
पंडित जी लिखते हैं:
तब से लेकर अंतिम साँस तक (14 मई 2002 तक),हमने विषम से विषम परिस्थितियों का सामना किया लेकिन कभी भी अपनी निष्ठा और श्रद्धा में रत्ती भर की कमी नहीं आने दी। पूज्यवर ने जो भी दायित्व सौंपे उन्हें पूरी ईमानदारी के साथ निभाते चले गए।
20 जून 1971 को जब गुरुदेव मथुरा छोड़कर हरिद्वार जाने को थे, तब हमसे कहने लगे, “बेटा ! हमने ज्ञानयज्ञ को दो भागों में बाँट दिया है, सत्संग और स्वाध्याय। बोल तू कौन सा काम सँभालेगा ?”
हमने कहा, “गुरुदेव ! हम तो स्वाध्याय के माध्यम से ही आपके विचारों से प्रभावित होकर मिशन से जुड़े हैं, अतः हम तो स्वाध्याय की जिम्मेदारी ही सँभालेंगे।
पूज्यवर बोले, “तू कठिन और नीरस (Boring,dull) काम ले रहा है।” हमने कहा, “गुरुदेव ! आपके आशीर्वाद से जीवन में कठिन काम ही सँभाले हैं और चलाए भी हैं।” परम पूज्य गुरुदेव फिर बोले, “देख ले, मैं तो हरिद्वार जा रहा हूँ। तू अकेला सँभाल लेगा ?” हमने कहा, “आप निश्चिंत होकर जाइए, हमारा गुरु हमारे साथ है।”
विदाई समारोह धूमधाम से संपन्न किया था । मिशन का सारा बैंक बैलेंस समाप्त हो गया था। मात्र 5000 रुपया बचा था। गुरुदेव बोले, “पाँच हजार की धनराशि से कैसे काम चला लेगा ?” हमने कहा, “जब हमारा गुरु हमारे साथ है तो हमें क्या चिंता है ?”
पूज्यवर ने हमारी श्रद्धा और निष्ठा को देखकर आशीर्वाद दिया,
“बेटा ! ब्राह्मण का जीवन जीना, तुझे साधनों की कोई कमी नहीं आने देंगे।”
पंडित जी बता रहे हैं कि तब से अब तक कभी किसी के सम्मुख हाथ नहीं फैलाया, किसी से मिशन के लिए एक पैसा भी नहीं माँगा है । मिशन के भाइयों से बिना ब्याज का उधार तो लिया लेकिन माँगा नहीं। पूज्य गुरुदेव द्वारा बताई ब्राह्मण परंपरा का पालन किया और आप सब पाठक देख रहे हैं कि गायत्री तपोभूमि में तब से लेकर अब तक कितना विकास हुआ है।
आज 2026 में जब हम यह पंक्तियाँ लिख रहे हैं, इस समय भी तपोभूमि एक नए स्वरूप की ओर अग्रसर हो रही है। आदरणीय ईश्वर शरण पांडे जी हमें समय-समय पर, हो रहे विकास के कुछ चित्र भेजते रहते हैं, हम ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं। इच्छुक साथी हमारे ही चैनल पर अपलोड हुई निर्माणधीन तपोभूमि मथुरा की वीडियोस देख सकते हैं।
पंडित जी का हम सबसे अनुरोध :
अपने सब आत्मीय भाई-बहिनों से हमारी एक ही प्रार्थना है कि पूज्य गुरुदेव ने “ज्ञानयज्ञ की जो मशाल” जलाई थी, उसे अब दावानल बनाने के लिए अपने समय, धन, प्रभाव और योग्यता को लगा दें। पूज्य गुरुदेव के क्रांतिकारी विचारों को छोटी-छोटी पॉकेट बुक्स के माध्यम से हर व्यक्ति तक पहुँचा दें। पूज्य गुरुदेव का आश्वासन है कि यदि आपने यह सब कर लिया तो युग परिवर्तन में देर नहीं लगेगी। “इक्कीसवीं सदी उज्जवल भविष्य” का जो नारा हम वर्षों से लगाते चले आ रहे हैं, उसके क्रियान्वयन के लिए अब हमें बस एक ही उपाय करना है। यूँ तो सारा मिशन 100 सूत्रीय युग निर्माण योजना के अंतर्गत आता है लेकिन सारी योजनाएँ अब एक सूत्र में सिमट गई हैं, और वह है “ज्ञानयज्ञ”। सैकड़ों समस्याओं, दुःखों, कष्टों से ग्रसित तथा सद्ज्ञान, सद्विचारों की भूखी-प्यासी दुनिया युग निर्माण परिवार के कार्यकर्त्ताओं से यह आशा लगाए बैठी है कि किसी युगऋषि के अमृत विचारों की वर्षा हो और निर्जीवों, प्राणहीनों में चेतना आए। सोए हुए जगें, जगे हुए चलें, चलने वाले दौड़ें और दौड़ने वाले उड़ें।
पूज्य गुरुदेव ने हमको-आपको गुरुदीक्षा में अपना प्राण दिया है। हम पूज्य गुरुदेव के अंतःकरण की पीड़ा को समझें । एक स्थान पर पूज्यवर ने स्वयं लिखा है:
” मेरे आत्मीय परिजनो ! जिस प्रकार ईश्वर की महान कृतियों को देखकर ही उसकी गरिमा का अनुमान लगाया जाता है, उसी प्रकार हमारा संकल्प खोखला था या ठोस, इसका अनुमान उन लोगों को परख करके लगाया जाएगा, जो हमारे श्रद्धालु और अनुयायी कहे जाते हैं। यदि बातूनी प्रशंसक और दंडवत प्रणाम करने वाले श्रद्धालु ही गायत्री परिवार में रहे, तो माना जाएगा कि यह परिवार केवल बड़े-बड़े उद्घोष तो कर सकता है लेकिन अंदर से बिल्कुल ही खोखला है,इस पर विश्वास करके अपने अमूल्य जीवन का बलिदान देना बहुत बड़ी मूर्खता होगी। किसी भी संगठन की शक्ति असल में उसके “कर्म” में सन्निहित है। वास्तविकता की परख “क्रिया” से होती है। यदि अपने गायत्री परिवार की क्रिया-पद्धति का स्तर दूसरे अन्य नर पशुओं जैसा ही बना रहा, तो हमें अपने श्रम और विश्वास की निरर्थकता पर कष्ट होगा और लोगों की दृष्टि में उपहासास्पद बनना पड़ेगा।”
हम सब भाई-बहिनों को पूज्य गुरुदेव को यह आश्वासन देना होगा कि हम शेर के बच्चे हैं, गीदड़ बन कर नहीं जियेंगें, यह तो कायरता होगी। गुरु-दक्षिणा में हमने जो अंशदान और समयदान देने का संकल्प लिया था, उसका सदुपयोग ज्ञानयज्ञ में करेंगे। अपने अंशदान द्वारा साहित्य मँगा कर, समयदान द्वारा झोला पुस्तकालय चलाकर पूज्य गुरुदेव को घर-घर पहुँचाएँगे । यही पूज्य गुरुदेव के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है।
पूज्य गुरुदेव रोली, चावल, फूल, पान, सुपारी चढ़ाने से प्रसन्न होने वाले नहीं हैं। सही अर्थों में पूज्य गुरुदेव का नाम ही “सद्विचार” है, जगह-जगह स्टीकर लगे देखे जाते हैं “मैं व्यक्ति नहीं, विचार हूँ।” सद्विचारों की सेवा ही पूज्य गुरुदेव की सेवा है। यज्ञों में प्रसाद के रूप में पॉकेट बुक्स का वितरण अवश्य कराया जाए। जिस घर में यज्ञ अथवा संस्कार हो उसमें “ज्ञान मंदिर” की स्थापना अवश्य कराई जाए। प्रत्येक विद्यालय में यदि एक शिक्षक भी पूरे मनोयोग से कार्य करे तो छात्रों के माध्यम से सैकड़ों-हजारों घरों में साहित्य आसानी से पहुँचाया जा सकता है। हम आप सभी पूज्य गुरुदेव के निष्ठावान शिष्य बनें।
साथिओ, इस 20वें लेख से जब इस दिव्य श्रृंखला का समापन हो रहा है, हम अपने ह्रदय में उठ रही प्रसन्नता की सुनामी को रोक पाने में,व्यक्त कर पाने में असमर्थ हैं,कृपया हमारा सहयोग कीजिये,ज्ञान की इस अमृतधारा में एक डुबकी लगा कर स्वयं टेस्ट कर लीजिये,हमारा विश्वास कीजिये आप हमारे ही होकर रह जायेंगें।
जय गुरुदेव
समापन
