8 दिसंबर 2025 का ज्ञानप्रसाद
आज के लेख का शुभारम्भ करने से पहले साथिओं का धन्यवाद् करने चाहते हैं जिनके कमैंट्स ने “महाकाल और महाकाली के प्रसंग” को Rephrase करने की निम्नलिखित प्रेरणा दी है:
महाकाल की छाती पर महाकाली का होना शिव और शक्ति के एकात्म, अहंकार के नाश और सृष्टि के निरंतर संतुलन का एक गहरा दार्शनिक और आध्यात्मिक प्रतीक है।
जब महाकाली रक्तबीज जैसे राक्षसों का वध करते हुए अपने उग्र रूप में थीं, तब उन्हें रोकने वाला कोई नहीं था। शिव उनके मार्ग में लेट गए और महाकाल के ह्रदय पर पैर पड़ते ही महाकाली (शिव की हृदयेश्वरी) शांत हो गयीं।
अब चलते हैं आज के लेख की ओर
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जब भी पूज्य गुरुदेव हमारे पास ग्वालियर आते थे वोह हमारे पास दो तीन दिन ठहरते ही थे। इस अवधि में गुरुदेव से अनेकों प्रकार का मार्गदर्शन ग्रहण करने का सुअवसर प्राप्त होता था। पूज्यवर हमसे बार-बार कहते थे कि कि तू इस मिल आदि के कार्य को छोड़ दे और हमारे पास आ जा। तू आ जाएगा तो हम और तू एक और एक ग्यारह हो जाएँगे,फिर देखना मिशन कितनी तेज़ी से कार्य करता है। हम हमेशा यही कहते थे कि गुरुदेव मुझे आपके विचार तो अच्छे लगते हैं लेकिन भौतिक सुख-साधन छोड़ने को मन नहीं मानता । पूजा तो हम यहाँ भी रोज़ कर लेते हैं। भगवान को फूल भी चढ़ा देते हैं, चंदन लगा देते हैं, धूप-दीप जला देते हैं, हमारे लिए तो इतना ही ठीक है बस, इसके आगे करके हमने क्या लेना है।
कितना अच्छा होता यदि गुरुदेव और पंडित जी के बीच हो रही वार्ता की ऑडियो/वीडियो रिकॉर्डिंग उपलब्ध होती तो हम बच्चे भी सुन/देख सकते कि उस देवपुरूष ने इस दिव्य आत्मा को क्या मार्गदर्शन दिया। खैर कोई बात नहीं, दोनों के बीच हुए पत्र व्यवहार दर्शाती 188 पन्नों की पुस्तक ऑनलाइन/ऑफलाइन दोनों ही रूपों में उपलब्ध है। “पत्र पाथेय” शीर्षक से 1998 में प्रकाशित हुई इस दिव्य पुस्तक में ऐसे 89 पत्र संग्रहित किये गए हैं जिनसे कोई भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। 1961 से 1967 की अवधि में गुरुदेव द्वारा लिखे गए पत्र उन्हीं की हैंडराइटिंग में एवं टाइप वर्शन,दोनों में उपलब्ध होने से यह पुस्तक दिव्य तो बनती ही है,चार पन्नों की विस्तृत भूमिका उससे भी ऊपर चार चाँद लगा रही है। हमारा विश्वास है कि इस पुस्तक का अमृतपान करने को हमारे साथ उत्सुक होंगें, तो नीचे दिए लिंक को क्लिक करिए और खो जाइए दिव्यता के महासागर में :
पूज्य गुरुदेव ने पंडित जी को कहा:
बेटा,क्या तूने फूल चढ़ाना इतना साधारण समझ रखा है? फूल की भावना है कि यदि उसे भगवान के चरणों में चढ़ना है तो पहले उसे अपना गला कटाना पड़ता है। वर्तमान संदर्भ में फूल द्वारा गला कटाने का प्रतीकात्मक अर्थ है: मस्तिष्क में घुसे कुविचारों को काटना; आँख, नाक, कान, जिह्वा आदि ज्ञानेंद्रियों को कण्ट्रोल करना। जब मनुष्य स्वयं पुष्प बनकर भगवान के चरणों में अर्पित होने की पात्रता प्राप्त करता है तो इन्हीं ज्ञान इन्द्रियों को कण्ट्रोल करना चाहिए। ज्ञान इन्द्रियों को कण्ट्रोल करके जब पुष्प को भगवान के चरणों में अर्पित किया जाता है तो यह भावना भी रखनी होती है कि हम फूल जैसा खिला-खिला,हँसता-हँसाता, प्रफुल्लता भरा जीवन जिएँगे। अपने जीवन की समस्त खुशियाँ भगवान के चरणों में समर्पित करेंगे। जब भगवान् अपने राजकुमार को प्रसन्न और खिला हुआ देखते हैं तो इतना प्रसन्न होते हैं कि अपनी ख़ुशी को अनेकों गुना Multiply करके भक्त को वापिस कर देते हैं। भगवान् से, सैंकड़ों,लाखों गुना Multiply होकर प्राप्त हुआ यह प्रसाद सारे वातावरण को दिव्य बना देता है, जीवन को आनंदमय बना देता है।
भगवान के चरणों से प्राप्त हुए प्रसाद को,ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार से वितरित होने वाले दैनिक, दिव्य ज्ञानप्रसाद से तुलना करना कोई अतिश्योक्ति नहीं है क्योंकि प्रत्येक ज्ञानप्रसाद गुरु के चरणों में समर्पित होता है और इस ज्ञान की Vibrations सारे विश्व को झंकृत कर रही हैं।
पुष्प के समर्पण को और अधिक विस्तार से बताते हुए गुरुदेव कहते हैं कि पुष्प चरणों में अर्पित होने की योग्यता तभी प्राप्त करता है जब वह तैयार हो जाता है कि उसकी गर्दन से सुई घुसे और सिर से निकल जाय। ऐसा करते हुए पुष्प अन्य अनेकों, रंग-बिरंगे पुष्पों के साथ धागे में पिरोकर,अपना अकेले का अस्तित्व मिटा देता है और एक नया अस्तित्व (माला का अस्तित्व) प्रकट हो जाता है। ऐसा समर्पण करके ही पुष्प भगवान के गले का हार बनने का सौभाग्य प्राप्त कर सकता है।
ये सब उपलब्धियाँ ऐसे ही नहीं मिल जातीं। पुष्प चढ़ाना तो आसान है लेकिन पुष्प की फ़िलॉसफ़ी समझकर पुष्प चढ़ाने पर ही कुछ लाभ मिल सकता है।
पंडित जी समझ रहे थे कि गुरुदेव उन्हें यह सारी फ़िलॉसफ़ी क्यों बता रहे हैं। वे उन्हें भौतिकवादी जीवन के सुख-आराम और चकाचौंध से दूर लाने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन पंडित जी के लिए (किसी के लिए भी !) भौतिक सुखों का मोह इतनी जल्दी कहाँ छूट पाता है ?
गुरुदेव बोले:
पूजा के समय चंदन लगाने का अर्थ है कि हम अपने मस्तिष्क में शीतलता रखें, आवेश व क्रोध से बचें। कुविचारों को मस्तिष्क में प्रवेश न करने दें।
दैनिक दिव्य सन्देश में बार-बार शेयर की गयी स्लाइड दर्शाती है कि चंदन का वृक्ष जहाँ भी होता है,आस-पास के वृक्षों में भी सुगंध पैदा कर देता है। इस वृक्ष से प्रेरणा लेते हुए,आवश्यक है कि हम Role model बन कर स्वयं श्रेष्ठ बनें और दूसरों को अपने जैसा श्रेष्ठ बनाने का प्रयास करें। गुरुदेव बता रहे हैं कि सांप को चंदन के वृक्ष की शीतल छाया और सुगंध आकर्षित करती है एवं उसे वृक्ष पर पलने वाले छोटे-छोटे कीड़ों का भोजन भी मिल जाता है लेकिन वृक्ष से लिपटे सर्प, चंदन की विशेषता एवं प्रकृति को ज़रा भी प्रभावित नहीं कर पाते। मनुष्य चाहे कितने ही दुष्टों के साथ रहे, उसकी संकल्प शक्ति,समर्पण एवं आत्मबल प्रबल होने के कारण किसी भी दुष्ट प्रवृति का कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। मनुष्य की दिव्यता ही औरों को प्रभावित करे,चंदन लगाने का यही उद्देश्य है।
धूप से हम वातावरण को सुगंधित बनाते हैं क्योंकि सुगंधित वातावरण ही परमात्मा को प्रिय है। तभी तो कहा गया है:Cleanliness is next to Godliness,इस Proverb का आधुनिक अर्थ भी यही कहता है कि स्वच्छता से मनुष्य की भौतिक और आध्यात्मिक स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। ईमानदारी, परिश्रम और पसीने की कमाई से उत्पन्न सुगंध परमात्मा को अच्छी लगती है।
गुरुदेव बता रहे हैं:
दीपक ज्ञान का प्रतीक है। हम स्वयं ज्ञान प्राप्त करें और दूसरों तक ज्ञान पहुँचाएँ, यह शिक्षण दीपक दे रहा है।
हमने परमात्मा का जो ज्ञान स्वाध्याय एवं चिंतन द्वारा या गायत्री माता की कृपा से ब्रह्मांड से प्राप्त किया है, उसे पुस्तकों के रूप में लिख रहे हैं। ज्ञान का सारा भण्डार तो भगवान का ही है, हमने इसे स्वादिष्ट रेसिपी से पका कर सुपाच्य बनाने का काम कर दिया है। संसार के सारे भाई-बहिनों तक इस ज्ञान को पहुँचा देने की ज़िम्मेदारी उठाने वाले अंग अवयवों की अब मुझे आवश्यकता आन पड़ी है।
अब मैं तलाश हूँ कि इसके लिए उपयुक्त पात्र व्यक्ति मुझे मिल जाएँ तो मेरा कार्य पूर्ण हो जाए। यह जिम्मेदारी किन कंधों पर डालूँ, इन दिनों यही चिंतन चल रहा है। ज्ञानयज्ञ की लाल मशाल को थाम सकने वाले मजबूत हाथों की आवश्यकता है।
उपरोक्त पंक्तियाँ OGGP के साथिओं के लिए भी फिट बैठती हैं।
पंडित जी बताते हैं कि पुष्प की व्याख्या सुनते ही हमें पूज्यवर का पहला और दीपक की व्याख्या सुनते हुए दूसरा इंजैक्शन लगा। पहले इंजैक्शन के प्रभाव को तो हम हज़म कर गए लेकिन दूसरे इंजैक्शन का प्रभाव इतना तीखा हुआ कि हमने एकदम गुरुदेव से पूछा:
“गुरुदेव ! आपको आपकी आवश्यकता के अनुकूल कोई व्यक्ति नहीं मिला ?”
पूज्यवर दुःखी मन से बोले:
बेटे, मिला तो सही, लेकिन वोह मोह-ममता और भौतिक सुखों में लिप्त होने के कारण समर्पण करने को तैयार नहीं है। हम समझ रहे थे कि यह हमारे लिए कहा जा रहा है इसलिए हम चुप हो गए।
हमें अनुभव हुआ कि पूज्य गुरुदेव धीरे-धीरे संजीवनी बूटी पिला रहे थे। हमारे चुप होने से उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।
गुरुदेव आगे बोले:
पूजा में श्रद्धा का जल भी चढ़ाया जाता है, अटूट निष्ठा के अक्षत भी चढ़ाए जाते हैं। भगवान शंकर पर तो जल की अविरल धारा अर्थात कल्याणकारी तत्त्वों पर अटूट श्रद्धा रखनी होती है। संसार के कल्याणकारी तत्त्वों पर निरंतर अटूट श्रद्धा रखना ही शिवलिंग पर जलधारा चढ़ाने का दर्शन है। चावल अर्थात अक्षत (जो कभी न टूटे), अपने इष्ट के प्रति विश्वास को दर्शाता है।
भावना का बहुत बड़ा योगदान है, ऐसा नहीं कि कोई काम बन गया तो हमारे प्रयास से बन गया और बिगड़ गया तो माँ गायत्री को दोष देने लगे। भगवान् को नित्यप्रति अक्षत चढ़ाने का तात्पर्य है कि हमारी निष्ठा अक्षुण्ण बनी रहे, नित्यप्रति बढ़ती ही रहे ।
भगवान को हमेशा ही मीठी वस्तुओं का भोग लगाया जाता है क्योंकि उन्हें मिठास पसंद है। नमकीन,तीखी, कड़वी चीजें भगवान को पसंद नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि हमें हमेशा अपनी वाणी पर संयम रखना चाहिए। मृदुभाषी होना चाहिए। इसका स्मरण बना रहे इसलिए हम भगवान को मीठा चढ़ाते हैं।
आजकल लोग कर्मकांड तो कर लेते हैं लेकिन कर्मकांडों के पीछे छिपे हुए रहस्य एवं प्रेरणाओं को जीवन में नहीं उतारते। भगवान को नित्यप्रति पुष्प चढ़ाने वाला भी अपने पुराने संस्कारों का गला काटकर भगवान के काम में समर्पण करने को तैयार नहीं होता ।
पूज्यवर का एक तीसरा इंजैक्शन जो हमें जीवंत तो कर गया लेकिन समर्पण की हिम्मत न दिला सका । पूज्यवर के इन “आध्यात्मिक उपचारों” से हमारे मन में इन प्रेरणाओं का बीजारोपण तो हो गया था, जो धीरे-धीरे अंकुरित होकर वृद्धि करने लगा था, किंतु विशेष तीव्रता वाले इस तीसरे इंजैक्शन की अभी भी आवश्यकता थी।
अब हम वही घटना बताने जा रहे हैं जिसकी स्मृति मात्र से आज भी हमारा सारा अस्तित्व हिल जाता है:
पूज्य गुरुदेव घीआ मंडी स्थित अखण्ड ज्योति संस्थान,मथुरा वाले मकान में रहते थे। हम पूज्य गुरुदेव से मिलने मथुरा आए। मकान पर पहुँचे तो मालूम हुआ कि गुरुदेव वहाँ नहीं हैं। हमने वंदनीय माता जी को प्रणाम किया । उन्होंने कुशलक्षेम पूछी, बड़े स्नेह और दुलार से भोजन कराया। भोजन के बाद जब हम अपने बर्तन साफ करने जाने लगे तो माता जी ने हमें डाँटा और बोली कि बेटा ! यह क्या करता है । बर्तन माँ साफ करती है या बेटा ? तू तो हमारी संस्कृति को ही उलट देना चाहता है। उसी क्षण हमें लगा कि जिस माँ को हमने बचपन में ही खो दिया था, वह हमारे सामने खड़ी है। वंदनीय माता जी बोलीं, “बेटा! तू मुझे भूल गया है, मैं ही तेरी माँ हूँ।” हम तो बचपन से ही माँ के वात्सल्य, ममता और दुलार के प्यासे थे। वंदनीय माता जी के शब्दों ने हमारे जीवन में ऐसा चमत्कार कर दिया कि हमने उसी दिन स्वयं को मिशन को समर्पण का निश्चय कर लिया। जब गुरुदेव आए तो हमने उनसे समर्पण की बात कही और यह भी बताया कि वंदनीय माता जी के प्यार ने हमें समर्पण के लिए प्रेरित किया है।
आज के सत्संग का यहीं पर मध्यांतर होता है, कल इसके आगे का वृतांत और भी रोचक होने के सम्भावना है।

