6 दिसंबर 2025 का ज्ञानप्रसाद
“युगऋषि का अध्यात्म,युगऋषि की वाणी में” आदरणीय पंडित लीलापत शर्मा जी की 10 उत्कृष्ट रचनाओं में से एक रचना है। 82 पन्नों की इस पुस्तक पर आधारित लेख श्रृंखला अब समापन की ओर बढ़ रही है,आज उसका 18वां ज्ञानप्रसाद लेख प्रस्तुत किया गया है। हर बार की भांति इस बार भी स्वयं को प्रश्न कर रहे हैं कि 24000 शब्दों की पुस्तक को 40000 शब्दों के लेखों में प्रस्तुत करने में क्या औचित्य था ? औचित्य था कि यदि उद्देश्य केवल पुस्तक पढ़ने तक ही सीमित होता तो 24000 शब्द कब के पढ़ लिए होते, हमारा उद्देश्य तो एक- एक शब्द,एक- एक पृष्ठ में समाए ज्ञान का अमृतपान करके ह्रदय में उतारना था, इसके लिए अनेकों उदाहरण,रिसर्च कंटेंट शामिल किये गए हैं। हमारे सबके सामूहिक प्रयास से तैयार किये गए सभी 1415 लेख हमारी वेबसाइट पर सेव किये हुए हैं,उनका कभी भी अमृतपान किया जा सकता है।
आज के लेख में महाकाल और महाकाली का वर्णन विश्वशांति की कामना से होता है :
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
अर्थात शान्ति: कीजिये प्रभु ! त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में,अन्तरिक्ष में, अग्नि – पवन में, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन में,सकल विश्व में अवचेतन में,शान्ति राष्ट्र-निर्माण और सृजन में, नगर , ग्राम और भवन में प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण – कण में, शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए
******************
कल प्रकाशित हुए ज्ञानप्रसाद लेख में परम पूज्य गुरुदेव पंडित लीलापत शर्मा जी को “महाकाल की रुद्रता” के बारे में बता रहे थे। भूले हुओं को रास्ता दिखाने का महाकाल का यह वाला तरीका है तो बड़ा ही निर्मम लेकिन इससे कम में बात बनती ही नहीं है। गुरुदेव पंडित जी को उनके दायित्व का स्मरण कराते हुए कह रहे थे कि विनाश की स्थिति में आँख मूँद कर बैठने वाला भी विनाश का भागीदार है, इस भागीदारी से वह बच नहीं पायेगा।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के प्रत्येक साथी का परम कर्तव्य बनता है कि जहाँ कहीं भी अनाचार आदि की स्थिति देखे, उसके विरोध में आवाज़ अवश्य उठाए।
यह कहकर पूज्यवर शांत हो गए तो पंडित जी को अपनी जिज्ञासा रखने का अवसर मिला।
पंडित जी ने पूछा:
गुरुदेव ! यह महाकाल कौन हैं और संलग्न चित्र में महाकाली भगवान शंकर की छाती पर नृत्य करती दर्शाई गयी हैं, इसका क्या तात्पर्य है ?
पूज्यवर मुस्कराए और बोले:
यह सब काल्पनिक चित्र और मूर्तियाँ ईश्वरीय नियमों की आलंकारिक व्याख्या (Figurative interpretation) करने के लिए बनाई गई हैं। ऐसा करने के पीछे उद्देश्य यही था कि ईश्वर के दर्शन इतनी आसानी से तो हो नहीं सकते, उन्हीं की तरह का कुछ तो मॉडल हो जिसे देखकर मनुष्य अपने ह्रदय में ईश्वर की कोई छवि तो बना सके लेकिन अफ़सोस तो तब होता है जब मनुष्य ने इन प्रतिमाओं की ही पूजा की,उन्हीं पर फूल मालाएं चढ़ाईं,जगह-जगह अधिक से अधिक इन पत्थरों की मूर्तियों में ईश्वर को ढूंढना चाहा। मूर्तियों के पीछे छिपे ज्ञान को ग्रहण करने का कोई भी प्रयास नहीं किया। मनुष्य के ह्रदय में,इतने करीब विराजमान साक्षात् भगवान् से साक्षात्कार करने का कोई प्रयास नहीं किया।
गुरुदेव बता रहे हैं :
महाकाल का अर्थ है “समय की सीमा से परे।” काल का तो अर्थ ही समय है- वर्तमान काल,भूतकाल,भविष्य काल आदि। महाकाल एक ऐसी अदृश्य प्रचंड सत्ता है जो सृष्टि का संचालन करती है, दंड व्यवस्था का निर्धारण करती है एवं जहाँ कहीं भी अराजकता, अनुशासनहीनता दृष्टिगोचर होती है वहाँ सुव्यवस्था हेतु अपना सुदर्शन चक्र चलाती है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार जब संसार की जराजीर्ण और अवांछनीय परिस्थितिओं का सुधार करने के लिए, सामान्य प्रयत्न सफल नहीं हुए तो महाकाल ने तांडव नृत्य किया जिसमें अनुपयुक्त (Inappropriate) कूड़ा-कर्कट जलकर भस्म होने लगा।
बड़े-बड़े महल गिराना तो आसान है लेकिन उनको फिर से बनाना बहुत कठिन होता है। बुलडोज़र से कुछ ही मिनटों में महल सा भवन मिट्टी हो जाता है लेकिन निर्माण में तो वर्षों लग जाते हैं। इसीलिए ध्वंस की तुलना में निर्माण का महत्त्व बहुत अधिक होता है।
महाकाल के तांडव नृत्य से जब ध्वंस (Destruction) हो चुका तो महाकाल का कार्य समाप्त हो गया। फिर सृजन (Creation) की देवी महाकाली आगे आईं। उसने महाकाल से उनका तांडव बंद कराया। उन्हें भूमि पर लिटा दिया अर्थात पराजित कर दिया और स्वयं आगे बढ़कर सृजन के कार्यों में लग पड़ीं।
पुरातन ग्रंथों में इसी चिंतन को चित्रित किया गया है जिसमें महाकाल भूमि पर लेटे हुए हैं और महाकाली उनकी छाती पर खड़ी ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगीं। यों पति की छाती पर पत्नी का खड़ा होना अटपटा सा लगता है लेकिन पहेलियों में यह अटपटापन मनोरंजक भी है और ज्ञानवर्धक भी।
कबीर साहिब की शिक्षा “उलटवासिओं/पहेलियों” के रूप में लिखी गई हैं और उनमें छिपे दिव्य रहस्य को जानने के लिए बुद्धिमत्ता को बहुत बड़ी चुनौती हैं। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच पर कबीर जी की “उलटवासिओं” के Passing रेफरन्स तो अनेकों बार आ चुके हैं लेकिन इनका सही रूप में अर्थ समझने के लिए एक Full-length लेख लिखना आवश्यक होगा। आने वाले सप्ताह में वर्तमान लेख श्रृंखला का समापन हो रहा है तो अगली श्रृंखला का शुभारम्भ करने से पहले कबीर जी की उलटबासिओं पर एक लेख लिखने का प्रयास करेंगें। अभी के लिए इतना ही समझना उचित रहेगा कि 1 और 1 ग्यारह, विज्ञान की दृष्टि से तो गलत है लेकिन उसके पीछे छिपा बहुत चिंतनशील ज्ञान है।
भूमि पर लेटे हुए भगवान् शिव की छाती पर महाकाली का खड़े होकर हंस-हंस कर नृत्य करना, घटना के रूप में वास्तव में घटित हुआ या नहीं, इसकी Verification में पड़ने के बजाए, घटना में सन्निहित धर्म और तत्त्व को समझने का प्रयास करना चाहिए। इसी चित्र को किसी अन्य Explanation के साथ भी वर्णित किया गया है।
ध्वंस एक “आपत्ति धर्म” है और सृजन एक “सनातन प्रक्रिया” है। ध्वंस को आखिरकार रुक ही जाना पड़ता है, थककर लेट जाना और अंत में सो जाना पड़ता है। ऐसी स्थिति में सृजन को दोहरा काम करना पड़ता है। एक तो “स्वाभाविक रचनात्मक प्रक्रिया का संचालन” और दूसरे “ध्वंस के कारण हुई क्षति की पूर्ति” का आयोजन। महाभारत युद्ध के बाद धर्म की स्थापना एक कार्य था और युद्ध के कारण हुई क्षति, मृतक आत्माओं की शांति का पुण्य कार्य करना दूसरा पुरुषार्थ। इसीलिए युद्ध के बाद अनेकों यज्ञ किये गए थे। इस दोहरी उपयोगिता के कारण “ध्वंस के देवता महाकाल” की अपेक्षा “सृजन की देवी महाकाली” का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ जाता है।
महाकाल जब नीचे पड़े होते हैं तब शक्ति ऊपर खड़ी होती है। ऐसे में शिव का महत्त्व घट जाता है और शक्ति की गतिशीलता पूजनीय होती है। महाकाल की छाती पर खड़े होकर महाकाली का अट्टहास इसी तथ्य का Symbolic चित्रण है ।
भगवान शिव अपने त्रिशूल का प्रयोग केवल अनिवार्य परिस्थितियों में ही करते हैं, उनके हृदय में सृजन की असीम करुणा ही भरी रहती है, क्योंकि “सृजन की देवी काली” उनकी हृदयेश्वरी है। वे उसे सदा अपने हृदय में स्थान दिए रहते हैं। आवश्यकता पड़ने पर वह मूर्तिमान गतिशील एवं प्रखर हो उठती है। ध्वंस के अवसर पर तो उसकी आवश्यकता और भी अधिक हो जाती है।
ऑपरेशन के समय डॉक्टर को चाकू, कैंची, आरी, सुई आदि तेज धार वाले शस्त्रों की जरूरत तो पड़ती है लेकिन उससे भी अधिक ज़रुरत ज़ख्म को सीने के लिए (Stitches) मरहम पट्टी करने वाली सामग्री भी जुटानी पड़ती है। ऑपरेशन के समय जो घाव हो जाता है उसको भरने की आवश्यकता डॉक्टर लोग अच्छी तरह समझते हैं और इसीलिए वे रूई, गौज, मरहम, दवाएँ आदि भी बड़ी मात्रा में पास रख लेते हैं । ध्वंस की प्रक्रिया ऑपरेशन है तो निर्माण मरहम पट्टी है। भगवान को विवश होकर ध्वंस तो करना पड़ता है लेकिन इसके पीछे मूल आकांक्षा सृजन की ही रहती है। अक्सर देखा गया है कि माँ बच्चे के सृजन के लिए,विकास के लिए दिल पर पत्थर रख कर डांटती भी है,कई बात पिटाई भी करती है। भला अपने दिल के टुकड़े के साथ माँ इतनी निर्दई कैसे हो सकती है ?
गुरुदेव की शिक्षा बता रही है कि अनेकों बार क्रूर-कर्म करने वाले के अंतःकरण में अनंत करुणा छिपी रहती है।
महाकाल की आंतरिक इच्छा तो सृजन की ही है। शक्ति को शिव के हृदय के स्थान पर इस प्रकार दिखाया गया है मानो वह हृदय में से ही निकलकर मूर्तिमान हो रही हो ।
यहाँ यह भी देखने की बात है कि विनाश के बाद होने वाले पुनर्निर्माण में मातृशक्ति का ही हाथ प्रमुख रहता है। जब पिता बच्चे को डांटते हैं तो बच्चा माँ के पास ही दौड़कर,उसके पास जाता है और वही उसे अपने आँचल में छिपाती, छाती से लगाती, पुचकारती और दुलारती है। मात्रशक्ति करुणा की मूर्त है।
यही कारण है कि अस्पतालों में नर्स का कार्य, बाल मंदिरों और शिशु सदनों में शिक्षण का कार्य पुरुषों की अपेक्षा महिलाएँ अधिक अच्छी तरह से करती हैं, क्योंकि महिलाओं के अंदर करुणा, दया, ममता, सेवा, सौजन्य और सहृदयता का बाहुल्य रहता है। पुरुष प्राकृतिक रूप से कठोर होता है और नारी कोमल। शिव की छाती पर शक्ति के खड़े होने का एक तात्पर्य यह भी है कि आत्मिक श्रेष्ठता की कसौटी पर कसे जाने पर नारी की गरिमा ही भारी बैठती है वही ऊपर रहती है।
आज के समय में नारी और पुरुष की Unbiased होकर तुलना करना बहुत ही Controversial विषय हो सकता है इसलिए उचित रहेगा कि गुरुदेव और पंडित जी के बीच हुए संवाद से कुछ सार्थक शिक्षा ग्रहण करके अपने जीवन को उत्कृष्ट बनाया जाए ।
सोमवार को गुरुदेव द्वारा पंडित जी को लगाए गए इंजेक्शनों की बात करेंगें।
जय गुरुदेव

