वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

पूज्यवर ने पंडित जी को कहा “जागरण तो सार्थक तब होता यदि अज्ञानी भक्त अविवेक और अज्ञान की नींद से जग उठता”-लेख शृंखला का 17वां लेख 

पिछले कुछ दिनों से ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से परम पूज्य गुरुदेव के अति समर्पित शिष्य पंडित लीलापत शर्मा जी की अद्भुत रचना “ युगऋषि का अध्यात्म-युगऋषि की वाणी में” को आधार बना कर लेख लिखने का प्रयास किया जा रहा है। सभी साथिओं का धन्यवाद् करते है जो दूर देशों में होते हुए भी अपने कमैंट्स और काउंटर कमैंट्स से इन लेखों को “एक ऑनलाइन सत्संग” बना रहे हैं। आज की वर्तमान स्थितिओं में यदि इन लेखों को ध्यान से पढ़कर, आत्मसात करते हुए हमारे व्यक्तित्व में निखार आता है तो समझ लेना चाहिए कि बहुत कुछ प्राप्त हो गया है। 

आज का लेख समाज में बहुप्रचलित माता के जागरण,माता की चौकी पर कुछ प्रारंभिक शिक्षा प्रदान कर रहा है, कल इसी शिक्षा को आगे बढ़ाने का प्रयास रहेगा। 

आइए, विश्वशांति की कामना करते हुए आज के लेख की चर्चा करें : 

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

अर्थात शान्ति: कीजिये प्रभु ! त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में,अन्तरिक्ष में, अग्नि – पवन में, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन में,सकल विश्व में अवचेतन में,शान्ति राष्ट्र-निर्माण और सृजन में,  नगर , ग्राम और भवन में प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण – कण में, शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए   

***************         

आज पूज्यवर हमारे कुछ पूछने से पहले ही स्वयं कुछ कहने को तैयार बैठे थे। हम प्रणाम करके आसन पर बैठे ही थे कि गुरुदेव बोले:

तुमने कई देवी-देवताओं की उपासना, साधना के विषय में पूछा लेकिन तुम्हें मालूम है कि इक्कीसवीं सदी नारी प्रधान होगी। इस सदी में नारियों का वर्चस्व बढ़ेगा। विश्व का संचालन नारियों के हाथ में होगा। ईश्वर ने पुरुषों को विश्व की बागडोर थमाकर हजारों सालों में देख लिया है कि पुरुष अपनी कठोरता, निष्ठुरता और बर्बरता की प्रवृत्ति के कारण विश्व वसुंधरा को सुशोभित करने में असफल ही सिद्ध हुआ है। महाकाल अब नारियों की मृदुता, ममता, दया, शालीनता और कोमलता को युग संचालन का कार्यभार सौंपने का मन बना चुके हैं। आज हम तुम्हें वर्तमान में सर्वाधिक प्रचलित माँ दुर्गा की पूजा का तत्त्वदर्शन बताना चाहते हैं।

आज सबको दुर्गा शक्ति के तत्वदर्शन को समझना ही चाहिए। विश्व को अब दुर्गा शक्ति की सर्वाधिक आवश्यकता है। माँ दुर्गा संघशक्ति (Cooperation) का प्रतीक है। वैसे तो स्त्री एवं पुरुष दोनों ही  समाज के महत्वपूर्ण अंग हैं, तुलना करने का कोई औचित्य तो है नहीं लेकिन अक्सर देखा गया है कि  पुरषों की तुलना में नारियां अधिक इक्क्ठे होकर कार्य करती हैं, परिवारों को जोड़ने में उनका बड़ा योगदान होता है। 

पुराणों में वर्णन आता है कि एक समय शुंभ-निशुंभ,महिषासुर आदि असुरों के अत्याचारों से पृथ्वी पर धर्म की जड़ें हिलने लगीं थीं। जब यह मांसाहारी, मदिरापानी, व्यभिचारी, लुटेरे और हत्यारे असुर, देव पुरुषों को नाना प्रकार के दुःख देने लगे तो देवताओं ने ब्रह्माजी की सलाह पर “अपनी बिखरी हुई शक्तियों” को संचित किया। दैवीय शक्तियों की वह संगठित शक्ति दुर्गा, काली,चंडी अथवा अंबिका नामों से प्रसिद्ध हुई। उस संगठित शक्ति ने असुरों को मारा और दैवीय तत्त्वों की रक्षा की, तभी से माँ काली देवी की पूजा होने लगी।

संगठित शक्तियों से मिली शिक्षा:  

परमात्मा की शक्तियों ने संगठित होकर दुर्गा के रूप में अवतरित होकर संसार को यह शिक्षा दी कि हम देव स्वभाव के व्यक्ति यदि अधर्मी असुरों के मुकाबले में अपनी सज्जनता और धर्म धारणा के कारण कमजोर पड़ते हैं तो संगठित होकर अपनी संगठन की शक्ति का उपयोग करें। ऐसा करने से हम निश्चय ही बड़े से बड़े असुरों को भूमिसात कर सकते हैं। आज इसी दुर्गा शक्ति के जागरण की आवश्यकता है। 

घर-घर,गली-गली,मोहल्ले-मोहल्ले में बड़े-बड़े बैनर लगाकर, दुर्गा जागरण संपन्न कराए जाते रहे हैं, आज भी कराए जा रहे हैं। क्या इन भव्य आयोजनों से मनुष्य के अंदर दुर्गा शक्ति का जागरण हो सका ? माँ दुर्गा माता ने तो असुरों का संहार किया था। क्या हमने आलस्य रुपी महिषासुर,असंयम रुपी मधुकैटभ एवं लोभ-मोह रुपी शुंभ-निशुंभ के विरुद्ध संगठित होकर संघर्ष करने  का प्रयास किया है?

यदि भक्तों ने अपने अंदर दुर्गा माता को अर्थात आत्म शक्ति को जगाकर व्यक्तिगत जीवन में व्याप्त कुरीतिओं का दमन करने का थोड़ा सा भी प्रयास किया होता, लौकिक जगत में अज्ञान, अन्याय और अभाव के रूप में व्याप्त इन तीन असुरों को परास्त किया होता तो शोरशराबे के इन आयोजनों का उद्देश्य सार्थक हो जाता। 

परम पूज्य गुरुदेव कह रहे हैं कि आज का मनुष्य  दुर्गा पूजा और दुर्गा जागरण के नाम पर क्या कर रहा है,सब जानते ही हैं। सारी रात हाई वॉल्यूम पर सिनेमा के गीतों की तर्ज पर चापलूसी और खुशामद भरे, अपनी दीनता/हीनता प्रदर्शित करने वाले गीतों को नाच-नाच कर गाया जा रहा है।आयोजक सोचते हैं कि माँ उनकी चापलूसी से प्रसन्न हो जाएगी, उन्होंने माँ को अपना नौकर समझ रखा है जो सभी (होनी/अनहोनी) मनोकामनाओं को पूरा कर देगी। सारी रात खूब भजन किया,नारियल चढ़ाया,पैसा चढ़ाया, घर/मोहल्ले वालों की नींद ख़राब की।  

क्या जागरण का यही अर्थ है ? जागरण तो सार्थक तब होता यदि अज्ञानी भक्त अविवेक और अज्ञान की नींद से जग उठता  

परम पूज्य गुरुदेव की समस्त शिक्षा अनीति, अत्याचार,कुरीतियों, रूढ़ियों और दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए ही केंद्रित है। हमारे गुरु ने हमारे लिए सभी कार्य इतने सरल कर दिए हैं,पहले ही Blue print बनाकर छोड़ गए हैं, अब कोई भी बहाना नहीं चलने वाला, समयदान,श्रमदान करना ही होगा। शताब्दी वर्ष इसी संकल्प की मांग कर रहा है। जिस भी कुरीति उन्मूलन में आपकी प्रतिभा हो उस दिशा में कदम उठाना ही समझदारी होगी। 

हमारी आदरणीय बहिन कुसुम त्रिपाठी जी के नशा मुक्ति आयोजनों से हम सब भलीभांति परिचित हैं।  

मानव के अंदर सोई हुई आत्म शक्ति को जगाना ही सही मायनों में जागरण हैं। 

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के एक-एक साथी का परम कर्तव्य है कि हमारे गुरुदेव द्वारा इतने सरल शब्दों में बताया जा रहा जागरण का सही अर्थ स्वयं समझा जाए,आत्मसात किया जाए, स्वयं Try and test किया जाए और यदि सतपरिणाम मिलें तो Certify करके उसकी विज्ञापनबाजी की जाए। वैसे तो इस मंच पर कभी भी ओछी Advertisement को बढ़ावा नहीं दिया गया है लेकिन यदि हमारे साथी स्वयं Try-Test-Ceritification (TTC) की प्रक्रिया का विज्ञापन करते हैं तो परिवार में बहुत बड़ा योगदान होगा। हमारी आदरणीय बहिन वंदना जी ने कल वाले ज्ञानप्रसाद में Misconceptions clear होने वाली बात को लिख कर हमारा जो  उत्साहवर्धन किया है उसके लिए हम उनका हृदय से धन्यवाद् करते हैं। हमारे साथ जुड़े सभी साथी जानते हैं कि दिव्य गुरु साहित्य का यथासंभव विश्लेषण करना,समझना,ह्रदय में उतारना  ही इन ज्ञानप्रसाद लेखों का मुख्य उद्देश्य है।     

गुरुदेव पंडित जी को बता रहे हैं कि माँ दुर्गा के जागरण अवश्य किये जाएँ लेकिन उद्देश्यों को सामने रखते हुए, सज्जनों और देव आत्माओं को एकत्र किया जाए, संसार में व्याप्त अनीति,अत्याचारों से व्यथित मानवता, दुष्प्रवृत्तियों, रूढ़ियों एवं कुरीतियों से सताई मानसिकता एवं अज्ञान अंधकार से ग्रसित मानव जाति के कष्टों की चर्चा की जाए। इन कुरीतिओं से समाज को मुक्त कराने के लिए संगठित (माँ दुर्गा की संघ शक्ति) होकर प्रयास करने का संकल्प लिया जाए। कायरों की भाँति जीने की अपेक्षा वीरों की भाँति मरना अच्छा है। जहाँ धर्म हमें दया, सज्जनता, सहिष्णुता, स्नेह की शिक्षा देता है वहीं माँ दुर्गा का संलग्न चित्र आसुरी शक्तियों का संहार करने के लिए, संगठन की शक्ति द्वारा अत्याचारों के विरुद्ध संघर्ष की शिक्षा भी देता है। 

मानव जब स्वार्थ में अंधा होकर नर-पशु की तरह, नर-पिशाच की तरह आचरण करने लगता है तो उसे हर कीमत पर सुधारना आवश्यक हो जाता है। लोकमानस को संतुलित रखने के लिए, जन साधारण को नीति और धर्म की मर्यादा का स्मरण कराने के लिए, धर्म की स्थापना करने के लिए ही परम पूज्य गुरुदेव जैसे मार्गदर्शक देवदूतों का इस धरती पर अवतरण होता है। 

कल वाले लेख पर कमेंट करते हुए आदरणीय सुमनलता जी एवं संध्या जी ने लिखा था कि  गुरुदेव से पहले जुड़े होते तो हमारा विचार चिंतन कितना बदल गया होता। दोनों बहिनों को रिप्लाई देते हुए हमने बाइबिल को Quote  करते लिखा था कि Everything happens at  a specific time, उसी को Extend करते लिखना उचित लग रहा है कि Everything happens for a specific reason. गुरुदेव का अवतरण किसी विशेष उद्देश्य के लिए ही हुआ है।    

गुरुदेव आगे बता रहे हैं कि जब तक देवदूतों के  प्रयासों से काम बनता रहता है तब तक परमात्मा कठोरता नहीं बरतते लेकिन जब स्थिति बेकाबू हो जाती है और सीधी अँगुली से घी नहीं निकलता तो अँगुली टेढ़ी करने का प्रयोजन पूर्ण करना होता है। ऐसी स्थिति  में आसुरी शक्तिओं को उचित शिक्षा देने के लिए भयानक, निर्दयता से भरे निर्मम कदम उठाने पड़ते हैं। यह कदम कुछ ऐसे होते हैं जिनके उठाने से दसों दिशाओं में हाहाकार मच जाता है और अवांछनीय, अनुपयुक्त और अशुभ सब कुछ जलकर नष्ट हो जाता है। इस प्रकार की क्रांति  में गेहूँ के साथ घुन भी पिसता है। जो निर्दोष दिखते  हैं वे भी चपेट में आ जाते हैं लेकिन सही मायनों में देखा जाए तो वोह निर्दोष केवल दिखते  ही हैं, होते नहीं।यहाँ पर ऐसा कहना इसलिए उचित प्रतीत हो रहा है कि अपराध करना पाप तो  है ही लेकिन उसे रोकने के लिए कोई प्रयत्न न करना निरपराध होने का चिन्ह नहीं है। संसार में,परिवार में त्राहि-त्राहि मची हो और हम कहें कि हमारा क्या लेना देना, हमें तो अपने काम से ही मतलब है, देखने में तो ऐसी प्रवृति बड़ी ही भोलीभाली मालूम पड़ती है लेकिन वास्तव में बड़ी ही संकीर्ण, ओछी और असामाजिक है। 

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है जो एक विशाल,विश्व्यापी  समाज का एक महत्वपूर्ण यूनिट है। उसकी अपनी प्रगति,शांति और सुरक्षा सामाजिक सुव्यवस्था पर निर्भर है। कोई विचारशील व्यक्ति यदि अपने पिछड़े और बिगड़े समाज को सुधारने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करता तो भगवान की दंडसंहिता में अनीति को देखकर आँख मूँद लेना एक  दंडनीय अपराध ही माना जाता है। सफलता और उन्नति के विषय में मनुष्य झूमता रहता है। उसका अहंकार और स्वार्थ, सुधारने और संघर्ष की दिशा में योगदान देने से  दूर रहता है तो इस विपन्नता को “महाकाल की रुद्रता” ही दूर करती है। महाकाल अपने  डंडे की चोटों से मनुष्य को उसकी भूल खोजने और सुधरने की याद दिलाती हैं  भूले हुए को रास्ते पर लाने का यह तरीका है तो बहुत ही निर्मम  लेकिन महाकाल की अमोघ शक्ति का लोहा मानना ही पड़ता है। महाकाल इन दिनों यही सब करने जा रहे हैं।

पूज्यवर यह कहकर शांत हो गए तो पंडित जी को अपनी जिज्ञासा रखने का अवसर मिला। उन्होंने पूछा, “गुरुदेव ! यह महाकाल कौन हैं  और महाकाली भगवान शंकर की छाती पर नृत्य करती है इसका क्या तात्पर्य है ?”

तो साथिओ इस जिज्ञासा भरे प्रश्न का उत्तर पाने के लिए कल के ज्ञानप्रसाद लेख की प्रतीक्षा करनी होगी एवं आज के सत्संग की यहीं पर ब्रेक होती है। 

जय गुरुदेव   


Leave a comment