4 दिसंबर 2025 का ज्ञानप्रसाद
पंडित लीलापत शर्मा जी की दिव्य रचना “युगऋषि का अध्यात्म- युगऋषि की वाणी में” पर आधरित लेख श्रृंखला का आज 16वां लेख प्रस्तुत है। मर्यादा पुरषोतम भगवान श्रीराम एवं योगेश्वर श्रीकृष्ण की शिक्षाओं पर आधारित चार लेखों की सीरीज का आज अंतिम लेख साथिओं के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हम स्वयं को अति भाग्यशाली मान रहे हैं। कल माँ दुर्गा की शक्ति को जानने का सुअवसर मिलेगा।
हमारे समेत सभी परिवारजनों का सौभाग्य है कि गुरुदेव और पंडित लीलापत शर्मा जी के बीच हो रहे दिव्य संवाद से वर्षों से जमे हुए Misconceptions को क्लियर करने का अवसर प्राप्त हो रहा है। इन लेखों की सार्थकता तभी सिद्ध हो पायेगी जब हम इन में दिए गए ज्ञान को अधिक से अधिक जानने,समझने और अपने व्यक्तिगत जीवन में उतार पाने में सफल होंगें।
आइए, विश्वशांति की कामना करते हुए आज के लेख की चर्चा करें :
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
अर्थात शान्ति: कीजिये प्रभु ! त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में,अन्तरिक्ष में, अग्नि – पवन में, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन में,सकल विश्व में अवचेतन में,शान्ति राष्ट्र-निर्माण और सृजन में, नगर , ग्राम और भवन में प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण – कण में, शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए
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भगवान कृष्ण के प्रत्येक भक्त को चाहिए कि यदि वह उनकी सच्ची उपासना करना चाहता है तो उनके द्वारा बताये मार्ग पर चलने का प्रयास करे।
हमारा कर्तव्य बनता है कि हम भटके हुए अर्जुनों को पहले प्यार से अध्यात्म का मार्ग समझाएं, फिर उन्हें युग धर्म का निर्वाह करने के लिए तैयार करें, अपने दोष दुर्गुणों को छोड़ने के लिए तैयार करें। यदि यह मार्ग असफल हो जाए तो नरक का भय, कष्ट कठिनाइयों का भय दिखाकर तैयार करें। जब यह मार्ग भी असफल हो जाए तो दोष दुर्गुणों से संघर्ष करने और उन पर विजय पाने पर प्राप्त होने वाली उपलब्धियों का लालच दिखाकर तैयार करें और जब यह मार्ग भी असफल हो जाए तो कर उसे संघर्ष के लिए तैयार करे।
भगवान कृष्ण ने सज्जनों के साथ अपनाने के लिए जो मार्ग बताए हैं, इन मार्गों के माध्यम से सत्पुरुषों का पौरुष जग ही जाता है और वे दोष दुर्गुणों से लड़ने और विजय पाने को तत्पर हो ही जाते हैं, कुरीतियों, कुप्रथाओं को दूर करने के लिए संघर्ष करने लगते हैं लेकिन दुर्योधन जैसे दुष्ट दुराचारियों के लिए यह सारे मार्ग असफल ही रहते हैं। ऐसी स्थिति में ही भगवान को महाभारत के युद्ध की घोषणा करनी पड़ती है। यद्यपि विवशतावश लिया गया युद्ध का निर्णय कोई अंतिम विकल्प नहीं है लेकिन जब आवश्यक ही हो जाए तो उससे पीछे हटना भी कायरता है।
“युद्ध से होने वाली जन-धन की हानि की तुलना में सिद्धांतों की स्थापना अधिक उपयुक्त ही प्रतीत होती है।”
बेटा! धर्म कायरों कमजोरों, बुजदिलों की जागीर नहीं है । यह तो वीरों, योद्धाओं और साहसियों की धरोहर है।अब समय आ गया है कि सामाजिक और व्यक्तिगत बुराइयों से लड़ा जाए। यदि मृत्यु के भय से मोहवश युद्ध नहीं लड़ा गया तो विश्व का सर्वनाश ही हो जाएगा। जब सारा संसार जल रहा हो तो भी क्या आप सोते ही रहेंगे? ऐसी निष्ठुरता किस काम की।
गुरुदेव पंडित जी को वही आग्रह का रहे हैं जो हम हमेशा अपने साथिओं से करते रहते हैं :
प्रत्येक मनुष्य को नियमितता से प्रतिदिन कुछ समय निकालकर साहित्य के माध्यम से सद्विचारों को घर-घर पहुँचाना ही चाहिए।
गुरुदेव कहते हैं:
मैं एक व्यक्ति नहीं, विचार हूँ। जो मेरे विचारों को जन-जन तक पहुँचाता है,वही मेरा सच्चा शिष्य है। जो मेरे विचारों की ओर ध्यान नहीं देता, मात्र यज्ञ करता है, गायत्री मंत्र जपता है, उसको मैं अपना शिष्य नहीं मानता। मेरा आशीर्वाद और गायत्री माँ की कृपा भी उन्हीं पर बरसती है जो सद्विचारों को फैलाते हैं क्योंकि गायत्री का अर्थ ही सद्विचारों को फैलाना है, यही गायत्री माता की सच्ची सेवा है, यही गायत्री का प्रचार है। मैंने अपने बच्चों से क्या-क्या आशाएँ लगाई थीं लेकिन अधिकतर बच्चे अहंकार की पूर्ति में व्यर्थ में समय बर्बाद कर रहे हैं, विलासी जीवन जी रहे हैं। यदि साहित्य के माध्यम से,मेरे विचारों को सारे विश्व में फैला दिया होता तो आज यह मिशन सौ साल आगे चल गया होता।
मेरे प्रिय बच्चो ! रावण मरने ही वाला है। गोवर्धन उठने ही वाला है। तुम लोगों को श्रेय लेना है। बस, मेरे विचारों को फैला दो। मैं सारी समस्याओं को हल कर रहा हूँ ।
यदि गायत्री परिवार के परिजन अपने अहम् की पूर्ति में ही लगे रहे तो मैं अपना कार्य दूसरों से करा लूँगा और जो श्रेय मेरे बच्चों को मिलने वाला था वह दूसरों को मिल जाएगा। अपनी भूल को सुधार लो।
पंडित जी ने गुरुदेव से पूछा कि आपने भगवान कृष्ण की उपासना का जो मर्म आज हमको समझाया है, यह तो हमने पहली बार ही सुना है। हम स्वयं को कृष्ण का भक्त समझते हैं। प्रायः मथुरा वृंदावन के मंदिरों में बड़ी श्रद्धा से भगवान कृष्ण के दर्शन करने जाते हैं। भगवान कृष्ण की सुंदर मनमोहक प्रतिमा का दर्शन कर हम स्वयं को उनका भक्त समझते हैं, तो क्या भगवान कृष्ण की मूर्ति के दर्शन करने का कोई औचित्य नहीं है? भगवान के दर्शनों के लिए इतनी बड़ी भीड़ आती है तो क्या यह सब बेकार में ही आते हैं ?
पूज्य गुरुदेव बहुत हँसे, फिर बोले:
सच में यह भीड़ तो बेकार में ही आ रही है। इन सबके मस्तिष्क में एक ही बात प्रवेश करा दी गई है कि मंदिर में भगवान के दर्शनों का बड़ा पुण्य होता है, मनुष्य की मनोकामना पूर्ण होती है,जीवन धन्य हो जाता है। लेकिन यदि ध्यान से देखा जाये तो मंदिर जाकर लोग अपने अहम की संतुष्टि करते हैं। बड़े गर्व के साथ बताते हैं कि हम मंदिर हो कर आये हैं,तीर्थ करके आये हैं आदि आदि।
लेकिन सच्चाई तो यह है कि पास से दर्शन करने के लिए, साधारण लोगों की भीड़ से अलग दर्शन के लिए, VIP दर्शन के लिए, सिफारिश लगाते हैं और इतना ही नहीं अपना कुकृत्य दूसरों को गर्व के साथ बताते भी हैं, बखान भी करते हैं। अनुशासन की सारी सीमाएँ दाव पर लगाकर, शारीरिक बल से सबको धकेलते हुए आगे जाकर VIP दर्शन करना, दर्शन करते समय जोर-जोर से घंटा बजाना,बार-बार कान पकड़ना कहाँ की भक्ति है। यह तो दिन भर के पापों के लिए क्षमा मांगना और अगले दिन पुनः पाप कर्मों में लिप्त होने की अनुमति मांगना हुआ।
पूज्यवर थोड़ा रुक कर पुनः बोले:
बेटे, दर्शन का अर्थ “देखना” नहीं, फिलॉसफी,सिद्धांत,चिंतन है। मंदिर में जाकर भगवान् के दर्शन करने का अर्थ भगवान् को देखना नहीं है। हम जिस देवता के मंदिर में जाएँ, अनुशासन में,मानवीय सिद्वान्तों का पालन करते हुए ही जाएँ,जिस देवता की प्रतिमा के सम्मुख खड़े हों,प्रतिमा के एक-एक भाग को ध्यान से देखते हुए,उसमें समाहित फिलॉसफी/ज्ञान, प्रेरणाओं का चिंतन करें, भगवान् से उस ज्ञान को अपने व्यावहारिक जीवन में उतारने की शक्ति माँगें। देवता के एक-एक शृंगार से प्राप्त हुई प्रेरणा से ऋषियों ने इन संगमरमर की प्रतिमाओं को मनुष्य के अंदर सोए देवता को जगाने के लिए बनाया है। सच्चा देवता तो मनुष्य के अंदर ही विराजमान है। मूर्ति उसी देवता का मॉडल है, नमूना है। इस मॉडल की सहायता से ही हम अंदर के देवता को जगाने में सफल होते हैं। अभ्यास करते-करते जब अंदर का देवता जग जाता है तो इस बाहर के देवता की आवश्यकता ही नहीं होती, लेकिन हम देखते हैं लोग जीवन भर मंदिरों वाले देवता के दर्शन करते रहे और अपने अंदर के देवता को नहीं जगा सके। उसका कारण यही रहा कि उन्होंने उस प्रतिमा को ही देवता समझ लिया। उस देवता की फिलॉसफी को नहीं समझा । उन्होंने दर्शन का अर्थ मात्र देखना ही समझा,फिलॉसफी नहीं। मंदिर में शोर शराबा होना,अनुशासनहीनता और चिंतन की प्रक्रिया में व्यवधान डालती है, चिंतन के लिए पूर्ण शांति एवं एकाग्रता होना अति आवश्यक है। यदि मंदिर में जाकर भी अनुशासन नहीं सीखा तो समाज में अनुशासन कैसे रहेगा ? मंदिर “संजीवनी साधना” अर्थात “जीवन जीने की कला” के केंद्र होते हैं, जन जागरण के केंद्र होते हैं । मंदिरों में ज्ञानयज्ञ के माध्यम से आनेवालों को सद्ज्ञान, सद्कर्म का प्रशिक्षण मिलना चाहिए। यदि मंदिरों में जाकर लोग समाज सेवा की प्रेरणा ग्रहण करते हैं तभी मंदिर और दर्शन की उपयोगिता है।
दुःख तो इस बात का है कि आजकल अधिकतर मंदिर व्यापारिक प्रतिष्ठान बन गए हैं। बाज़ारों के चौराहों पर जहाँ दुकान बनाई जानी चाहिए वहाँ मंदिर खोले जा रहे हैं, ताकि ग्राहकों को आने में सुविधा एवं आकर्षण रहे। जिस बेरोजगार व्यक्ति को कोई काम न मिले, वह संकट मोचन, दुःख हरण, कष्ट निवारण हनुमान का मंदिर अथवा मनोकामनेश्वर (मनोकामना पूरी करने वाला), चिंताहरण, कष्ट हरण महादेव का मंदिर खोल ले तो उसका गुजारा आसानी से चल सकता है। एक प्लाट पर कई लोग उसका मालिक बनने के लिए झगड़ा टंटा करते रहते थे। एक दमदार व्यक्ति ने जबरन उस स्थान पर महादेव जी का मंदिर बनवा दिया और नाम रख दिया “टंटेश्वर महादेव।” किसी स्थान पर नाजायज जबरन कब्जा करना हो, महादेव जी अथवा हनुमान जी का मंदिर बनवा दो, फिर उसे हटाने की हिम्मत न प्रशासन में है, न किसी राजनेता में। मैं तुम्हें यह बता रहा हूँ कि मंदिरों के प्रति जन श्रद्धा का किस प्रकार दुरुपयोग किया जा रहा है।
ऊपर दिए गए सभी उदाहरण हमारे पाठकों ने कभी न कभी अवश्य देखे होंगें।
पंडित जी ने कहा:
गुरुदेव, मंदिरों,प्रतिमाओं की फिलॉसफी बताकर आपने हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने का जो उपकार किया है, उसे हम जीवन भर भुला नहीं सकेंगे। आपने हमें जो सच्चे ज्ञान का प्रकाश दिया है, उसके लिए हम आपके आजीवन आभारी रहेंगे। यदि हम आपके संपर्क में न आए होते तो हमारा जीवन यूँ ही निरर्थक चला गया होता। हमें लग रहा है कि हमने आपकी शरण में आने में विलंब कर दिया। पहले आ गए होते तो कितना अच्छा होता ।
पूज्य गुरुदेव बोले,
“बेटा ! तू कहाँ आने को तैयार हो रहा था? तुझे तो मिल की मैनेजरी और यूनियन के अध्यक्ष पद का बड़ा घमंड था। तुझे कारों में घूमना, कोठियों में रहना, नौकर, फोन और सब सुख-सुविधाओं का आनंद आ रहा था। अब समझ आ रहा है कि उस भौतिकवादी सुख से कहीं ज्यादा आनंद इस आध्यात्मिक जीवन में है। भौतिक साधनों का सुख भी तभी सच्चा सुख पहुँचाता है, जब हमारा दृष्टिकोण आध्यात्मिक हो। परिष्कृत जीवन में ही भौतिक सुख आनंद प्रदान कराते हैं अन्यथा धन, संपत्ति आदि सुख-सुविधाएँ भार प्रतीत होने लगती हैं।
जय गुरुदेव
