3 दिसंबर 2025 का ज्ञानप्रसाद-
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के जो साथी हमसे वर्षों से जुड़े हुए हैं, ज्ञानप्रसाद लेखों से भलीभांति परिचित हैं लेकिन अनेकों ऐसे भी हैं जिन्हें इस तथ्य का ज्ञान नहीं है कि गुरुदेव के दिव्य साहित्य पर आधारित यह लेख मात्र कॉपी पेस्ट न होकर गहन रिसर्च एवं अध्ययन का काम है। प्रत्येक लेख भलीभांति समझकर,यथासंभव सरल करने के बाद ही प्रकाशित किया जाता है,कमेंट-काउंटर कमेंट करके समर्पित साथी इसे एक ऑनलाइन सत्संग का प्रारूप देने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
इसी संक्षिप्त इंट्रोडक्शन से आज के लेख का शुभारम्भ होता है।
******************
मर्यादा पुरषोतम भगवान् राम की शिक्षा को आत्मसात करने के बाद पंडित लीलापत शर्मा जी ने योगेश्वर श्रीकृष्ण जी की शिक्षा को आज के परिपेक्ष्य में जानने का आग्रह किया।
गुरुदेव बताते हैं:
बेटे,भगवान कृष्ण के अवतार का उद्देश्य धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश करना ही था।
पंडित जी ने पूछा:
धर्म की स्थापना से क्या मतलब है ? आज तो धर्म के नाम से लोग चिढ़ते हैं। संप्रदायों को ही धर्म मानते हैं। देश में धर्म के नाम पर कितने ही झगड़े हो रहे हैं। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायों को गालियाँ दे रहे हैं। भगवान कृष्ण किस धर्म की स्थापना की बात कहते हैं और आप हमसे क्या करवाना चाहते हैं ?”
पूज्य गुरुदेव बोले:
“यह सब धर्म नहीं है। वे लोग अज्ञान फैला रहे हैं। धर्म के नाम पर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। मानव जाति का एक ही धर्म है और वह धर्म है “मानव मात्र का धर्म।” यदि मनुष्य अपने कर्त्तव्यों का, दायित्वों का निर्वाह पूरी ईमानदारी,निष्ठा और लगन से करता है तो समझा जाना चाहिए कि वह मानव धर्म का पालन कर रहा है। ईश्वर ने मनुष्य को पांच ज्ञान इन्द्रियां और पांच कर्म इन्द्रियाँ देकर,अपना राजकुमार बनाकर इस धरती पर भेजा है। मनुष्य की प्रत्येक इंद्रिय का अपना धर्म है,अपनी प्रत्येक इन्द्रिय का सदुपयोग करते हुए अपने धर्म का पालन करना उसका परम कर्तव्य है। ईश्वर चाहते हैं कि मनुष्य अपने शरीर में प्रदान की गयी आँख का इस्तेमाल अपने धर्म पालन के लिए करे। आँख द्वारा समस्त प्राणियों में ईश्वर का दर्शन करे, प्रत्येक स्त्री को बहिन, बेटी और माँ की दृष्टि से देखे। आँख का धर्म, वीर शिवाजी ने निभाया था। जब सरदारों ने कन्या को शिवाजी के सामने लाकर खड़ा किया तो शिवाजी उसकी सुंदरता को देखते ही रह गए। सरदारों के पूछने पर कि आप क्या देख रहे हैं, शिवाजी ने कहा, “यह कन्या तो मुझे अपनी माँ-बहिन जैसी लग रही है।”
यह था आँख का धर्म जो शिवाजी ने निभाया।
शिवाजी महाराज के सामने कन्या प्रस्तुत करने का किस्सा उनके चरित्र-बल, स्त्री-सम्मान और धर्मनिष्ठा का अत्यंत प्रसिद्ध प्रसंग है। आइए इस ऐतिहासिक घटना को भी जान लें
एक बार शिवाजी ने दुश्मन के किले पर विजय प्राप्त की। विजय के बाद वहाँ के सरदारों ने सम्मान दिखाने के लिए एक सुंदर युवती को शिवाजी के सामने “भेंट” के रूप में पेश किया। स्त्री को भेंट(गिफ्ट) के रूप में पेश करना उस समय कई राजाओं के दरबार में एक सामान्य प्रथा थी।
कितनी नीच प्रथा थी? स्त्री को एक Commodity, चीज़ की तरह प्रयोग किया जाता था।
लेकिन शिवाजी महाराज के विचार बिल्कुल अलग थे। कन्या के आते ही शिवाजी महाराज असहज हो गए और बोले,“अरे! यह तो मेरी बेटी के समान है” उन्होंने तुरंत उस कन्या को सम्मानपूर्वक वापस उसके परिवार तक सुरक्षित पहुँचाने का आदेश दिया और जो भी वस्त्र-आभूषण दिए गए थे, वे सम्मान में वापस कर दिए।
इतिहास में इस तरह के और भी प्रसंग सामने आते हैं। एक प्रसंग में शिवजी ने कन्या को माँ कह कर कहा था कि काश! मेरी माँ इतनी खूबसूरत होती तो मैं भी इस कन्या जैसा सुंदर होता । शिवाजी ने उस कन्या में अपनी माँ का दर्शन किया।
इतिहासकार जो भी कहें,उनका सम्मान करना हमारा कर्तव्य है लेकिन मुख्य शिक्षा यही है कि मनुष्य धर्म का पालन करते हुए समझना चाहिए कि कन्या कोई “चीज़” नहीं है,उसका माँ,बेटी,बहिन समझ कर सम्मान करना ही मनुष्य-धर्म है।यही कारण है कि शिवाजी को इतिहास में स्त्री-सम्मान के आदर्श राजाओं में प्रथम स्थान दिया जाता है।
आँख के बाद गुरुदेव कान की बात करते हैं।
कान का धर्म है महापुरुषों की अमृतवाणी सुनना, दूसरों की अच्छाइयाँ सुनना। मुख का धर्म है सत्य और प्रिय बोलना,अभक्ष्य,माँस,मदिरा, तंबाकू न खाना। हाथों का धर्म है सत्कर्म करना और सेवा धर्म को अपनाना ।
मानव मात्र का धर्म है कि सभी धर्मों से बढ़कर “युगधर्म” अर्थात “समय धर्म” को समझें और उसका पालन करने में बिलकुल पीछे न रहें। समाज को दुश्चिंतन और दुर्भावनाओं की अग्नि से बचाना ही आज के युग का धर्म है। सद्विचारों और सद्भावनाओं की सेना द्वारा समाज की रक्षा करना, छोटा परिवार, वृक्षारोपण,पर्यावरण संरक्षण और जीव हत्या रोकना आज के युग का धर्म है। प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह व्यक्ति निर्माण,परिवार निर्माण,समाज निर्माण और राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान देते हुए आज के युगधर्म को स्थापित करने में सहयोग करे। यदि हम उपरोक्त Sequence को ध्यान से देखें तो गुरुदेव ने सबसे पहले व्यक्ति निर्माण की बात की है,उसके बाद परिवार निर्माण की,उसके बाद समाज निर्माण की और सबसे बाद में राष्ट्र निर्माण की बात की है। तभी तो उन्होंने “हम बदलेंगें,युग बदलेगा” का शक्तिशाली मंत्र देकर हम सबका मार्गदर्शन किया है। पूरी दुनिया को बदलने के लिए तो हम आनाकानी कर सकते हैं लेकिन स्वयं को बदलने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। एक स्थान पर गुरुदेव ने यह भी कहा है कि आप पीले कपड़े पहनो या न पहनो,गायत्री मंत्र की दो माला कम कर लो, यज्ञ/अनुष्ठान चाहे न भी करो लेकिन अपनेआप को सुधारने के लिए हमारा युग साहित्य पढ़कर, स्वयं समझ कर, औरों को समझा लें तो बहुत बड़ी बात है।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच पर इसी शिक्षा का यथासंभव प्रयास किया जा रहा है।
भगवान कृष्ण इसी युगधर्म की बात कहते हैं। युगधर्म के रूप में अर्जुन को युद्ध करने की प्रेरणा देते हैं। भगवान कहते हैं कि तू लड़,जब तक सौ कौरवों को नहीं मारेगा, तेरा उद्धार नहीं होगा। अर्जुन कहता है कि मैं इनसे लड़ना नहीं चाहता, ये मेरे रिश्तेदार हैं, इनसे कैसे लड़ें?
हम में से शायद ही कोई पाठक होगा जी भगवान् कृष्ण-अर्जुन के बीच हो रहे दिव्य संवाद से परिचित न होगा। इन पंक्तियों के तुच्छ लेखक ने तो न जाने कितनी ही बार बी आर चोपड़ा जी के मेगासीरियल “महाभारत” का यह वाला एपिसोड देखा होगा।
गुरुदेव और पंडित जी के बीच हो रहे वर्तमान संवाद में 100 कौरवों को मनुष्य में व्याप्त सौ बुराइयाँ और पांच पांडवों को पाँच अच्छाइयाँ बताया गया है। कौरव का अर्थ है 100 कुविचार और पांडव का अर्थ है 5 सद्विचार। सौ कौरवों को पराजित करने के लिए पाँच पांडव ही काफी हैं लेकिन इन विपरीत प्रवृतियों के बीच युद्ध होना अति आवश्यक है, तभी धर्म की स्थापना होगी।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।
इस श्लोक के अनुसार भगवान के अवतार लेने के तीन कारण हैं : (1) दुष्टों के विनाश के लिए, (2) भक्तों के उद्धार के लिए, (3) धर्म की स्थापना के लिए।
“संभवामि युगे-युगे” शीर्षक वाली गुरुदेव की पुस्तक में वर्णन आता है कि मनुष्य के भीतर दिव्य और आसुरी दोनों ही वृत्तियाँ काम करती रहती हैं। दैत्य अपनेआप को नीचे गिराता है। पानी का स्वभाव नीचे की तरफ गिरना है। पानी बिना किसी प्रयास के, बिना किसी ‘उद्देश्य के नीचे की तरफ गिरता हुआ चला जाता है। इसी तरह मनुष्य की वृत्तियाँ जब बिना किसी के सिखाए और बिना किसी आकर्षण के अपनेआप ही पतन की ओर,अनाचार और दुराचार की ओर बढ़ती हुई चली जाती हैं, तब सृष्टि का संतुलन बिगड़ जाता है। व्यक्ति और समाज के भीतर भी का संतुलन बिगड़ जाता है। ऐसी स्थिति में यदि समाज में सफाई की प्रक्रिया न चलाई जाए, कमरे में झाडू न लगाया जाए तो कूड़ा भरता ही चला जाएगा। दाँत पर मंजन न किया जाए तो कीड़े मकोड़ों को पनपने का स्थान मिल जायेगा। शरीर को स्नान न कराया जाये तो उस पर मैल जमता चला जाएगा,कपड़े को धोया न जाए तो मैला होता चला जाएगा और एक दिन फट कर बेकार हो जायेगा।
जब तक पांडव (सत्प्रवृतिओं) कौरवों (दुष्प्रवृतिओं) से नहीं लड़ेंगे,उनका नाश नहीं करेंगें,तब तक मानव को शांति नहीं मिल सकती, मानव धर्म की स्थापना हो ही नहीं सकती।
भगवान् कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि इन बुराइयों से लड़े बिना तेरा उद्धार नहीं हो सकता। तू चाहे जितनी भी माला घुमाता रह, यज्ञ, जप, तीर्थ करता रह, ये बुराइयाँ तुझे चैन नहीं लेने देंगीं ।
अर्जुन ने कहा कि इन बुराइयों से कैसे युद्ध करूँ, इनका नाश कैसे करूँ? कौरव तो मेरे रिश्तेदार हैं, रिश्तेदारों के बिना मुझे चैन कैसे मिले। यह सब रिश्तेदार मेरे अंग अवयव बन गए हैं। इनसे कैसे लडूं ? भगवान ने कहा कि अगर तू इनसे नहीं लड़ेगा तो नरक में जाएगा और यदि लड़ेगा तो इन्हें मारकर राज्य का सुख भोगेगा। अर्जुन बोला, “मैं नरक में चला जाऊँगा, मुझे राज्य नहीं चाहिए, मैं भीख माँगकर पेट भर लूँगा लेकिन इन बुराइयों से नहीं लड़ सकता क्योंकि ये सभी मेरे रिश्तेदार हैं।
अर्जुन की इस अड़ियल प्रवृति को सुनकर भी भगवान कृष्ण जैसे उच्चस्तरीय सुधारक, व्यक्तित्व निर्माणकर्त्ता निराश नहीं हुए। भगवान ने जब देखा कि सीधी अँगुली से घी नहीं निकल रहा है तो उन्होंने डाँट-फटकार का मार्ग अपनाया और अर्जुन को खरी-खोटी सुनाने लगे। भगवान् बोले: होगा तू वीर, होगा सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी, तू अपने मन में स्वयं को कितना ही बड़ा योद्धा समझता रह, लेकिन तेरे जैसा कायर, तेरे जैसा नपुंसक व्यक्ति तो इस संसार में दूसरा कोई है ही नहीं। अरे,असली वीर तो वह है जो अपने दोषदुर्गुणों पर विजय पा सके। असली धनुर्धारी तो वह है जो मनोबल,आत्मबल,सचिंतन और सद्भावनाओं के बाणों का प्रहार कर अपने अंदर समाये हुए दोष-दुर्गुण, कषाय-कल्मष जैसे असुरों का संहार कर सके, सामाजिक कुरीतियों और दुष्प्रवृत्तियों जैसी राक्षसियों का संहार कर सके ।
पूज्य गुरुदेव पंडित जी से बोले:
बेटा ! अर्जुन माने अस्थिर, डावाँडोल प्रकृति का मनुष्य । आज हर व्यक्ति अर्जुन ही दिखाई देता है। दोष दुर्गुणों से परेशान भी है, उन्हें छोड़ना भी चाहता है लेकिन अर्जुन की भाँति इन रिश्तेदारों से लड़ना भी नहीं चाहता। हमारे मिशन का उद्देश्य ऐसे लड़खड़ाते,अस्थिर बुद्धि वाले, डावाँडोल चिंतन वाले अर्जुनों को ही सही मार्ग पर लाना है। यही कारण है कि हमने अखण्ड ज्योति के प्रथम अंक के प्रथम पृष्ठ पर सुदर्शन चक्रधारी भगवान् कृष्ण का चित्र दिया था। भगवान कृष्ण का सुदर्शन चक्र अर्थात अच्छे विचार, ऊँचे सिद्धांतों का चक्र। हमने अपने मिशन को सुदर्शन चक्र बनाया है, जो श्रेष्ठ विचारों के माध्यम से कुविचारों की गर्दन काटने के काम आता है ।
साथिओ आज के लेख का यहीं पर मध्यांतर होता है,कल यहीं से आगे की शिक्षा ग्रहण करेंगें।
जय गुरुदेव
