2 दिसंबर 2025 का ज्ञानप्रसाद
पंडित लीलापत शर्मा जी की दिव्य रचना, “युगऋषि का अध्यात्म- युगऋषि की वाणी में” पर आधारित लेख श्रृंखला का आज 14वां लेख प्रस्तुत है। प्रत्येक लेख की भांति ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से प्रकाशित यह लेख भी गुरुवर के सिद्धांतों को अंतर्मन में उतारने,उन पर अमल करने के लिए प्रेरित कर रहा है।
यह लेख परम पूज्य गुरुदेव और पंडित लीलापत जी के बीच,प्रभु राम की पूजा से सम्बंधित प्रश्नोत्तरी, एक अतिरोचक और प्रैक्टिकल कंटेंट लिए हुए है।
आइए चलें गुरुकक्षा की ओर,आज के दिव्य ज्ञानप्रसाद का अमृतपान करें।
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धर्म कोई जादूगरी या बाजीगरी नहीं है। अक्सर धारणा है कि थोड़े से भोग और फूल माला से देवता प्रसन्न हो जाते हैं, धर्म के नाम पर यह जो भ्रम फैलाया जा रहा है उस भ्र्म को दूर करना ही ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का उद्देश्य होना चाहिए।
महाकाव्य रामायण तो घर-घर पढ़ी जाती है। पढ़ने वालों से यदि एक सरल सा,बेसिक प्रश्न पूछा जाये कि आप रामायण का पाठ क्यों करते हैं एवं इससे क्या लाभ होता है तो लगभग सभी का यही उत्तर होगा कि रामायण का पाठ करने से भगवान राम प्रसन्न हो जाते हैं और हमारी मनोकामनाएँ पूर्ण कर देते हैं। गुरुदेव ने अनेकों बार कहा है कि यह कोरा अंधविश्वास है,अंधभक्ति है। बिना सोचे समझे, बिना तर्क किये किसी और के निर्णय को मानकर भगवतप्राप्ति की आशा करना कितनी बड़ी मूर्खता है। अरे मूर्ख, आज विज्ञान का युग है, यथार्थवाद का युग है, प्रतक्ष्यवाद का युग है। आपके कहने पर कौन विश्वास करेगा कि रामायण का पाठ करने से मनोकामनाएं (मन की कामनाएं) पूर्ण होती हैं। मन के घोड़े तो बे-लगाम दौड़े जाते हैं,उनकी कामनाएं भी अनंत हैं तो क्या घंटा-दो घंटे रामचरितमानस का पाठ करके तू अपने लिए स्वर्ग की सीट बुक करवा रहा है, अनंत इच्छाओं की प्राप्ति का लाइसेंस प्राप्त कर रहा है ? ऐसा करके तू अपनेआप को तो मूर्ख बना सकता है लेकिन उस भगवान् को नहीं क्योंकि वह तेरा बाप है,तेरे अंतर्मन में सिंहासन पर विराजमान है,जो तूने अभी सोचा भी नहीं है,उसे वह स्वयं ही,तेरे से पहले ही जान लेता है।
यदि रामायण के पाठ से कुछ थोड़ी बहुत ही शिक्षा लेनी है,उस पाठ का प्रभाव देखना है तो इस महाकाव्य के आदर्श पात्रों के चरित्र के कुछ एक-दो सूत्र ही जीवन में उतार लिए जाएँ। हमारे ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार समेत कितने ही परिवार स्वर्गमय हो गए हैं। भगवान् राम की शिक्षा का पालन करते ही उनके राजकुमार को किसी के भी आगे हाथ फैलाने की बात ही न करनी पड़ती है क्योंकि ऐसा होते ही साधारण सा मनुष्य भी अपनेआप को भगवान् के निकट समझना अनुभव करना शुरू कर देता है।
मर्यादा पुरोषत्तम भगवान् श्रीराम अपने सभी भाईओं के साथ बड़ों का चरण स्पर्श करते थे । सीता माता सासुओं के चरण छूती थीं। राम ने भरत के लिए राजगद्दी छोड़कर वनवास स्वीकार किया। उधर भरत ने राजगद्दी न लेने का निश्चय किया और राम से राजगद्दी सँभालने का आग्रह किया। राम और भरत के बीच सहर्ष राजगद्दी को फुटबॉल बना दिया गया।
यह सभी बातें हम वर्षों से गाँव/नगर की स्टेज पर होने वाली रामलीला में देखते आ रहे हैं,टीवी पर रामानंद सागर का बहुचर्चित मेगासीरियल आज भी बहुत रोचक समझा जाता है लेकिन इन सभी पुरषार्थों में मनोरंजन और शिक्षा का कितना भाग है, एक मिलियन डॉलर प्रश्न है। समझदारी तो यही होगी कि अगर आज तक किसी ने हमें इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढने के लिए प्रेरित एवं प्रोत्साहित नहीं किया,तो अभी भी कोई देर नहीं हुई है, आज से ही भगवान राम, भगवान् कृष्ण एवं ईश्वर को समझना शुरू कर दें तो गुरुदेव का “धरती पर स्वर्ग के अवतरण” का सपना सफल होने में बड़ा योगदान होगा।
नहीं तो अपनी असफलता का ठीकरा दूसरों पर फोड़ते हुए यही कहेंगें कि आजकल भारतमाता ने महामानवों को जन्म देना ही बंद कर दिया है।
गुरुदेव पंडित जी को बता रहे हैं कि बहुत पहले भारत में एक चीनी यात्री आया, उसने कुछ समय इस पावन धरती पर बिताया।अपनी यात्रा संस्मरण में उसने लिखा कि उसने भारत के एक गाँव में जो लड़ाई देखी वह अन्य किसी देश में देखने को नहीं मिल सकती है। उस लड़ाई का वर्णन निम्नलिखित शब्दों में देना उचित रहेगा :
एक गरीब व्यक्ति ने गरीबी से तंग आकर अपना खंडहर सा घर एक सेठ को बेच दिया। सेठ ने उसे तुड़वाकर Renovate करवाने का काम प्रारंभ कराया तो उसमें बहुत सा गढ़ा हुआ धन निकला। सेठ वह धन लेकर मकान के पहले मालिक के पास पहुँचा और बोला यह धन आपका है, इसे आप लीजिए। उस व्यक्ति ने कहा कि मैंने वह मकान आपको बेच दिया उसमें से कुछ भी निकले वह सब आपका ही है, आप ही इसे रखिए। मेरा होता तो मुझे पहले ही मिल जाता और मुझे अपना घर बेचना न पड़ता। इस बात के लेकर बहस छिड़ पड़ी और दोनों में झगड़ा हो गया।
“चीनी यात्री ने लिखा है कि ऐसी ईमानदारी भारत के अलावा अन्यन्त्र कहीं देखने को नहीं मिल सकती।”
कोई समय था कि इस देश में ऐसे संस्कारवान लोग, जो कभी इस देश में रहते थे, आज कहाँ चले गए।
गुरुदेव कहते हैं: भगवान राम की कथा का केवल पाठ करने का कोई फल होता है, इससे सभी धर्माचार्यों को स्पष्ट इंकार कर देना चाहिए और जन-जन में रामायण के चरित्रों को अपने जीवन का अंग बनाने की प्रेरणा भरनी चाहिए। यदि ऐसा किया गया तो यह देश फिर से धर्म के क्षेत्र में विश्वगुरु का स्थान पा सकेगा।
शबरी जैसी प्रतिभा और योग्यता से हीन महिला भी सेवा और सहृदयता के गुणों से संपन्न होने के कारण भगवान राम के सान्निध्य और कृपा की अधिकारी बनी। नदी स्नान को जाने वाले ऋषियों और विद्यार्थियों के पैर में काँटे लगते थे, अतः नित्यप्रति प्रातः उठकर रास्ता साफ करती थी। समाज की सेवा ही सच्चा धर्म है,इसी शिक्षा को अपनाकर शबरी ने भगवान का आशीर्वाद प्राप्त किया।
आजकल हम लोग भजन-पूजन तो खूब कर लेते हैं लेकिन जब सेवा (श्रम) की बात आती है तो मुँह मोड़ लेते हैं। समाज की सेवा ही भगवान राम की सच्ची सेवा है।
परम पूज्य गुरुदेव के संरक्षण में दिनोदिन प्रगति की ओर आगे बढ़ता गायत्री परिवार ऐसे श्रमदानी, समयदानिओं से भरा पड़ा है, हमारे ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार की ही समर्पित साथी आदरणीय पुष्पा सिंह जी ने वैरागी द्वीप में हो रहे महाश्रमदान में समयदान करके इस परिवार का नाम रोशन किया है जिसके लिए बहिन जी बधाई की पात्र हैं।
बूढ़ा जटायु पेड़ पर बैठा था, उसने आकाश में देखा कि रावण माँ सीता का अपहरण करके ले जा रहा था। सीता माता रोती चिल्लाती जा रही थीं। जटायु ने रावण को ललकारा, बोला- तू कितना ही बलवान क्यों न हो, मेरे जीते जी तू किसी की बहिन-बेटी को इस तरह नहीं ले जा सकता। समाज की बहिन-बेटी मेरी अपनी बहिन-बेटी है। जटायु ने रावण पर हमला कर दिया। जटायु जानता था कि मैं रावण से जीत नहीं पाउँगा लेकिन उसने हिम्मत की और रावण से युद्ध किया, घायल होकर धरती पर गिर पड़ा और कराह रहा था । सीता माता को ढूँढ़ते-ढूढ़ते भगवान राम आए, उन्होंने जटायु को देखा, उसे अपनी गोद में रखा और आँसुओं से स्नान कराया।
धर्म के शाश्वत सिद्धांतों के प्रति जटायु की कितनी गहरी निष्ठा थी। उसने अपने प्राणों की बलि देकर भी उन सिद्धांतों की रक्षा की, तो क्या वह घाटे में रहा ? बिलकुल नहीं, उसे भगवान के दर्शन मिले, उनकी गोद मिली, प्यार मिला, भगवान राम के हाथों से उसका दाह-संस्कार हुआ।
दाह संस्कार का जो सौभाग्य जटायु को मिला वोह तो भगवान राम के पिता दशरथ को भी नहीं मिला। यूँ तो संसार में कितने ही गिद्ध पैदा होते रहे हैं लेकिन जटायु का नाम इतिहास में प्रसिद्ध है। रामायण में उसके सौभाग्य को सभी सराहते हैं । उसके त्याग बलिदान के यश की गाथा तब तक गाती रही जाएगी जब तक सूरज चाँद रहेगा।
राष्ट्र,धर्म,संस्कृति के प्रति हमें निष्ठावान होना चाहिए, यह शिक्षा हमें रामकथा से ही मिलती है। हम रामायण का पाठ तो करते हैं लेकिन इस महाग्रन्थ के सिद्धांतों और आदर्शों के प्रति अनजान बने रहते हैं यां ऐसा कहें कि अनजान रहने का बहाना बनाते रहते हैं। ऐसा कहना इसलिए अनुचित नहीं लग रहा क्योंकि मनुष्य इतना स्वार्थी बन चुका है कि उसे राष्ट्र,धर्म संस्कृति आदि की परवाह तो दूर की बात, अपनों की भी कोई चिंता नहीं है। इस Self-centered, स्वार्थी वातावरण में उसे केवल स्वयं की ही चिंता है और किसी की नहीं।
आज के मानव की यही सबसे बड़ी दुर्बुद्धि है।
धर्म का अर्थ दर्शन करना, प्रसाद चढ़ाना, भजन और कथा सुनना नहीं है। धर्म का अर्थ है – कर्त्तव्यपरायणता। अपने प्रति, परिवार के प्रति, समाज के प्रति, राष्ट्र के प्रति अपने दायित्वों को निभाना ही धर्म है।
रामायण के आदर्श पात्रों ने अपने-अपने धर्म का पालन करके उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। गायत्री परिवार का एवं हमारे इस छोटे से परिवार का मुख्य उद्देश्य धर्म के नाम पर फैले भ्रम को, धर्म में आई विकृतिओं को दूर करना है। आज धर्म के नाम पर जो अरबों-खरबों रुपया बरबाद किया जा रहा है, समाज को उससे तनिक भी लाभ होने वाला नहीं है। प्रतिवर्ष देश भर में हजारों स्थानों पर रामलीलाएं होती हैं। एक प्रसिद्ध शहर की रामलीला में राम की बारात और जनकपुरी की सजावट में डेढ़ करोड़ रुपया खर्च हुआ। गुरुदेव की व्यथा उनके शब्दों में साफ़ दिख रही है जा उन्होंने पंडित जी को कहा कि कितना अच्छा होता कि भगवान् राम के आदर्श अपनाने के लिए 100 व्यक्ति भी इतने पैसे से तैयार हो जाते। पंडित जी ने पूज्य गुरुदेव के कष्ट को अपने हृदय में अनुभव किया और निश्चय किया कि हम पूज्यवर के उन विचारों को परिजनों तक अवश्य पहुँचाएँगे।
उन्होंने संकल्प लिया कि हमारे जो भाई-बहिन धर्म के रास्ते पर चलना चाहते हैं, उनसे अनुरोध करेंगे कि उन सबको दो घंटे का समय समाज सेवा के लिए लगाना ही चाहिए। आज मंदिर, धर्मशाला और भोजन ( लंगर-भंडारा) के अभाव में समाज नहीं मर रहा है, आज समाज सद्विचारों और सद्भावनाओं के अभाव में मर रहा है। समाज की सबसे बड़ी सेवा विचारों की सेवा है। पूज्य गुरुदेव के इन क्रांतिकारी, प्रभावशाली विचारों को घर-घर पहुँचाना ही आज का युगधर्म है। श्रीराम झोला पुस्तकालय और ज्ञानरथ के माध्यम से जन-जन तक यह साहित्य पहुँचाना चाहिए। प्रत्येक घर में ज्ञान मंदिर की स्थापना कराना चाहिए ताकि प्रत्येक परिवार में स्वाध्याय परंपरा चल पड़े, साहित्य के माध्यम से लोगों का दुश्चितन मिटे, सद्विचार स्थान पाएँ, आदर्शों और सिद्धांतों को क्रियात्मक स्वरूप प्राप्त हो । सिद्धांत केवल चर्चा के और कथावार्ता के विषय ही बनकर न रह जाएँ। सिद्धांतों को व्यावहारिक जीवन में अपनाने की प्रेरणा मिले, साहस और मनोबल मिले, यह आज की आवश्यकता है।
आज के लेख का यहीं पर मध्यांतर होता है, कल योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण के जीवन से इसी तरह की शिक्षा प्राप्त करेंगें।
जय गुरुदेव
