27 नवंबर 2025 का ज्ञानप्रसाद
आज का ज्ञानप्रसाद लेख का शुभारम्भ वहीँ से हो रहा है जहाँ हमने कल छोड़ा था। लेख को दो मुख्य सन्देश हैं,(क) भगवान किसी को भी लिए बिना देते नहीं हैं और (ख) आवश्यकताएँ तो सबकी पूरी हो जाती हैं लेकिन इच्छाएँ किसी की भी समाप्त नहीं होती।”
सभी जानते हैं कि वर्तमान ज्ञानप्रसाद श्रृंखला का आधार पंडित लीलापत शर्मा जी की पुस्तक “युगऋषि का अध्यात्म,युगऋषि की वाणी में” है। इस पुस्तक पर आधारित आज तक जितने भी लेख आपके समक्ष प्रस्तुत किये हैं इतने रोचक और शिक्षाप्रद है कि इन्हें बार-बार पढ़ने से भी दिल नहीं भरता।
आज शब्द सीमा की तलवार न होने के कारण साथिओं से कुछ विचार विमर्श की स्थिति बन पायी है जिसे निम्नलिखित शब्दों में वर्णन कर रहे हैं :
(क) शुक्रवार की वीडियो कक्षा में As and when required वाले विचार का पालन करते हुए कल आद अरुण जी की दिव्य वीडियो प्रकाशित करने की योजना है। भाई साहिब द्वारा रिकॉर्ड की गयी वीडियो से निकाल कर, कुछ दिन पहले प्रकाशित हुई शार्ट वीडियो को लाखों नहीं तो हज़ारों साथी देख चुके हैं। हमारा अनुभव कहता है कि बड़ी वीडियो को देखने के लिए दर्शकों के पास समय नहीं है लेकिन फिर भी कल अरुण जी की बड़ी वीडियो ही प्रकाशित करेंगें। अरुण जी को हमें ग्रीन स्क्रीन वाली बात बताई थी लेकिन वोह तो उससे भी एक कदम आगे निकल गए, उन्होंने तो रिकॉर्डिंग ही ग्रीन बैकग्राउंड में कर डाली,वाह रे वाह, कैसी है यह प्रतिभा, बधाई हो अरुण जी।
(ख) आने वाला शनिवार नवंबर माह का अंतिम शनिवार है, आदरणीय बहिन सुमनलता जी के सुझाव एवं साथिओं के समर्थन से अंतिम शनिवार,व्यक्तिगत तौर से हमारे लिए रिज़र्व किया गया था लेकिन इस शनिवार को हमारे योगदान के साथ-साथ अन्य साथिओं के भी योगदान शामिल करना का विचार है।
आइए, विश्वशांति की कामना करते हुए आज के लेख की चर्चा करें :
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
अर्थात शान्ति: कीजिये प्रभु ! त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में,अन्तरिक्ष में, अग्नि – पवन में, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन में,सकल विश्व में अवचेतन में,शान्ति राष्ट्र-निर्माण और सृजन में, नगर , ग्राम और भवन में प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण – कण में, शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए
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कल हम Rights and Responsibilities की बात कर रहे थे। वहीँ से आगे चलते हैं। हर कोई जानता है कि माता पिता की सम्पति पर बच्चों का अधिकार (Right) Automatic है लेकिन क्या उस सम्पति को संभालने के लिए मर्यादा और गरिमा (Responsibility ) की आवश्यकता नहीं होती है, क्या हम उस मर्यादा की पालना कर पाते हैं। जिन परिवारों में यह पालना की जाती है, वह परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी सफलता के शिखर को छूते जाते हैं लेकिन जहाँ इस ज़िम्मेदारी की अवहेलना की जाती है,अक्सर तहस नहस की स्थिति देखी गयी है।
हमें भी ईश्वर के राजकुमार होने के कारण अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए अपनी सारी प्रतिभा और योग्यता प्रभु कार्य में लगा देनी चाहिए। ईश्वर को कोसने से कुछ हासिल नहीं होता क्योंकि किसी को कुछ भी देने से पहले ईश्वर यह देखते हैं कि जो मुझ से माँग रहा है उसने मेरे लिए क्या किया है, इसने मुझे क्या दिया है। जिसने ईश्वर के लिए कुछ भी समर्पण नहीं किया,ईश्वर भी उसे कुछ भी नहीं दे सकते, चाहे वह उनके मित्र, सखा,माता,पिता ही क्यों न हो।
ईश्वर के इसी न्याय को हम “गुरुदेव का बोओ और काटो का सिद्धांत” मानते हैं। इसे ही Give and Take policy भी कहते हैं। बचपन में एक फिल्म देखी थी,नाम था “दस लाख”, इसका बहुचर्चित गीत “तुम एक पैसा दोगे वोह दस लाख देगा,गरीबों की सुनों।” यह गीत इसी Give and Take की बात कर रहा था। यह बात हम सब पर पूरी तरह से लागू होती है।यदि हमें गुरुवर से कुछ चाहिए तो पहले देने का संकल्प ले लें। गुरु तो सबसे सरल दान, “समयदान” की ही बात करते आ रहे हैं। इतना सा कर पाने में ही बहुत कुछ हो सकता है।
भगवान् कृष्ण के मित्र थे सुदामा। जब सुदामा भगवान् से सहायता मांगने के लिए द्वारका पहुँचे तो भगवान् ने सबसे पहले उनसे चावल की पोटली ले ली उसके बाद ही उन्हें तमाम संपदा का स्वामी बनाया। पहले भगवान को देना होता है उसके बाद ही उनसे कुछ प्राप्त होता है। कौरवों की सभा में द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था तो द्रोपदी ने अपनी लाज की रक्षा हेतु दुःखित स्वर में भगवान को पुकारा। भगवान ने पहले उसके कर्मों का खाता खोला, देखा कि क्या इसने कभी भी मर्यादा की रक्षा के लिए कपड़ा दिया है तो उन्हें एक वृतांत मिल गया। वृतांत इस प्रकार था:
एक बार एक संत नदी में स्नान कर रहे थे। उनका एकमात्र वस्त्र नदी में बह गया। लज्जावश वे पानी से बाहर नहीं आ रहे थे। द्रौपदी वहाँ पहुँची तो उसने देखा कि संत बहुत देर से नदी में खड़े हैं, बाहर नहीं निकल रहे हैं। उसने पूछा तो उन्होंने कारण बता दिया। द्रौपदी ने तुरंत अपनी साड़ी का एक भाग फाड़कर दे दिया था। इस प्रकार द्रोपदी ने मर्यादा की रक्षा की थी।
इसी तरह का एक वृतांत भगवान कृष्ण के बारे में भी बहुप्रचलित है। एक बार भगवान की अंगुली में चोट आने पर भी द्रौपदी ने अपनी साड़ी को फाड़कर भगवान् की अँगुली पर लपेट दी थी। उसके दिए हुए यह छोटे से वस्त्र भगवान के बैंक में द्रौपदी के खाते में जमा रहे, जो ब्याज सहित इतने हो गए कि दुःशासन खींचते-खींचते हार गया लेकिन साड़ी समाप्त नहीं हुई।
द्रौपदी ने संत की मर्यादा की रक्षा की तो उसकी मर्यादा की भी रक्षा हुई। द्रौपदी ने अंगुली की पीड़ा को समझा तो भगवान ने उसकी भी पीड़ा का हरण किया।
इसी Give and Take का बहुचर्चित आधुनिक सिस्टम “Time Credit system.” है अगर देखा जाये तो यह सिस्टम परम पूज्य गुरुदेव का समयदान का ही आधुनिक रूप है। इस सिस्टम में मनुष्य अपनी प्रतिभा का दान करता है और बदले में जब उसको किसी की प्रतिभा की आवश्यकता पड़ती है, वह अपनी दान की हुई प्रतिभा के बदले में उस मनुष्य की प्रतिभा का प्रयोग कर सकता है।
उदाहरण के लिए अगर आपकी प्रतिभा कंप्यूटर है तो आप कंपनी के ऑफिस में जाकर, अपनी सुविधा के अनुसार कुछ घंटे फ्री में उनके कंप्यूटर पर उनका काम कर सकते हैं। काम समाप्त होने के बाद जितने घंटे आपने काम किया,आप उनके रजिस्टर में दर्ज कर देते हैं। इसी तरह एक महीने में आप कितने ही घंटों का फ्री काम कर देते हैं। अब एक स्थिति आती है कि आप की गाड़ी ख़राब हो गयी है लेकिन आप फ्री में ठीक करवाना चाहते हैं, आप उसी ऑफिस से संपर्क करेंगें,अगर आपने उनके ऑफिस में फ्री काम करके कुछ Time Credits जमा किये हुए हैं एवं यदि उनके पास कोई मैकेनिक होगा,आप उससे फ्री में काम करवा सकते हैं।
इस तरह की बहुत सारी संस्थाएं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचलित हैं। आज का युग तो इंटरनेट युग है, कहीं भी जाये बिना आप घर से ही ऐसी सुविधा प्राप्त कर सकते, शर्त केवल एक ही है “क्या आप करना चाहते हैं?”
पूज्य गुरुदेव की ये बातें सुनकर पंडित जी को याद आया कि एक बार गुरुदेव ने कहा था कि गायत्री माता ने प्रसन्न होकर हमसे कहा था कि बेटा! मैं तेरी साधना से बहुत प्रसन्न हूँ, माँग क्या माँगता है ? गुरुदेव ने कहा कि माँ हमें तो आपने बिन मांगे ही सब कुछ दे रखा है, आप हमें आज्ञा दीजिए कि हम आपको क्या दें? आप हमें कुछ देने का सौभाग्य प्रदान करेंगी तो हम अपनेआप को धन्य समझेंगे।
निश्चय ही माँ का प्यार और उसके अनुदान-वरदान उसी को मिलते हैं जो माँ को देना जानता है। जो माँ से सदा मांगता ही रहे, उसे माँ निखट्टू कपूत समझती है।
पंडित जी बता रहे हैं कि हमने उसी दिन समझ लिया था कि यदि माँ से कुछ माँगना है तो बस यही कि “हे माँ! हमें सद्बुद्धि देना ताकि हम सत्कर्मों की ओर प्रेरित होते रहें।”
हमने गुरुदेव से पूछा:
गुरुदेव! क्या हम गायत्री माता से भोजन,धन, मकान, संपत्ति नहीं मांग सकते ?
पूज्यवर बोले:
जो माँ तुम्हें प्रेम, दया, करुणा, सहानुभूति, सहृदयता के रूप में अनेकों दिव्य गुणों की संपदा का भंडार प्रदान कर सकती है, उससे भोजन, वस्त्र, धन जैसी तुच्छ वस्तुएँ माँगकर निम्नस्तरीय भिखारी क्यों बनता है? जिस व्यक्ति में श्रम, पुरुषार्थ, योग्यता और लगन के गुण होंगे,वह स्वयं ही सब भौतिक वस्तुएं कमा सकता है। इसके लिए भगवान से याचना करना मनुष्य की गरिमा के विरुद्ध है। मनुष्य की मूल आवश्यकताएँ इतनी कम हैं कि माँ गायत्री/ईश्वर द्वारा प्रदान की गयी योग्यताओं के होते आठ घंटे काम करने वाला मनुष्य आसानी से इनकी पूर्ति कर सकता है।
गुरुदेव ने पंडित जी को एक ऐसी दिव्य शिक्षा दे दी जो आज के लेख का सार है। यदि इस शिक्षा को अंतर्मन में उतार लिया जाए,तो शायद ही कोई ऐसा पाठक हो जिसे किसी भी भौतिक वस्तु की इच्छा अनुभव हो, हर कोई यही कहेगा मेरी सारी आवश्यकताएं तो पूरी हो रही हैं।
गुरुदेव का दिव्य सन्देश “आवश्यकताएँ तो सबकी पूरी हो जाती हैं लेकिन इच्छाएँ किसी की भी समाप्त नहीं होती।” हम में से अनेकों भटके हुओं के लिए,भौतिकता के महासागर में हाथ-पाँव मार रहे साथिओं के लिए एक शक्तिशाली लाइटहाउस का कार्य कर सकता है।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के प्रत्येक साथी के लिए उपरोक्त सन्देश सबसे महत्वपूर्ण होना चाहिए, इसे गांठ बांध लेना ही समझदारी है। यदि हमने भी औरों की भांति एक कान से सुना,दूसरे से निकाल दिया तो हम में और औरों में क्या अंतर् रह जायेगा। अभी दो दिन पूर्व ही वित्तेषणा ,पुत्रेष्णा और लोकेषणा की चर्चा हुई थी, इसी मृगतृष्णा की दौड़ में मनुष्य अपना हीरे जैसा जीवन दाव पर लगाए हुए है।
हमारा सदैव प्रयास रहता है कि गुरुदेव के विचारों को सरल करते हुए यथासंभव प्रैक्टिकल बनाने का प्रयास किया जाए,इसके लिए हम भांति-भांति के प्रयास भी करते रहते हैं। उसी दिशा में आज के लेख के शीर्षक को ध्यान में रखकर अपने आस-पास नज़र दौड़ाने की आवश्यकता है,देखने की आवश्यकता है कि कौन सी वस्तु ऐसी है जिसकी हमें आवश्यकता नहीं है। अनेकों ऐसी वस्तुएं निकल आएंगीं जिनकी हमें बिल्कुल ही आवश्यकता नहीं है। जो हमारे लिए तो फिज़ूल हैं,एक्स्ट्रा हैं लेकिन किसी दूसरे के लिए लाभदायक हो सकती हैं। वैसे तो यह परिवार “जो प्राप्त है,वही पर्याप्त है” के सिद्धांत का पालन करता है लेकिन फिर भी कुछ न कुछ एक्स्ट्रा इक्क्ठा हो ही जाता है। बार-बार शेयर की जा रही शार्ट वीडियो में गुरुदेव हम से ऐसे ही दान करने को कह रहे हैं।
इन्हीं शब्दों के साथ आज के ज्ञानप्रसाद लेख का समापन होता है,सोमवार को मर्यादा पुरषोतम प्रभु राम के कुछ संस्मरण जानने का सौभाग्य प्राप्त होगा।
आशा करते हैं कि हमारे अन्य लेखों की भांति इस ज्ञानप्रसाद का अमृतपान भी आपको ऊर्जावान बनाएगा।
जय गुरुदेव
