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पंडित लीलापत जी ने गुरुदेव से पूछा, “ईश्वर दयालु और न्यायी कैसे हो सकते हैं ?” लेख श्रृंखला का 11वां लेख 

वर्तमान  ज्ञानप्रसाद लेख श्रृंखला का आधार पंडित लीलापत शर्मा जी की पुस्तक  “युगऋषि का अध्यात्म,युगऋषि की वाणी में” है। इस पुस्तक पर आधारित अभी तक  जितने भी  लेख प्रस्तुत किये गए हैं, सभी रोचक और शिक्षाप्रद होने के साथ-साथ ऐसी धारणाओं एवं अंधविश्वासों के समाधान प्रदान करा रहे हैं जो हमारे अंतःकरण में वर्षों से जमे बैठे थे। 

आज इस शृंखला का 11वां ज्ञानप्रसाद लेख प्रस्तुत है जिसमें ईश्वर के दयालु और न्यायी होने की बात की गयी है। पंडित जी ने गुरुदेव को अपना इष्ट मानते हुए बहुत ही सरल उदाहरण देकर बताया है कि उनके जीवन का लक्ष्य क्या है। 

आइए अटैच की गयी वीडियो के माध्यम से  विश्वशांति की कामना के साथ आज के लेख की चर्चा का शुभारम्भ करें : 

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पंडित जी बताते हैं कि हम पूज्य गुरुदेव की सेवा का अवसर हमेशा तलाश करते रहते थे लेकिन पूज्यवर अपना सारा काम स्वयं ही करते रहते थे। हम यही सोचते रहते थे कि कभी गुरुदेव हमें एक गिलास पानी पिलाने का आदेश दे दें तो हमारा जीवन धन्य हो जाए। 

एक बार की बात है कि किसी आयोजन में पूज्य गुरुदेव को बुखार  हो गया। गुरुदेव खाना नहीं खा रहे थे,उनकी ऐसी स्थिति देखकर हमने एक गिलास मौसम्मी का रस निकालकर गुरुदेव के सामने कर दिया। गुरुदेव ने पानी समझकर जैसे ही एक घूँट  पिया तो समझ गए कि यह जूस है। मुझ पर बहुत बिगड़े, कहने लगे, “तू मुझे जूस पिलाएगा। मेरे यहाँ मेरे बच्चे अच्छी-अच्छी नौकरियाँ छोड़कर आए हैं, उन्हें मैं रूखी-सूखी रोटियाँ खिलाता हूँ और तू मुझे मौसम्मी  का जूस पिलाएगा। पूज्य गुरुदेव ने गले में उँगली डालकर रस वापस निकाल दिया। 

बुखार होने के बावजूद  पूज्यवर ने प्रवचन किया। प्रवचन में हम उनके सामने बैठे बड़े ध्यान से उनकी अमृतवाणी का रसपान कर रहे थे। न मालूम पूज्यवर को यह कैसे मालूम हो गया और वे आज प्रवचन में हमारी ही समस्या का समाधान करने लगे कि क्या भगवान् से मांगने पर सब कुछ मिल जाता है? 

पूज्यवर ने बताया:

भगवान माँगने वालों को देते  तो हैं  लेकिन पात्रता की शर्त पूरी होने के बाद ही मिलता है। ईश्वर द्वारा स्थापित किया हुआ “कर्मफल का सिद्धांत अटल है।” ईश्वर अच्छे कर्मों का फल लाभ के रूप में और बुरे कर्मों का फल हानि के रूप में देते हैं। मनुष्य के जीवन में होने वाली कोई भी परिस्थितियाँ एकदम  ही उत्पन्न नहीं हो जातीं, वे सब पूर्व में किए गए प्रयत्नों का ही परिणाम हैं। पूर्वजन्मों के फल इस जीवन में मिल रहे हैं और इस जन्म के फल अगले जन्म में मिलेंगें लेकिन मिलेंगें ज़रूर।  

गुरुदेव ने कहा: ईश्वर दयालु  भी हैं और न्यायी भी। 

यह सुनकर पंडित जी असमंजस में पड़ गए कि कोई व्यक्ति एक साथ दयालु और न्यायी कैसे हो सकता है ? पक्षपाती होकर किसी पर दया करना तो बहुचर्चित न्याय है, यदि सही अर्थों में न्याय करना है पात्रता (Eligibility) सबसे पहले आनी चाहिए। ईश्वर न्याय करते समय दयालु तो हो जाते हैं लेकिन वह भी एक “अटल नियम” से बंधे हुए हैं। सर्वशक्तिमान होने के बावजूद ईश्वर भी सब कुछ करने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं। वह सबसे बड़े  न्यायाधीश तो हैं लेकिन उन्हें भी  यह छूट नहीं है कि वह किसी को कोई  भी दंड दे दें। ईश्वर दयालु इस दृष्टि से हैं कि जब वह देखते हैं कि कोई प्राणी अपने दुष्कर्मों के दंड स्वरूप दुःख भोग रहा है, उसने इसे भलीभाँति समझकर मन ही मन प्रायश्चित कर लिया है, अपना रास्ता दुष्कर्मों से सत्कर्मों की ओर मोड़  लिया है तो वह दयालु  होने के कारण उस प्राणी  पर अपनी कृपादृष्टि डालते  हैं  और उसके दंड को कम कर देते हैं । 

ईश्वर की दयालुता और न्याय के लिए इसी तरह का एक और उदाहरण  यह भी हो सकता हैं कि कोई  व्यक्ति अपने पूर्व-सत्कर्मों के पुरस्कार स्वरूप सुख भोग रहा है लेकिन भौतिक सुखों के नशे  में वह ईश्वर के न्याय को भूल जाता है और दुष्कर्मों की ओर मुड़ जाता है। इस स्थिति में ईश्वर ऐसे व्यक्ति के सत्कर्मों के पुरस्कार को कम करके भौतिक साधनों की प्रचुरता होते हए भी उसे कष्टमय जीवन व्यतीत करने को विवश करते हैं। ऐसा करके ईश्वर अपने न्यायशील स्वरूप का आभास कराने का प्रयास कराते हैं ताकि मनुष्य यह समझ सके कि ईश्वर न्यायी के साथ-साथ  दयालु और कठोर भी हैं। सत्कर्मी के साथ दया और दुष्कर्मी के साथ कठोरता, यह ईश्वर का स्वभाव है, यही उनकी  व्यवस्था है।

हमारा आसपास ईश्वर के न्याय के उदाहरणों से भरा पड़ा है लेकिन हम विश्वास करने को राज़ी ही नहीं होते क्योंकि यह उदाहरण  किसी और के साथ घटित हो रहे होते हैं। जैसे ही कोई घटना हमारे साथ,अपने साथ घटित होती है, हमें तुरंत गुरुदेव, मंदिर,गायत्री मन्त्र,महामृत्युंजय मन्त्र,दान-पुण्य,अनुष्ठान,मनौतियां आदि न जाने क्या-क्या कुछ याद आ जाता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य Instant fix चाहता है। जिसने कभी मंदिर का द्वार तक नहीं देखा वोह भी ईश्वर से भांति-भांति की सौदेबाज़ी करता है। स्वार्थ ही मनुष्य की सबसे बड़ी मूर्खता है। ईश्वर के साथ भी सौदेबाज़ी करता है। 

कबीर जी अपने दोहे के द्वारा सदियों से समझाते आ रहे हैं:

“दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।जो सुख में सुमिरन करे,तो दुःख काहे को होय, भावार्थ: दुःख में हर इंसान ईश्वर को याद करता है लेकिन सुख में सब ईश्वर को भूल जाते हैं। अगर सुख में भी ईश्वर को याद करो तो दुःख कभी आएगा ही नहीं।” 

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के एक-एक सदस्य का परम कर्तव्य आज के भटके हुए,अंधविश्वासी मानव को Reality  से जोड़ना है, प्रत्येक घर-घर को परम पूज्य गुरुदेव के दिव्य आलोक से रोशन करना है,अन्धकार से निकाल कर प्रकाश का मार्ग दिखाना। 

जुलाई 2022 को University of Waterloo,Canada  में आदरणीय चिन्मय पंड्या जी ने अपने 1 घंटे का उद्बोधन समाप्त किया और प्रश्नोत्तर सेक्शन में एक माँ ने अपने बेटे के बारे में, जो उनके साथ ही आया हुआ था,एक प्रश्न  किया। प्रश्न  था “ मेरा बेटा प्रतिदिन 2 माला गायत्री मन्त्र की करता है, मैं उसे और अधिक करने को कहती हूँ लेकिन वह मुझसे कहता है मैं नहीं करूंगा, इससे क्या लाभ मिलेगा।” चिन्मय जी ने इसका उत्तर देते हुए कहा था कि आज प्रतक्ष्यवाद का समय है ,इंस्टेंट का समय है, सभी को व्हाट्सप्प के  मैसेज की भांति इंस्टेंट रिप्लाई चाहिए, लेकिन ऐसा है नहीं। परम पूज्य गुरुदेव का उदाहरण कोई सदियों पुराना तो नहीं है। समय, श्रद्धा ,समर्पण,विश्वास आदि सभी साथ में मिलें तो ही परिणाम देखे जा सकते हैं। 

जिस महान विभूति पंडित लीलापत शर्मा जी का चर्चा आजकल के लेखों का विषय है, उनको समझना,अंतर्मन में ढालना ही इस दिशा का सबसे बड़ा Ingredient है। 

आइये पंडित जी और गुरुदेव के बीच चल रही अतिरोचक प्रश्नोत्तरी की ओर आगे बढ़ते हैं। 

पंडित जी स्वयं इस बात को बहुत बार कह चुके हैं कि मैं बहुत ही अड़ियल था, मुझे किसी भी बात पर आसानी से विश्वास नहीं होता था और परम पूज्य गुरुदेव को इस बात का पता था। 

पंडित जी को ईश्वर के न्याय के बारे में विश्वास दिलाने के लिए पूज्यवर ने एक उदाहरण देकर समझाया। गुरुदेव बताते हैं :

एक व्यक्ति एक संत के पास आया और बोला कि प्रभु मैंने आज मंदिर में देखा कि एक सज्जन व्यक्ति मंदिर में आया तो उसे बड़े ही ज़ोर  से ठोकर लगी और उसके पैर में चोट लग गई। थोड़ी देर में एक दुष्ट व्यक्ति मंदिर में आया और उसे मंदिर में दस हजार के नोटों का बंडल मिल गया। दुष्ट व्यक्ति नोटों का बंडल  लेकर प्रसन्नता के साथ चला गया। 

संत ने उत्तर दिया कि बेटा ! जिस सज्जन  व्यक्ति की बात तुम कर रहे हो, उसके पूर्व कर्म इतने खराब थे कि उसका पैर ही कट जाना चाहिए था लेकिन उसने अपना रास्ता बदल कर सत्कर्मों की ओर लगा दिया है, इसलिए उसका दंड केवल ठोकर से ही पूरा हो गया। जिस दुष्ट व्यक्ति की बात तुम कर रहे हो उस व्यक्ति के कर्म तो ऐसे थे कि उसे किसी राज्य का स्वामी होना चाहिए था लेकिन दुष्कर्मों की ओर प्रवृत्त होने के कारण उसे दस हजार रुपयों में ही संतोष करना पड़ा।

पंडित जी बताते हैं कि परम पूज्य गुरुदेव ने हमारे मन में उपजी शंका स्वयं प्रश्न के रूप में रखी। कहने लगे:

कुछ लोग पूछ सकते हैं कि ईश्वर का न्याय बहुत विलंब से क्यों होता है? यदि चोरी करने वाले का हाथ तुरंत कट गया होता तो लोग चोरी करना ही छोड़ देते। कुदृष्टि डालने वाले की आँखें तुरंत अंधी हो गयी होती तो लोग कुदृष्टि डालना छोड़ गए होते।

इस  शंका का समाधान करते हुए पूज्यवर बोले:

समाज की सुव्यवस्था बनाने के लिए समस्त मर्यादाएँ मनुष्य पर ही लगाई गई हैं। मनुष्य परमेश्वर का राजकुमार है,अत: उसकी गरिमा को बनाए रखने के लिए ईश्वर उसे बार-बार सुधरने, सँवरने का अवसर प्रदान करते हैं। दुष्कर्मों से बचने और सत्कर्मों की ओर प्रेरित होने के लिए मनुष्य को बुद्धि-विवेक दिया है। जब ईश्वर ने मनुष्य को  इतनी विशेषताएँ और अनुदान प्रदान किए हैं तो ईश्वर हमसे आशा भी रखते हैं कि हम उन अनुदानों का सदुपयोग करें। 

यही तो है Rights and Responsibilities की बात, अगर हम ईश्वर की विरासत (सम्पत्ति) पर हक़ जताते  हैं  तो उस सम्पत्ति की रक्षा करने के लिए  कुछ ज़िम्मेदारियाँ भी तो हैं। दुष्कर्मों का दंड तुरंत देने से ईश्वर की महान दयालुता पर कलंक लगता है। ईश्वर सद्गुणों का समुच्चय है, अतः दयालुता के सदगुण से ही वह वंचित क्यों रहे? इसी कारण मनुष्य को पुनः-पुनः सँभलने का अवसर प्रदान कर ईश्वर ने अपनी दयालुता का ही परिचय दिया है। अगर मनुष्य  यह चाहे कि हम ईश्वर के लिए कुछ न करें, ईश्वर ही हमारे लिए सब कुछ करते रहें तो  यह संभव नहीं है। बचपन से रटते आ रहे हैं, “God helps those who help themselves”

परमात्मा अपने युवराज को Thankless नहीं Thankful बनाना चाहते हैं। जब परमात्मा ने कृपा करके अनेक योनिओं से निकाल कर हमें मनुष्य जन्म दिया है तो हमें भी परमात्मा के युवराज बन कर उनकी गरिमा को पूर्ण बनाए रखने में अपनी सारी प्रतिभा और योग्यता लगा देनी चाहिए। 

ईश्वर किसी को कुछ देने से पहले यह देखते हैं कि इसने मेरे लिए क्या किया है। जिसने ईश्वर  के लिए कुछ नहीं किया,ईश्वर उसे कुछ भी नहीं दे सकते हैं,चाहे वह उनका कितना ही सगा क्यों न हो। गरीब-अमीर सब पर यही नियम  लागू होता है। ईश्वर के दरबार में  कोई सिफारिश नहीं चलती। 

पंडित जी के माध्यम से प्राप्त हो रहे ज्ञान का कल तक के लिए मध्यांतर होता है,आशा करते हैं कि आज का अति सरल ज्ञानप्रसाद भी आपके जीवन को जागृत करेगा। 

जय गुरुदेव


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