25 नवंबर 2025 का ज्ञानप्रसाद
गुरुवार के लेख का समापन निम्नलिखित पंक्तियों से हुआ था:
कुछ लोग कहते है कि हमारे इष्ट भगवान शंकर हैं, कोई कहता है हमारे इष्ट हनुमान जी हैं और कोई अपने इष्ट योगेश्वर भगवान कृष्ण को बताते हैं।
यह इष्ट क्या होता है ? क्या एक व्यक्ति का इष्ट एक ही हो सकता है यां किसी व्यक्ति के एक से अधिक इष्ट भी हो सकते हैं ?
पंडित लीलापत शर्मा जी की पुस्तक “युगऋषि का अध्यात्म,युगऋषि की वाणी में” पर आधारित आज का दिव्य लेख वर्तमान लेख श्रृंखला का 10वां लेख “इष्ट” को समझने की ओर केंद्रित है।
पंडित जी की हर रचना की तरह वर्तमान लेख श्रृंखला के जितने भी लेख प्रस्तुत किये गए हैं, सभी रोचक होने के साथ-साथ ऐसी शिक्षा प्रदान कर रहे हैं,ऐसी शंकाओं का निवारण कर रहे हैं कि हम उनके चरणों में नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सकते।
आज के लेख में साथी हमारे विचार भी पढ़ पायेंगें। हम विश्वास से कह सकते हैं कि समर्पण को दर्शाता यह लेख अति दिव्य है।
परम पूज्य गुरुदेव ने “इष्ट का अर्थ समझाते हुए, इसे जीवन का लक्ष्य” कहा है।आज का लेख इसी रोचक और जिज्ञासा से भरपूर चर्चा को लिए हुए है।
गुरुकक्षा की प्रथा का पालन करते हुए आइए विश्वशांति की कामना के साथ आज के लेख की चर्चा करें :
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
अर्थात शान्ति: कीजिये प्रभु ! त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में,अन्तरिक्ष में, अग्नि – पवन में, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन में,सकल विश्व में अवचेतन में,शान्ति राष्ट्र-निर्माण और सृजन में, नगर , ग्राम और भवन में प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण – कण में, शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए
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पूज्यवर बोले:
बेटा,लोगों ने इष्ट का गलत अर्थ समझ लिया है। लोग यह देखते हैं कि हमारे घर में किस देवता की पूजा होती है। हमारे पिताजी-माताजी किस देवता की पूजा करते हैं अथवा कौन सा देवता लोगों की अधिक से अधिक मनोकामनाएं पूरी करता है, उसी को हम अपना इष्ट बना लेते हैं। इन्हीं आधारों पर हम अपने इष्ट का निर्धारण करते हैं लेकिन ऐसा है नहीं।
“इष्ट का अर्थ है: लक्ष्य,उद्देश्य एवं मंजिल।”
हमारे जीवन का जो लक्ष्य है वही हमारा इष्ट है। हमें अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जिन गुणों की आवश्यकता होती है और वे गुण जिस देवता के हों उसी को अपना इष्ट बनाना चाहिए। वैसे तो सभी देवता सदगुणों के भण्डार हैं लेकिन हमें यह देखना होता है कि हमें अपने जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति में किस देवता के गुण सहयोग कर सकते हैं। उस देवता की उपासना से वे सद्गुण हमारे अंदर आते चले जाएंगे और हमारा लक्ष्य सधता चला जाएगा। अपने इष्ट की उपासना से, उसके सद्गुणों को अपने स्वभाव का अंग बनाने का प्रयास करना पड़ता है और जब ऐसा हो जाता है तो उपासना सफल हो जाती है, मनुष्य देवतुल्य हो जाता है, जो उपलब्धियाँ उपासना से संभव हो सकती हैं वह हमें भी मिल जाती हैं अर्थात देवत्व की प्राप्ति हो जाती है।
इस प्रक्रिया में मानव एक साधारण मानव से महामानव और फिर देवमानव बन जाता है।
अगर हम इष्ट को इच्छा कहें तो शायद ग़लत न हो। आइये देखें कैसे।
अगर हमारी इच्छा हो कि हम शिक्षा के क्षेत्र में सफल होना चाहते हैं तो माँ सरस्वती की आराधना करते हैं, विवेक की देवी माँ गायत्री की आराधना करते हैं। अगर हम बिज़नेस में सफल होना चाहते हैं तो धन की देवी माँ लक्ष्मी की पूजा करते हैं, अगर शौर्य-पराक्रम की बात आती है तो माँ काली,माँ शेरां वाली की आराधना की जाती है।
“इच्छा आधारित इष्ट” का यह Explanation केवल हमारा व्यक्तिगत है,इसमें कई तरह की Deviations भी संभव हैं।
पंडित जी बता रहे हैं कि इतना कहकर पूज्य गुरुदेव खड़े हो गए और बोले,“आज की बात समाप्त।” हमने कहा, “गुरुदेव, आपने तो हमारी आँखें खोल दी हैं। हम तो बहुत बड़े भ्रम में भटक रहे थे।”
पंडित जी हम पाठकों को बता रहे हैं कि हम सोचने लगे थे कि हमें पूज्य गुरुदेव का सान्निध्य मिला, यह ईश्वर की कोई विशेष अनुकंपा ही है। जो बातें गुरुदेव बता रहे हैं, आजकल के धर्माचार्य इन्हें कहाँ बताते हैं। वे तो व्रत, उपवास, दान, तीर्थयात्रा,दर्शन, कथा सुनने की ही बात करते हैं।”
पूज्यवर ने तो हमारे सामने धर्म और अध्यात्म के वास्तविक स्वरूप को रख दिया है। हमारी तो आँखें खुली की खुली ही रह गयी हैं। हमने उसी दिन से निश्चय कर लिया था कि अपना सारा जीवन “धर्म और अध्यात्म के इस वास्तविक स्वरूप” को जन-जन तक पहुँचाने में लगा देंगे। गुरुदेव ने हमारे मन के परिष्कार का जो कार्य किया, उसे इस मिशन की परंपरा बनाना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। हमारा चिंतन हमेशा ऐसा ही रहा है। हमें सबसे पहले अपने दिमाग को साफ करना चाहिए,फिर धर्म और परमात्मा के असली स्वरूप को समझना चाहिए और उसके बाद धर्म के बिगड़े हुए स्वरूप के कारण कीचड़ में फंसे व्यक्तियों का मानस परिष्कार करके उन्हें उस कीचड़ से बाहर निकालना होगा।
आधुनिक धर्माचार्यों का एकमात्र लक्ष्य भी यही होना चाहिए लेकिन अत्यंत खेद की बात यह है कि यह धर्माचार्य कथा सुनने की, फलश्रुतियाँ समझाकर, तीर्थ यात्राओं में धक्के खाने की बात कहकर, दान, स्तुति, स्तवन, प्रार्थना, परिक्रमा और प्रसाद चढ़ाने की फलश्रुतियाँ समझाकर जनमानस को, धर्म को तोड़-मरोड़ कर भटका रहे हैं।
बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि जिस देश के 7 लाख गाँवों में 80 लाख साधु महात्मा हों, वह देश चिंतन और चरित्र की दृष्टि से इतना पिछड़ा रहे, यह साधु संतों के लिए शर्म की बात है। इस गणित से देखा जाए तो एक गाँव के हिस्से 11-12 साधु महात्मा आने चाहिए। यह नंबर आज से कई वर्ष पुराने हैं, आज इनसे अधिक ही होंगें।
यदि साधु संतों और ब्राह्मणों ने अपने कर्तव्य का पालन ईमानदारी के साथ किया होता, समाज को कर्मफल का सिद्धांत समझाया होता, तो यह देश पुनः धर्म के क्षेत्र में विश्वगुरु, संपदा के क्षेत्र में सोने की चिड़िया और राजनीति के क्षेत्र में चक्रवर्ती बन सकता था। आज समाज के पतन की पूरी जिम्मेदारी धर्माचार्यों पर आती है। समाज के पतन का कारण धर्माचार्यों का बिगाड़ा हुआ चिंतन ही है। यदि ईमानदारी से इस वर्ग ने अपनी जिम्मेदारी निभाई होती, तो जैसा समाज आज है वैसा न होता। धर्माचार्यों को अपने बहुरूपियेपन को छोड़कर,अभिनय करना छोड़कर,लोकेषणा का तिरस्कार कर,अपने महान दायित्व को समझना चाहिए।
आगे चलने से पूर्व आइये लोकेषणा पर संक्षिप्त सी चर्चा करें :
प्रत्येक मानव प्रायः तीन प्रकार की तृष्णाओ से घिरा होता है: वित्तेषणा, पुत्रेष्णा, लोकेषणा।
वित्तेषणा का अर्थ है धन प्राप्ति की इच्छा। प्रत्येक मनुष्य अपने जीवनोपार्जन के लिए धन का अर्जन करने में लगा होता है क्योकि कामनायें अनंत है और एक पूरी होने पर दूसरी पैदा हो जाती है लेकिन संतुष्टि नहीं मिलती। अतः मनुष्य वित्तेषणा के पीछे अपना सारा जीवन बेकार कर जाता है। पुत्रेष्णा का अर्थ है पुत्र प्राप्ति की इच्छा। हर मनुष्य अपने वंश वृद्धि के लिए पुत्र (पुत्रियां?) प्राप्ति की ही इच्छा रखता है। यदि न हो तो वह अपने को अभागा मानता है और सारा जीवन इसी ग्लानि में बिता देता है। जिन्हें पुत्र प्राप्ति हो गयी है, वह वहीँ तो नहीं रुक जाते,वो सारा जीवन उसके लालन पालन और भरण पोषण की व्यवस्था में बिता देते हैं। यदि पुत्र किसी गलत आचरण में लिप्त हो गया तो जीवन आत्मग्लानि में बीत जाता है। वर्तमान युग में आधुनिकरण ने कुछ-कुछ बदल तो दिया है लेकिन अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है। लोकेषणा का अर्थ होता है समाज में, लोगों के आगे प्रसिद्धि। जब मनुष्य के पास पर्याप्त धन सम्पदा आ जाती है और उसे कुछ भी पाना शेष नहीं रहता, पुत्र/पौत्र से भी घर आनंदित हो जाता है तब उसे तीसरे प्रकार की तृष्णा अर्थात लोकेषणा ग्रसित करने के लिए आ खड़ी होती है, तब उसे प्रसिद्धि की इच्छा होने लगती है कि कैसे भी हो लोग उसे जानें। इसके लिए वह अनेक प्रकार के यत्न करता है कि कैसे भी हो उसका समाज में मान-सम्मान बढ़े। फिर वह थोड़े से सम्मान से भी गर्व का अनुभव करता है,ज़रा सी ग़लत बात से अपना घोर अपमान समझता है, उसके सम्मान को एकदम ठेस पंहुचती है।
इस प्रकार मनुष्य इन तीन तृष्णाओं में घिरा रहता है। ऐसी अवस्था में वह भगवान् से विमुख होकर अपना जीवन व्यर्थ कर बैठता है। Competition करना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन Mad rat race में ,मृगतृष्णा में, सब कुछ दाव पर लगा देना कोई समझदारी नहीं है। स्कूल टाइम से पढ़ते आये है Good, better, best लेकिन आज के युग की अंधी दौड़ को देखते हुए हमारी समझ तो यही कहती है “The Best is Never achieved” क्योंकि बेस्ट का मापदंड आगे ही आगे बढ़ता जाता है, इसी रेस में पता ही नहीं चलता कि कब जीवन के अंतिम पल दस्तक देने आ पंहुचते हैं।
आइए अब आगे चलते हैं:
प्राचीन परंपरा के अनुरूप सारा समाज साधु-वेश का सम्मान करता है, उनकी बातें ध्यान से सुनता है। समाज की इस कमज़ोरी का लाभ उठाकर धर्माचार्य अपनी जेबें भरते रहते हैं, राजा महाराजाओं जैसा विलासिता-पूर्ण जीवन जीते हैं, इससे बड़ी दुष्टता और निकृष्टता हो ही नहीं सकती। काश! उन्होंने समाज से प्राप्त सम्मान का सदुपयोग जनमानस का परिष्कार करने और स्वस्थ चिंतन,सदविवेक जाग्रत करने में किया होता तो राष्ट्र की परिस्थितियाँ बहुत सुखद होतीं। ऐसी स्थिति में धर्माचार्यों को भी लोग अब से हज़ार गुना अधिक सम्मान देते। यदि धर्माचार्यों ने अपना रास्ता नहीं बदला तो आगे आने वाली विवेकवान पीढ़ी धर्म और अध्यात्म के नाम से घृणा करेगी। वह केवल उन्हीं तथ्यों पर विश्वास करेगी जो प्रामाणिक होंगे। अब धर्माचार्यों को भारतीय संस्कृति के सिद्धांतों की प्रामाणिकता सिद्ध करनी होगी। इतिहास के उदाहरणों के साथ-साथ वर्तमान के प्रमाण देकर यह सिद्ध करना होगा कि देव संस्कृति के इन सूत्रों को जीवन में उतारने पर कोई घाटे में नहीं रहता है। ये सिद्धांत निश्चित ही मनुष्य को उत्कृष्ट जीवन की ओर ले जाते हैं तथा भौतिक सुख और आत्मिक आनंद दोनों की प्राप्ति इन्हीं से संभव है।
यदि हम भौतिक सुखों से मुख मोड़ने की बात कहते रहे तो युवा पीढ़ी हमें सुनने को तैयार ही नहीं होगी। भौतिक साधनों का वास्तविक सुख आत्मोन्नति के साथ जुड़ा है। यह युवा पीढ़ी को समझाना होगा। प्रेम, दया, करुणा, सहानुभूति, सेवा, सहायता और समानता जैसे दैवीय गुणों से संपन्न व्यक्ति ही भौतिक सुखों को भोग सकेंगे अन्यथा ईर्ष्या, द्वेष, कटुता की दुष्प्रवृत्तियाँ भौतिक सुख भोगने वालों को कष्ट पहुँचाती रहेंगी। उनके सुखों में व्यवधान डालती रहेंगी एवं सुखों का कभी भी अंत होने के भय से प्रताड़ित करती रहेंगी।
अधिकतर लोग देवस्थानों में अपने कष्ट-कठिनाइयों, समस्याओं का समाधान पाने के लिए मनौतियाँ मनाने जाते हैं। विभिन्न स्थानों में पेड़ों पर धागे बँधे होते हैं जो मनौतियाँ मनाने वालों द्वारा बाँधे गए होते हैं।
पंडित जी ने निश्चय किया कि पूज्यवर से इन अंधविश्वासों पर चर्चा करने की प्रार्थना करेंगे, कल वाले लेख में देखेंगें कि पंडित जी ने गुरुवर को अपना इष्ट कैसे मान लिया।
जय गुरुदेव
