वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गुरुदेव ने पंडित लीलापत जी को बताया “मनुष्य  जीवन केवल एक ही दिन का है।” लेख श्रृंखला का नौंवा लेख  

पंडित लीलापत शर्मा जी की दिव्य रचना “युगऋषि का अध्यात्म, युगऋषि की वाणी में” पर आधारित वर्तमान लेख श्रृंखला का आज नौंवा लेख प्रस्तुत है। 

आज के  लेख में पंडित जी गुरुदेव से उस प्रश्न का उत्तर याचना कर रहे हैं जिसने वर्षों से मनुष्य को भ्रमित किया हुआ है, “क्या धर्म अफीम की गोली है ?” मनुष्य अपने धर्म में इतना Mesmerize हुआ फिरता है  उसे अन्य किसी का धर्म के प्रति कोई सम्मान भी नहीं दिखता। धर्माचार्यों के कहने पर (बिना किसी तर्क के,बिना कुछ सोचे समझे) वह धर्म की गोली को अफीम की गोली समझ कर ग्रहण किये जा रहा है। 

गुरु-शिष्य का आज का संवाद, भोले शंकर की आराधना के उदाहरण की सहायता से,अवश्य ही इस Misconception का ढूंढ पाने में समर्थ है,ऐसा हमारा अटूट विश्वास है। 

तो बिना किसी प्रतीक्षा के ज्ञानप्रसाद की ओर लिए चलते हैं।

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पिछले लेख में परम पूज्य गुरुदेव ने पंडित लीलापत शर्मा जी को यह कहकर चुप करा दिया था कि क्या सारा ज्ञान एक दिन में ही प्राप्त कर लेगा, इस ज्ञान को साथ ही साथ पचाता भी चल, आचरण में  ढालने का प्रयास भी कर, तभी इसका लाभ मिलेगा। पंडित जी ने  सोचा कि यदि दुनिया में गुरुदेव का अवतार न हुआ होता तो ढोंगी धर्माचार्य धर्म का सत्यानाश कर देते और फिर यह कहना सत्य साबित हो जाता कि “धर्म अफीम की गोली है।”

इस वाक्य का अर्थ समझाने  के लिए परम पूज्य गुरुदेव ने 103 पन्नों की पुस्तक “क्या धर्म अफीम की गोली है ?” लिखी है। युग निर्माण योजना प्रेस तपोभूमि मथुरा द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का वर्ष 2010  का अंक ऑनलाइन उपलब्ध है। https://www.awgp.org/en/literature/book/kya_dharm_afeem_kee_golee_hai/v3.1

इस पुस्तक के प्रथम चैप्टर में ही गुरुदेव ने  लेनिन का रेफरन्स देते हुए लिखा है  कि धर्म अफीम की गोली नहीं है। 

हमारा हिन्दू धर्म क्या,विश्व के किसी भी धर्म की तुलना अफीम की गोली से नहीं की जा सकती। यह तो समय-समय पर उठ रहे राजनेता ही थे जिन्होंने धर्म को अफीम की गोली बनाकर आम जनता को दिया, जनता को Mesmerize किया,गुमराह किया। उनके अनुसार धर्म ही एक ऐसा शस्त्र है जो लोगों में अफीम की गोली जैसा प्रभाव डाल सकता  है। उसे अपने धर्म से सुपीरियर कोई और  धर्म दिखता  ही नहीं है। समाज के ठेकेदार-राजनेता,धर्मगुरु आदि अपनेआप को तब सफल मानते हैं जब धर्म के आधार पर अधिक से अधिक फूट डाली जा सके। लेकिन ऐसा है नहीं, कोई भी धर्म ग़लत शिक्षा नहीं देता। अज्ञानता के वशीभूत,बिना किसी तर्क एवं चर्चा के, अन्धविश्वास के कारण मनुष्य अपने इष्ट की,गुरु की अंधभक्ति किये जाता है, ऐसी स्थिति में उसे कुछ भी प्राप्त नहीं होता। 

इस स्थिति का समाधान करने के लिए ही ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का परम पूज्य गुरुदेव के संरक्षण में जन्म हुआ है जहाँ वैज्ञानिक आधार पर ऐसी-ऐसी चर्चाएं की जा रही हैं जिनसे अनेकों लोग अपरिचित थे, बिना किसी तर्क के,वर्षों से  लकीर पीटे जा रहे थे। परम पूज्य गुरुदेव और पंडित लीलापत शर्मा के बीच हो रहे वर्तमान  दिव्य गुरु-शिष्य संवाद में शंकाओं का यथासम्भव निवारण करने का प्रयास किया जा रहा है         

ज्ञान को पचाने वाली गुरुदेव की सलाह मान कर जब  पंडित जी ने अगले दिन शंकर भगवान की भक्ति और उपासना के बारे में समझाने का अनुरोध किया तो 

शंकर भगवान हम सबके  अंदर सोए पड़े हैं, उनको जगाने की आवश्यकता है। भगवान शंकर के बाहरी  स्वरूप से ही उनके अंदरूनी पक्ष की व्याख्या आसान होगी। भगवान शंकर की जटाओं से गंगा निकलती है, गंगा पवित्रता का प्रतीक है इसलिए मस्तिष्क में सदैव  पवित्र चिंतन, शुद्ध विचार होने चाहिए। हमें सोचना चाहिए कि मैं भगवान का पुत्र अर्थात भगवान ही  हूँ। जो कार्य भगवान ने किए, जिन सिद्धांतों का उन्होंने पालन किया, उनका ही  पालन मुझे भी करना चाहिए। यदि शेर का बच्चा शेर है तो  गुरु का बच्चा गुरु ही तो होना चाहिए।

पंडित जी कहते हैं कि गुरुदेव ने अपना समस्त जीवन समाज की सेवा में लगा दिया। उनके सिद्धांतों का पालन करना हमारा कर्तव्य है। हमें  गुरु के जीवन चरित्र को अपने जीवन में प्रवेश कराना है । जो आशाएँ हमारे गुरु ने हमसे लगा रखी हैं, उनको पूरा करना है । जो शपथ हमने ली है उसे पूरा करेंगे, ऐसा उत्कृष्ट पवित्र और शुद्ध चिंतन हमें करना चाहिए। इसी के प्रतीक के रूप में भगवान शंकर की जटाओं से गंगा अवतरित हुई  है।

भगवान शंकर के सिर पर चंद्रमा है। चंद्रमा शीतलता का प्रतीक है, शांति का प्रतीक है। इससे  हमें प्रेरणा लेनी चाहिए कि हम कभी भी  क्रोध नहीं करेंगे। दिमाग को हमेशा ठंडा रखेंगे।

सुकरात (Socrates) की पत्नी बड़ी कर्कश स्वभाव की थी। सुकरात के पास नित्य प्रति अनेकों  लोग सत्संग करने आया करते थे। एक दिन प्रात:काल कुछ विद्वानों के साथ सत्संग चल रहा था। उसकी पत्नी ने गाली देना प्रारंभ कर दिया। जब इसका कोई प्रभाव नहीं हुआ तो उसने बर्तन साफ करने के बाद बचा हुआ गंदा पानी सबके ऊपर डाल दिया। सुकरात बोले: देवी! हम तो समझते थे कि जो गरजते हैं वे बरसते नहीं हैं,लेकिन  आज तो जो गरजे हैं  वे बरसे भी हैं । यह सुनकर उनकी पत्नी बहुत शर्मिंदा हुई।

विद्वान आगंतुकों ने कहा कि महात्मन, यह स्त्री आपके लायक नहीं है। इस पर सुकरात ने कहा: नहीं ! यह स्त्री मेरे लिए ही  उपयुक्त है। यह सदैव परीक्षण करती रहती है कि सुकरात किस मिट्टी का बना है? 

हमें भगवान शंकर के चंद्रमा से यह प्रेरणा लेते रहना चाहिए कि हमें अपना मानसिक संतुलन बनाए रखना है। रोष प्रकट तो करना चाहिए लेकिन दुष्टता,अनीति, अत्याचार के ही विरुद्ध।

भगवान शंकर भस्म लगाते हैं, मुंडों की माला पहनते हैं और मरघट में रहते हैं। इससे  हमें शिक्षा लेनी चाहिए कि हम सदा अपनी मौत को याद रखेंगे। जो व्यक्ति मौत को याद रखता है, वह पाप, अत्याचार, अन्याय से युक्त गंदा जीवन नहीं जीता है। सुबह बिस्तर छोड़ने से पहले विचार करना चाहिए कि आज हमारा नया जन्म हुआ है। रात को मर जाना है, एक दिन का ही तो जीवन है, इसे गंदा,दोष, दुर्गुण से भरा,व्यसनों और दुष्प्रवृत्तियों से युक्त क्यों जिएँ।  पूरे दिन इस पर ध्यान रखें कि शरीर से, मन से कोई पाप तो नहीं हो रहा है। मन में गंदे विचार तो नहीं आ रहे हैं, भावनाएँ गंदी तो नहीं हो रही हैं, ऐसा करने पर ही हम भगवान शंकर के भक्त कहलाएँगे। रात को सोते समय विचार करना चाहिए कि अब हम मरने जा रहे हैं। दिन भर के कार्यों पर विचार करना चाहिए। ध्यान करना चाहिए कि हम आत्मस्वरूप में स्थित होकर शरीर को छोड़कर दूर बैठे हैं। हमारा मृत शरीर पड़ा है। इसे लोग श्मशान में ले गए और जला दिया। तीन मुट्ठी भस्म शेष बची। हमारा असली स्वरूप यह तीन मुट्ठी भस्म है। फिर इस शरीर से, मन से कोई पाप क्यों करें। अच्छे कार्य ही क्यों न करें ताकि हमारा जीवन सफल हो जाए। अच्छे कर्म करेंगे तो अगला जन्म  कम से कम मनुष्य का तो मिल ही जायेगा, नहीं तो तमाम निम्न योनियों में कष्ट भोगना पड़ेगा। मनुष्य शरीर मिला था, इससे हम अपना और कितनों का ही भला कर सकते थे। हजारों व्यक्तियों को दिशा दे सकते थे। यह विचार करते-करते सोना चाहिए।

इस विषय पर  अखंड ज्योति के अप्रैल 2001 के अंक में “हर दिन नया जन्म,हर दिन नई मौत- परम पूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी” शीर्षक से एक विस्तृत लेख प्रकाशित हुआ है। https://www.awgp.org/en/literature/akhandjyoti/2001/April/v2.45

पाठक इस लेख का स्वाध्याय करके प्रेरणा ले सकते हैं और स्वयं देख सकते हैं कि हर दिन नया जन्म कितना स्फूर्ति भरा होता है; ठीक उसी प्रकार जैसे एक छोटा बच्चा असीमित ऊर्जा एवं स्फूर्ति से भरा होता है।    

आजकल भगवान शंकर की पूजा का जो विधान है, उसमें भक्त भगवान शंकर पर जल चढ़ाता है। रोली, चावल, शक्कर, आक, धतूरा, बिल पत्र आदि चढ़ाता है। इससे भगवान शंकर का शरीर गंदा हो जाता है। धतूरे के काँटे और आक से भगवान शायद ही प्रसन्न होते होंगे। ज़रा आप अपने ऊपर डालकर  सोचें कि आपकी पूजा कोई इस प्रकार करे तो आपकी क्या हालत होगी। ऐसे भक्त को आप तो मारने के लिए तैयार हो जाएंगे, जब हम ऐसी पूजा से प्रसन्न नहीं होते तो भगवान कैसे प्रसन्न हो सकते हैं और कैसे आशीर्वाद दे सकते हैं। भगवान शंकर ( शिवलिंग) के ऊपर घड़े में पानी रख देते हैं और चौबीस घंटे स्नान कराते रहते हैं। यदि आपको कोई सर्दी के दिनों में ठन्डे पानी से स्न्नान कराता रहे तो आपकी क्या हालत होगी? जुकाम, खाँसी, बुखार हो जाएगा। 

भक्तों को चाहिए कि ऐसी उपासना बंद करें और शंकर भगवान के सिद्धांतों और आदर्शों को अपने व्यवहार में उतारें। जिन साथिओं को यह शिकायत रहती है कि वर्षों  से शिव उपासना कर रहे हैं, पूजा कर रहे हैं, शिव चालीसा पढ़ रहे हैं लेकिन कोई लाभ नहीं मिला, उन्हें उसके कारण को समझना चाहिए  कि भगवान शंकर की असली पूजा तभी होगी जब हम उनके गुणों को अपने अंदर धारण करेंगे। अपने चिंतन, चरित्र और स्वभाव में परिवर्तन करेंगे।

पात्रता की बात हम ज्ञानप्रसाद लेखों में कई बार कर चुके हैं,अधिक जानकारी  के लिए हमारे पाठक पूर्व-प्रकाशित लेख देख सकते हैं।

हमारी वेबसाइट  https://life2health.org/ पर 1405  लेख ( 22 नवंबर 2025 के अनुसार ) उपलब्ध हैं। पाठक सर्च विंडो में कोई भी लेख ढूंढ सकते हैं। 

साधक को अपनी पात्रता सिद्ध करना होती है। परमात्मा के अनुदान वरदान निरंतर बरस रहे हैं। जिसका जैसा पात्र (बर्तन) होगा, उसको उतनी ही उपलब्धियाँ मिलती हैं। वर्षा में बड़े बर्तन में अधिक एवं छोटे में थोड़ा पानी ही समा सकता है। जिसका पात्र उल्टा होगा यानि  जिसने धर्म का  मार्ग छोड़कर अधर्म का रास्ता अपनाया होगा, जो देव संस्कृति के सिद्धांत को उलटकर सही समझ रहा होगा, उसका पात्र खाली ही रहेगा। जो इन सिद्धांतों में आस्था रखेगा, उनके अनुसार अपने चिंतन, चरित्र और स्वभाव को विकसित करेगा, उसका पात्र अनुदानों से भरा-पूरा रहेगा।

कुछ लोग कहते है कि हमारे इष्ट भगवान शंकर हैं, कोई कहता है हमारा इष्ट हनुमान जी हैं और कोई अपना इष्ट भगवान  कृष्ण को बताते हैं। 

यही होगा मंगलवार वाले लेख का विषय, सोमवार को पंडित जी के जीवन से कुछ और प्रेरणा लेने का सौभाग्य प्राप्त करने की योजना है। 

जय गुरुदेव   


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