वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गुरुदेव ने लीलापत जी को कहा: बेटे,देवता बाहिर नहीं अंदर हैं- लेख श्रृंखला का आठवां लेख  

साथिओं के कमैंट्स से पता चलता रहता  है कि हमारे परिजन पूर्ण समर्पण के साथ दैनिक ज्ञानप्रसाद की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं, करें भी क्यों न? गुरुदेव की अमृतवाणी पर आधारित यह सभी लेख हमारे परिजनों की बैटरी चार्ज  करते हैं, यह Charged बैटरी उन्हें दिन भर ऊर्जावान बनाये रखती है। हम स्वयं को बहुत ही सौभाग्यशाली मानते हैं कि गुरुदेव के अनुदान से एवं साथिओं के सहयोग से इस लेखन कार्य को सम्पन्न कर पा रहे हैं।   

आदरणीय लीलापत शर्मा जी की दिव्य रचना “युगऋषि का अध्यात्म, युगऋषि की वाणी में” पर आधारित,वर्तमान लेख श्रृंखला का आज आठवां लेख प्रस्तुत किया गया है। 

जिन साथिओं को परम पूज्य गुरुदेव और पंडित लीलापत शर्मा जी के  साक्षात् दर्शन का सौभाग्य नहीं प्राप्त हो सका,उनके लिए वर्तमान लेख श्रृंखला किसी संजीवनी बूटी से कम नहीं  है। दोनों दिव्य आत्माओं के बीच हुए संवाद,पंडित जी की लेखनी,उदाहरण देते हुए हमारा सरलीकरण प्रयास, साथिओं का ध्यानपूर्वक एक-एक शब्द को अंतर्मन में उतारना,सभी सामूहिक प्रयास इन लेखों को एक सुपरहिट स्टेज शो जैसा बना रहे हैं ।   

आइए देखें आज जादू के पिटारे में क्या छिपा है। 

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एक दिन पंडित जी ने गुरुदेव से पूछा:  

दुनिया में देवताओं की झड़ी लगी है। एक ही घर में अलग-अलग देवता पूजे जाते हैं, कैसे चुना जाये कि कौन सा देवता सबसे अच्छा है, जिसे हमें पूजना चाहिए?  देवताओं की प्रसिद्धि  का मूल्यांकन कैसे और किस आधार पर  हो? 

जब हम यह पंक्तियाँ लिख रहे हैं तो हमें पंडित जी के बारे में ऐसे लग रहा है  जैसे यह प्रश्न  कोई अबोध, नन्हा सा बालक कर रहा हो।  शायद हमारा ऐसा सोचना ठीक ही हो क्योंकि भगवान् के बारे में जानने के लिए  और गुरु के ज्ञान को समझने के लिए एक नवजात शिशु जैसा स्तर ही होना चाहिए। उसका अन्तःकरण बिल्कुल खाली और निर्मल होता है इसीलिए उसे जो भी ज्ञान दिया जाता है वह बहुत शीघ्रता से ग्रहण करने की क्षमता रखता है। ज्यों ज्यों वह शिशु  बड़ा होता जाता है उसमें  ज्ञान और तर्क/कुतर्क की क्षमता विकसित होती जाती है, ज्ञान देना कठिन होता है। तभी तो ऐसे वाक्य प्रचलित हुए जा रहे हैं:हमें पांच पन्नों का भाषण नहीं चाहिए!!! 

पंडित जी की बात सुनकर  गुरुदेव मुस्कराए और बोले: 

बेटा,देवता बाहर नहीं भीतर हैं। भीतर के देवता को जगाने के लिए ही हम बाहर देवताओं के मॉडल बनाते हैं, मूर्तियां  बनाते हैं। इस तरह जिसे जो देवता चाहिए, जिसमें जिसकी आस्था होती है,जिस देवता को अपने अंदर जगाना होता है, उसी देवता की उपासना करते हैं। 

पंडित जी ने पूछा :

गुरुदेव! आजकल  हनुमान जी के भक्त सबसे ज्यादा हैं।अत: आप हमें हनुमान जी की मूर्ति के बारे में और उनकी पूजा के बारे में बताएं।

गुरुदेव बोले: 

बेटा! हनुमान जी ने कभी कोई अनुष्ठान, भजन, माला, तीर्थ, स्नान, उपवास, दान आदि किया हो, कह नहीं सकते लेकिन उन्होंने भगवान राम के सभी काम पूरे मनोयोग एवं समर्पण की भावना से अवश्य किये थे। उनका केवल एक ही सूत्र था “राम काज कीन्हे बिना, मोहि कहाँ विश्राम” हनुमान जी हमेशा भगवान् राम के काम में ही लगे रहते थे। भगवान् राम का आदेश हुआ तो हनुमान जी  लंका पहुँच गए, लंका जलाई, सीता माता का पता लगा लिया, समुद्र को बाँधा, पहाड़ उखाड़कर ले आये और न जाने उन्होंने  कितने ही बड़े-बड़े कार्य कर दिखाए। हनुमान जी ने सदैव अपने इष्ट की आज्ञा का पालन किया और उन्हीं का कार्य किया। 

हमें पहाड़िया जी का समर्पण स्मरण हो आया जब परम पूज्य गुरुदेव ने तपोभूमि मथुरा की प्राण प्रतिष्ठा के समय  “प्रथम गुरुदीक्षा” दी थी। तपोभूमि मथुरा में गुरुदेव ने प्रथम दीक्षा तो वंदनीय माता जी को दी थी लेकिन उसी समय पहाड़िया जी को भी आवाज़ लगाकर कहा था “पहाड़िया जी आइये आप भी दीक्षा ले लीजिए।” गुरुदेव ने  यज्ञशाला के बाहर व्यवस्था में लगे एक कार्यकर्ता को 

‘पहाड़िया जी’ नाम लेकर पुकारा। वह कार्यकर्ता पुकार सुनते ही हाथ का काम दूसरे को सौंप कर दौड़ते हुए यज्ञशाला में आये। पहाड़िया जी उस समय गेट के पास बनी कुइयां से पानी खींच रहे थे। यह पानी वहाँ आये साधकों के लिए भोजन बनाने और पीने के काम आता था। लोगों ने पिछले तीन दिन से उन्हें सुबह शाम इसी काम में निरत देखा था। न प्रवचन सुनने गये, न यज्ञ अग्निहोत्र में बैठ पाये। हर घड़ी वह पानी के इंतजाम में ही लगे रहे। यह पहला अवसर था जब उन्होंने अपना काम छोड़ा और उस जगह से हटे।  

यदि हम भी हनुमान जी  के सच्चे भक्त बनना चाहते हों, तो हमें भी  ईश्वर  की इस दुनिया को सुंदर, सुव्यवस्थित बनाने के लिए सामाजिक कुरीतियों को दूर करने तथा व्यक्तिगत दुष्प्रवृत्तियों, दुर्व्यसनों को दूर करने में अपने समय का सदुपयोग करना चाहिए। हनुमान जी की तरह असुरता और नीचता  के विरुद्ध संघर्ष करना चाहिए। यदि हम यह सब करने लगें तो हनुमान जी हमसे प्रसन्न हो जाएँगे कि यह आदमी तो हमारी ही  परंपरा का पालन  कर रहा है। यह देखकर ईश्वर प्रसन्न होकर अनुदानों-वरदानों की वर्षा करेंगे और हमारा जीवन धन्य हो जाएगा। 

गुरुदेव समझाते हैं:

हम तो पत्थर की मूर्ति को ही हनुमान जी मान बैठे हैं और उस पर चोला चढ़ाने, भोग लगाने, प्रणाम करने और मनौती मनाने तक ही अपना मतलब रखते हैं। हनुमान जी को खुशामद पसंद नहीं है। उन्हें तो भगवान का तथा समाज का काम पसंद है। उन्होंने रावण के खुशामदियों को तो पकड़-पकड़ कर मार डाला था और रावण की अनीति का विरोध करने वाले, अनीति का साथ छोड़ने वाले विभीषण को गले लगाया था। हनुमान जी  की भक्ति यही है कि हम उनकी परंपरा का निर्वाह करें,पालन करें, उनके आदर्शों पर चलें और इसके लिए अपने अंदर के हनुमान को जगाएँ।

पूज्य गुरुदेव ने पंडित जी को एक कथा सुनाई। आइए हम भी उस कथा का अमृतपान करें। 

गुरुदेव बताते हैं: 

नारद पुराण में एक कथा आती है जिसके अनुसार  एक बार नारद जी आकाश मार्ग से भ्रमण कर रहे थे कि एक देवदूत दिखाई दिया। उस देवदूत के  हाथ में एक पुस्तक थी। नारद जी ने पूछा, “आपके हाथ में यह कैसी पुस्तक है?”  देवदूत बोला, “इसमें भगवान के भक्तों की सूची है।” नारद जी ने प्रश्न किया, “क्या  हम इस पुस्तक को  देख लें?” देवदूत ने वह पुस्तक नारद जी को दे दी। नारद जी ने पूरी पुस्तक पलटकर देखी लेकिन कहीं भी नारद जी का नाम नहीं था। नारद जी बड़े दु:खी हुए। वे अपनेआप को भगवान का सबसे बड़ा भक्त समझते थे। दूसरे दिन फिर वही  देवदूत दिखाई दिया। आज फिर पुस्तक देखकर नारद जी बोले, “आज आपके हाथ में यह कैसी पुस्तक है ?” देवदूत ने कहा, “इसमें उन व्यक्तियों की सूची है  जिनकी भक्ति भगवान स्वयं करते हैं।” नारद जी ने कहा, “इसे हम देख लें ?” नारद जी ने जब पुस्तक खोली तो उसमें सबसे पहले नारद जी  का ही नाम था।  नारद जी अपना नाम देखकर हैरान हो गए। नारद जी का नाम इस पुस्तक के प्रथम पन्ने पर इसलिए था कि  नारद जी मन से भजन और शरीर से भगवान का काम करते रहते थे। 

गुरुदेव कहते हैं:

बेटा,जो भगवान का काम करता है, भगवान उसकी भक्ति स्वयं करते हैं। भगवान को चापलूसी, स्तवन, वंदन, नमन, रोना, गिड़गिड़ाना आदि पसंद नहीं है।भगवान् को केवल  ईश्वरीय अनुशासन का पालन करने वाले और ईश्वर का काम करने वाले लोग ही पसंद हैं। इसे यों भी कह सकते हैं कि हम जो भी कार्य करें उसे ईश्वर का कार्य समझकर ही करें। ऐसा करने से निष्काम भाव आता है और हमारे द्वारा किया गया हर कार्य ईश्वर की सेवा बन जाता है। निष्काम का अर्थ है बिना किसी कामना एवं वासना से किया गया कार्य। इस प्रकार हम ईश्वर की सेवा अधिक समय तक कर सकेंगे। 

गुरुदेव बता रहे हैं: 

बेटा, भजन तो हम अपने लिए करते हैं। भजन से ईश्वर प्रसन्न नहीं होते हैं। भजन से हमारा अंत:करण पवित्र होता है। हमारी मानसिक और आत्मिक शक्तियों का विकास होता है। ईश्वर को प्रसन्न  करना हो तो हमें उसका कार्य करना चाहिए। लोगों में ईश्वर के सिद्धांतों और आदर्शों में आस्था जगाने का प्रयत्न करना चाहिए

इसलिए संकट मोचन हनुमान के भक्तों को देव संस्कृति के उत्कृष्ट आदर्शों और सिद्धांतों में “आस्था जगाने का कार्य” करना ही चाहिए। आज के मनुष्य का यह निश्चित मत बन गया है कि आदर्शों और सिद्धांतों पर चलने वालों को  घाटा ही घाटा होता  है। इस मूढ़ मान्यता को बदलने का प्रयास कर हनुमान भक्त ( या हर ईश्वर भक्त)  को करना चाहिए। तभी हम हनुमान भक्त कहलाने  के अधिकारी होंगे। रही बात घाटे की, तो यह एक Relative term है ,जिसे एक मनुष्य घाटा कहता है, दूसरे मनुष्य के लिए वही आत्म उत्कर्ष हो सकता है। दोनों स्थितियों में से चयन करना हमारी व्यक्तिगत चॉइस है।  

इसी स्थिति को समझाने के लिए परम पूज्य गुरुदेव एक और उदाहरण देते है, आइये इसका भी अमृतपान करें। 

गुरुदेव कहते हैं:

बेटा एक बात बताओ। एक आदमी तुम्हारे घर  रोज नहा-धोकर सुबह आ जाया करे और माला लेकर घर के  एक कोने में तुम्हारे नाम की माला जपता रहे, चापलूसी, चाटुकारिता करता रहे, काम कोई भी न करे और  बदले में रोटी कपड़ा और वेतन माँगे, लेकिन दूसरा आदमी तुम्हारे घर नियमित समय पर  आए, घर की सफाई करे, कपड़े धोए, बर्तन साफ करे, खाना बनाकर खिला दे और बदले में कुछ भी  न माँगे तो तुम्हें कौन सा आदमी पसंद आएगा? 

पंडित जी ने  कहा:

गुरुदेव! हमें तो  दूसरा आदमी  ही पसंद आएगा। हम उससे फ्री में काम तो हरगिज़ नहीं करवायेंगें, उसे पूरा वेतन तो देंगें ही साथ में  इनाम भी देंगे।

पंडित जी का  उत्तर  सुनकर गुरुदेव बोले:

बेटा बस, इसी प्रकार भगवान को भी काम करने वाला आदमी पंसद है और उसे ही भगवान् उपहार में शक्तियाँ, दैवी गुण देते हैं। 

पंडित जी ने  पूछा: 

गुरुदेव! भगवान केवल  दैवी गुण ही देते हैं ? क्या धन, मकान, जायदाद, प्रतिष्ठा नहीं देते हैं ? 

इसके उत्तर में  गुरुदेव बोले:

बेटा  जिसके पास जो कुछ होगा वह वही तो देगा। देवताओं के पास धन, दौलत, मकान कहाँ हैं जो वे देंगे। देवताओं के पास दैवी गुण है। व्यक्ति में जब ये दैवी गुण आ जाते हैं तो भौतिक उपलब्धियाँ अपनेआप प्राप्त हो जाती हैं यां  फिर उसे उनकी आवश्यकता ही नहीं रहती। 

इतना कहकर पूज्यवर खड़े हो गए और बोले-अब आगे की बात बाद में करेंगे। 

पंडित जी ने कहा:

गुरुदेव! अभी तो शंकर, राम, कृष्ण कई देवताओं के बारे में आप से पूछना है। 

गुरुदेव बोले: अब एक ही दिन में सारा ज्ञान ले लेगा क्या?  इस ज्ञान को साथ ही साथ पचाता भी चल, आचरण में ढालने का प्रयास भी कर, तभी इसका लाभ मिलेगा। 

तो साथिओ,हमें भी इस जन्म घूंटी को कल तक पचाने का प्रयास करना होगा, कल यहीं से आगे चलेंगें। 

जय गुरुदेव  


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