वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

लीलापत शर्मा जी और गुरुदेव के बीच हुई समर्पण विषय पर चर्चा

आज का ज्ञानप्रसाद समर्पण की शक्ति की बहुत ही व्यावहारिक एवं प्रैक्टिकल शक्ति का वर्णन कर रहा है। इसे समझना कोई राकेट साइंस नहीं है, ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के छोटे से परिवार के प्रति ही जिसने स्वयं को समर्पित, उसे जो कुछ मिला,जो शक्ति प्राप्त हुई उसके साक्षात् परिणाम का इसी परिवार के साथिओं ने अनेकों बार वर्णन किया है।

 

आदरणीय पंडित लीलापत शर्मा जी एवं परम पूज्य गुरुदेव के बीच हो रही वार्ता जिसे हम “युगऋषि का अध्यात्म,युगऋषि की वाणी में” को  आधार बनाकर कर ज्ञानप्रसाद लेखों द्वारा प्रस्तुत कर रहे हैं,अवश्य ही पाठक इन्हें पढ़ते समय रंगमच के नाटक जैसा अनुभव कर रहे होंगें।

जिस सरलता से लीलापत जी की लेखनी समर्पण का वर्णन कर रही है, शायद ही हमें समझने में कोई समस्या का सामना  करना पड़े।

आज के ज्ञानप्रसाद लेख को लिखते समय जहाँ-जहाँ भी क्रॉस रेफरन्स की आवश्यकता अनुभव हुई हमने रिसर्च करके, शामिल करने का प्रयास किया। 

साथिओं से आग्रह करते हैं कि अलग से  शामिल किये गए तीन रेफरन्स (1. गुरुदेव द्वारा लीलापत जी को लिखा गया पत्र, 2. वेदों को गड़रियों के गीत कहकर अपमानित करना और 3. स्वामी विवेकानंद जी का अभूतपूर्व स्वागत) अवश्य देखें। गुरु-शिष्य की वार्ता के फ्लो को किस भी प्रकार की बाधा से बचाने के लिए अलग विवरण देना उचित समझा गया है। 

यहाँ यह भी बताना उचित समझते हैं कि इस मंच पर कोई भी कही-सुनी मनगढंत बात शेयर नहीं की जाती,इसी तथ्य का पालन करते हुए Actual रेफेरेंस दिए गए हैं।

तो आइए, विश्वशांति की कामना करते हुए आज के लेख की चर्चा करें : 

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

अर्थात शान्ति: कीजिये प्रभु ! त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में,अन्तरिक्ष में, अग्नि – पवन में, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन में,सकल विश्व में अवचेतन में,शान्ति राष्ट्र-निर्माण और सृजन में,  नगर , ग्राम और भवन में प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण – कण में, शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए 

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समर्पण के विषय को समझते हुए आदरणीय लीलापत शर्मा जी बता रहे हैं : 

पूज्य गुरुदेव जब भी ग्वालियर आते हमारे पास कई-कई दिन ठहरते । हमको समझाया करते कि बेटा मिशन को तेरी आवश्यकता है। अब तू भौतिकवादी जीवन को छोड़। हम चुप हो जाते क्योंकि भौतिकवाद हमारी नस-नस में भरा पड़ा था। ऐश-आराम का जीवन छोड़ना कहाँ आसान है। हमें भी बहुत ही कष्टदायक मालूम पड़ता था। गुरुदेव ने हमें बहुत बार समझाया लेकिन हर बार टाल कर यही  कहते रहे कि अभी सोचेंगे। परम पूज्य गुरुदेव द्वारा बताई गयी त्रिपदा गायत्री साधना का ही नियमित पालन करते रहे, जप करते रहे, स्वयं को साधते रहे।  एक बार गुरुदेव हमारे पास आए हुए थे, चारपाई पर लेटे हमें अपने पास बुलाकर अपने पास बैठने को कहते हैं। हम चुपचाप  बैठ गए तो बोले:  

“बेटा! क्या तूने विवेकानंद का नाम सुना है ? बड़ा ही विलक्षण व्यक्ति था। रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। जब विदेशी लोग वेदों को गड़रिया के गीत कहते थे, तब उन्होंने विदेशों में भारतीय संस्कृति का प्रचार किया। जब वे भारत वापस आए तो उनके लिए 12 घोड़ों की बग्घी तैयार की गई लेकिन तमाम सेठ, साहूकार और बड़े-बड़े अफसरों ने कहा, स्वामी जी को घोड़ों की बग्घी पर नहीं बिठाया जाएगा। घोड़ों को हटा लिया गया और उस बग्घी को सब प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने स्वयं खींचा। (इस तथ्य को संलग्न स्लाइड में देखा जा सकता है), जानते हो यह सम्मान स्वामी जी को क्यों मिला ? स्वामी जी का संपर्क जब गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस से हुआ तो उन्होंने अपनी सारी शक्ति विवेकानंद को ट्रांसफर कर दी थी। गुरुदेव  ने उन्हीं को क्यों इतनी शक्ति दी ? इसका कारण यह है कि उन दोनों में एक समझौता हो गया था। स्वामी विवेकानंद ने स्वामी रामकृष्ण परमहंस के आगे  समर्पण कर दिया था कि अब हम आपका ही काम करेंगे। शरीर मन, बुद्धि, भावनाएँ सब आपके ही कार्य में लगाएँगे। जब विवेकानंद ने पूर्णतया समर्पण कर दिया तो गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस से उन्हें अपार शक्ति मिली, साहस मिला, बुद्धि मिली और न जाने क्या-क्या कुछ मिल गया। इसी प्रकार का समर्पण अर्जुन में भी देखने को मिलता है। जब अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण के सम्मुख समर्पण किया और कहा कि हम आपके ही आदेश का पालन करेंगे। ऐसे समर्पण से ही अर्जुन को शक्ति मिली, ज्ञान मिला, सब कुछ मिला। 

बेटा, शक्ति प्राप्त करने की एक विधि में तो जप, तप, ध्यान, व्रत, उपवास, तीनों शरीरों की साधना करनी पड़ती है। इन सबको करने में बहुत कष्ट सहन करना पड़ता है लेकिन दूसरी सरल विधि “समर्पण की विधि” है। बेटे ! जप-तप तो तुम्हारे लिए हम ही कर लेंगे और हमारी शक्ति तुम्हें मिलेगी।”

पूज्यवर के कहने पर,आग्रह करने पर, बहुत दिन बाद हमने समर्पण कर दिया और कह दिया कि अब हम आपके ही आदेश का पालन करेंगे। शीघ्र ही कपड़ा मिलों का झंझट छोड़ रहे हैं। पाठकों को स्मरण कराना उचित रहेगा कि आदरणीय लीलापत जी डबरा (ग्वालियर म्युनिसिपेलिटी ) में कपड़ा मिल में कार्यरत थे। 

पंडित जी लिखते हैं: मिलों से छुटकारा पाने पर हमने गुरुदेव को पत्र भी लिख दिया कि हम मथुरा आ रहे हैं। गुरुदेव का पत्र आया कि तुम अकेले मत आना, हम तुम्हें अपने साथ लेकर आएँगे। 

1998 में प्रकाशित पंडित जी की उत्कृष्ट रचना “पत्र पाथेय” में गुरुदेव और लीलापत जी के बीच प्रकाशित 89 पत्र संवादों को एक-एक करके फिर से देखा और एक पत्र संलग्न किया गया है। पाठकों को स्मरण हो आया होगा की इस रचना पर हम एक विस्तृत लेख श्रृंखला लिख चुके हैं।    

इस घटना का वर्णन अपने परिजनों के सम्मुख इसलिए किया है कि परिजन यह समझ लें कि समर्पण का महत्त्व क्या होता है । यहाँ तपोभूमि में प्रखर प्रज्ञा-सजल श्रद्धा के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह के अवसर पर हजारों परिजनों ने  शपथ पत्र भरकर गुरुदेव के साथ एक समझौता किया, साथ ही समर्पण किया कि पूज्य गुरुदेव के सपनों को साकार करेंगे और उनके द्वारा दी गई आंदोलनों की योजना को अपने-अपने क्षेत्र में चलाकर युग परिवर्तन के संकल्प को पूरा करने में सहयोग देंगे। जिन परिजनों ने सच्चे हृदय से समर्पण किया, उनको निश्चय ही शक्ति मिली होगी और इतिहास में उनका नाम प्रसिद्ध हुआ होगा। ऐसे शपथ समारोह की एक वीडियो हमारे चैनल पर भी उपलब्ध है। 

पंडित जी आगे बताते हैं : 

परम वंदनीय माताजी ने एक दिन कहा कि अब हम यहाँ शिविर लगाना प्रारंभ करेंगे। इसकी व्यवस्था तुम सँभालोगे। भोजन व्यवस्था माताजी ने सँभाल ली। शिविर में 20-25 लोग आते थे। माता जी, माँ की तरह ही उनकी देखभाल करती थीं। कोई बीमार हो जाता तो उसके कपड़े धोतीं, सफाई करतीं, खाना खिलातीं। सभी को ऐसा अनुभव होता कि हमने इसी माँ के पेट से जन्म लिया है। शायद माताजी सूर्योदय से पहले भजन कर लेती हों क्योंकि हम उन्हें  हमेशा काम में ही व्यस्त देखते थे। माताजी हम से हमेशा कहतीं कि निःस्वार्थ सेवा ही   असली धर्म है। माला घुमाना तो आसान है लेकिन समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने और अपनी दुष्प्रवृत्तियों को दूर करने में जो अपना समय, श्रम और धन का सदुपयोग करते हैं वे ही असली धार्मिक व्यक्ति हैं। हम लोग भजन, पूजन, आरती, कथा, तीर्थयात्रा तो कर लेते हैं लेकिन जब सेवा का समय आता है, तब इधर उधर देखने लगते हैं। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के प्रत्येक साथी को समय के अभाव का बहाना एक  तरफ छोड़ कर  वंदनीय माताजी की बात माननी  चाहिए और मिशन के कार्यों के लिए प्रतिदिन कम से कम दो घंटे का समयदान करने का संकल्प लेना चाहिए, 24 घंटों में दो घंटे मात्र 8% ही बनते हैं। 92% समय तो फिर भी आपके पास ही है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि आज के युग में टेक्निकल प्रगति ने सब कुछ इतना आसान  कर दिया है कि क्या कहा जाए।   

शिविर चल रहे थे । एक दिन प्रवचन के बाद पूज्य गुरुदेव गायत्री मंदिर के सामने बैठे थे, तभी एक सेठ आया, उसने कहा, “गुरुदेव ! आप अखण्ड ज्योति संस्थान पैदल आते-जाते हैं,गर्मी का समय है, हम आपको एक कार देते हैं।”  गुरुदेव ने कहा, “नहीं बेटा! पैदल आने-जाने से स्वास्थ्य ठीक रहता है।”  सेठ चला गया तो हमने कहा: गुरुदेव ! कार दे रहा था तो ले लेते। आने-जाने में परेशानी तो होती ही है। 

जो साथी मथुरा जा चुके हैं उन्हें तपोभूमि से अखंड ज्योति संस्थान के बीच की दूरी का अनुमान अवश्य होगा। हम 2019 के अपने व्यक्तिगत  अनुभव से कह सकते हैं कि यह दूरी इतनी नहीं कि पैदल न जाया जा सके। 

यह थी पूज्यवर की सादगी और विलासिता से अलगाव । 

पूज्य गुरुदेव जब हमारे साथ जलपाईगुड़ी गए तो रेलयात्रा में अपने खाने के लिए चना-चिड़वे ले गए और उसी से तीन दिन की यात्रा पूरी कर दी। मिशन के कामों में लाखों रुपया खर्च  करने में तनिक भी देर नहीं लगाते थे लेकिन अपने ऊपर चार आने खर्च करने से पहले सौ बार सोचते थे । 

इन सब विशेषताओं के कारण ही संत, दरवेश जैसे हमारे गुरु ने करोड़ों समर्पित साधकों का इतना बड़ा मिशन खड़ा करके रख दिया। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार उसी का एक बहुत ही छोटा सा रूप है। हम सभी को इस परिवार का हिस्सा बनने में गर्व महसूस करना चाहिए। 

बड़ा कार्य करने वालों को त्याग-तपस्या का जीवन जीना पड़ता है। महात्मा गांधी ने त्याग-तपस्या का जीवन जिया, देश को स्वतंत्र करा दिया। बाद में उनके अनुयायी उनकी लोकप्रियता को बेचकर खाते रहे। उनके सिद्धांतों को छोड़ दिया। गांधीवादी यदि गांधी जी के आदर्शों पर चलते, उन्हीं की भाँति त्याग तपस्या का जीवन जीते तो उनकी लोकप्रियता बनी रहती । 

संकुचित साधनों में गुज़ारा करना गुरुदेव के स्वभाव का अंग बन चुका  था। शिविर चल रहे थे, एक सेठ जी आए, उन्होंने गुरुदेव के हाथों में नोटों की गड्डी थमा दी। गुरुदेव बोले-, “हम इसका क्या करेंगे ?” सेठ पीछे पड़ गया,बोला, “मुझे तो ये रुपये आपको देने ही हैं।” पंडित जी बताते हैं कि यह हमारे सामने की बात है। गुरुदेव हमें और सेठ जी को बाज़ार ले गए। उन पैसों से कंबल खरीदे। सर्दी का समय था । गरीब लोग जो आग के सहारे, सड़क के किनारे समय व्यतीत करते थे, उनको एक-एक कंबल देते गए और सब कंबल बाँट दिए। 

पूज्य गुरुदेव दान के एक-एक पैसे को समाज का पैसा समझते थे और समाज के ही काम में लगा देते थे। सबसे यही कहते थे कि समाज के पैसे को व्यक्तिगत खर्चों  में नहीं लगाना चाहिए। दान के पैसों को जो अपने व्यक्तिगत खर्चों  में, अनाप-शनाप विलासिता की वस्तुओं में खर्च  कर देता है, वह आध्यात्मवादी नहीं है ।

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समर्पण आधारित आज के लेख का समापन कल होने की सम्भावना के साथ साथिओं से विदा लेते हैं। 

जय गुरुदेव,धन्यवाद् 


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