17 नवंबर 2025 का ज्ञानप्रसाद
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के समर्पित साथिओं को स्मरण कराना उचित समझते हैं कि उपासना-साधना-आराधना की त्रिवेणी की वर्तमान लेख श्रृंखला के अंतर्गत आज का लेख “आराधना” के विषय पर चर्चा कर रहा है। यह भी स्मरण करा दें कि परम पूज्य गुरुदेव और पंडित लीलापत शर्मा के गुरु-शिष्य के अति सरल संवाद से हम सब को जिस ज्ञान की प्राप्ति हो रही है उसे शब्दों में बाँध पाना हम जैसे नौसिखिये के बस की बात नहीं है। उचित रहेगा कि हमारे साथी प्रत्येक शब्द/पंक्ति की भावना को समझ कर ऐसे कमेंट करें कि एक उत्कृष्ट ज्ञान का प्रसार हो सके।
तो आइए, विश्वशांति की कामना करते हुए आज के लेख की चर्चा करें :
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
अर्थात शान्ति: कीजिये प्रभु ! त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में,अन्तरिक्ष में, अग्नि – पवन में, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन में,सकल विश्व में अवचेतन में,शान्ति राष्ट्र-निर्माण और सृजन में, नगर , ग्राम और भवन में प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण – कण में, शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए
***********************
गुरुदेव ने लीलापत जी को आराधना का अर्थ समझाते हुए कहा कि आज अधिकतर लोगों ने “भजन” को ही पकड़ रखा है क्योंकि यह एक सीधी, सरल प्रक्रिया है। सुबह शाम 5-10 मिनट ज़ोर-जोर से घंटी बजाना, लोगों के आगे ड्रामेबाजी करना एक विज्ञापन जैसा है। घंटी बजाना, माला घुमाना तो कोई भी कर सकता है। मनुष्य तो एक तरफ, गंगाराम (तोता) भी कुछ दिन के अभ्यास से राम-राम जपना सीख जाता है।
इस सारी विज्ञापनबाजी को छोड़कर जीवन का परिशोधन,सफाई, दोष दुर्गुणों को छोड़कर समाज की सेवा करना “सबसे महत्वपूर्ण आराधना” है। जिस भजन में यह महत्वपूर्ण तत्व शामिल नहीं है, उसमें समय की बर्बादी है। इसमें अपना तो क्या,किसी का भी कोई भला नहीं हो सकता।
इसी ज्ञान के अभाव में अधिकतर लोग नास्तिक होते चले जा रहे हैं। हमें इन नास्तिकों को सच्चा अध्यात्मवादी बनाना है। यदि ऐसा होता है तभी सबको लाभ होगा। यही विचारक्रांति अभियान है।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी लिखा है:
मज्जन फल देखिय तत्काला, काक होहिं पिक बकऊ मराला अर्थात किसी पवित्र तीर्थ या सत्संग में स्नान करने या उसके प्रभाव से कौआ कोयल बन जाता है और बगुला हंस बन जाता है। इसका भावार्थ यह है कि अच्छी संगति का प्रभाव तुरंत ही व्यक्ति को इतना बदल देता है कि वह बुरे से अच्छा बन जाता है। यह सत्संगति की महिमा को बताता है
गंगा,यमुना,सरस्वती तीनों के मिलन से जहाँ त्रिवेणी बनती है, वहीँ संगम तीर्थ बन जाता है।
गोस्वामी जी का इशारा उपासना, साधना और आराधना की त्रिवेणी की ओर है। इस त्रिवेणी में स्नान करने से कौआ कोयल और बगुला हंस बन जाता है अर्थात त्रिपदा गायत्री के जप से उसकी आकृति तो वैसी ही रहती है लेकिन प्रकृति बदल जाती है। गुरुदेव बता रहे हैं कि हमने भी इसी त्रिवेणी गायत्री की साधना की और ऋद्धि-सिद्धि, शरीरबल,बुद्धिबल,आत्मबल सभी कुछ पाया है।
गुरुदेव उस जिज्ञासा का उत्तर भी दे रहे हैं जो अक्सर पूछा जाता रहा कि हमें गायत्री उपासना का लाभ क्यों नहीं मिलता।
गुरुदेव कहते हैं, “जैसा हमने पाया है, वैसा सबको मिल सकता है । गायत्री माता अपने सभी बच्चों पर समान रूप से अपनी कृपा की वृष्टि करती हैं। यह राजमार्ग सभी के लिए खुला है, बस इसके लिए साहस की आवश्यकता पड़ती है। गायत्री माता साहसी व्यक्ति पर ही कृपा की वर्षा करती हैं, कायरों और कमजोरों पर नहीं ।
इसके बाद गुरुदेव ने पंडित जी को एक सच्ची निम्नलिखित घटना सुनाई:
बेटा,हम हिमालय पर गए थे, कुछ समय के लिए गंगोत्री से ऊपर ठहरे थे। वहाँ दो महात्मा बिना वस्त्र के रहते थे,अन्न भी नहीं खाते थे और मौन रहते थे। उनकी दाढ़ी-मूँछ बढ़ी हुई थी। दिन- रात भजन ही करते रहते थे। गर्मी में बर्फ पिघलने से दोनों की गुफा के सामने जो ज़मीन निकल आती थी उसमें वे सब्जियाँ आदि बो देते थे। सब्जियों को गुफा में सुरक्षित रखकर उसी से साल भर अपना काम चलाते थे। एक बार कुछ ऐसा हुआ कि एक महात्मा ने दूसरे महात्मा की थोड़ी अधिक ज़मीन साफ कर ली, फिर क्या था,दोनों में ऐसा झगड़ा हुआ कि दाढ़ी के बाल खींचने तक की नौबत आ गई, खून भी निकल आया। जब दोनों आपस में लड़ रहे थे तो दुर्वासा के अवतार दिखाई दे रहे थे । हमने सोचा, ये दोनों नंगे, मौनी बाबा दिन-रात भजन करने वाले महात्मा कहलाते हैं लेकिन इन्होंने अपना क्रोध, वासना, तृष्णा नहीं छोड़ी है,ऐसे भजन जब का क्या लाभ हो सकता है। जब तक व्यक्ति दोष दुर्गुणों को छोड़कर भजन नहीं करता तब तक उसका भजन करना इन महात्माओं की भाँति निरर्थक ही है,समय की बर्बादी है। उसको अध्यात्म का कोई लाभ मिलने वाला नहीं है।
भगवान राम ने गायत्री मंत्र का जप किया, उसके साथ ही अपना सारा जीवन समाज सेवा में लगा दिया। ऋषियों की हड्डियों का ढेर देखकर राम क्षुब्ध हो गए और तभी राक्षसों को मारने का प्रण कर लिया। वे राक्षसों से संघर्ष करते रहे। इसीलिए तो उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम के विशेषण से सुशोभित किया जाता है । राम हमारे आदर्श हैं लेकिन हम क्या करते हैं ? बस, राम का नाम जपते रहते हैं। राम के आदर्श, सिद्धांत आदि से हमें कोई मतलब नहीं है । हमने राम के नाम की माला घुमाने का सरल कार्य पकड़ लिया है। भगवान राम के संदेश को जीवन में उतारने की बात हम सुनना ही नहीं चाहते।
अध्यात्म के इस दोष को निकालना पड़ेगा। “युगनिर्माण योजना का यही मुख्य उद्देश्य है ।”
बेटा,भगवान राम ने रावण को मारा। रावण विलासिता का जीवन जीता था। सोने की लंका बना रखी थी। ऐश आराम का जीवन जीता था। उड़न खटोले (हवाई जहाज) में बैठकर यात्रा करता था । पराई स्त्री (सीता माता) का अपहरण किया था। भगवान राम ने उससे संघर्ष किया और उसे मार गिराया।
बेटा, उस समय तो केवल एक ही रावण था,आज तो हर गली नुक्कड़ पर रावण ही रावण है,अपहरण-बलात्कार जैसी घटनाएं तो साधारण दिखने लगी हैं। ऐसी दुष्प्रवृति के धर्माचार्यों की भी कमी नहीं है जो भजन तो राम का करते हैं लेकिन प्रवृति रावण जैसी है। ऐसे व्यक्तियों के मुख पर भले ही ‘राम’ हो लेकिन उनके अंदर रावण ही बैठा है। हमें उससे संघर्ष करना चाहिए।
रावण की बहिन शूर्पणखा फैशन बनाकर घूमती थी। शूर्पणखा का असली नाम तो नीलमणि था,उसके नाखून सूप जैसे थे, इसलिए रावण उसे शूर्पणखा कहता था। शूर्पणखा का शाब्दिक अर्थ है सूप जैसे नाखूनों वाली (सूप का चित्र हम में से अनेकों ने देखा होगा फिर भी शेयर कर रहे हैं।) आज घर-घर सूप जैसे नाखून वाली शूर्पणखा
मिल जाएँगी। शूर्पणखा फैशन बनाकर घूमती थी,दूसरों का चरित्र भ्रष्ट करती थी। भगवान राम का चरित्र भ्रष्ट करने का प्रयास किया, तो राम-लक्ष्मण ने उसका अपमान किया, उसकी नाक काट ली। आज भी समाज में जो शूर्पणखायें फैशन बनाकर हमारे नवयुवकों का चरित्रभ्रष्ट करती हैं, ऐसी बहिनों को हमें समझाना चाहिए कि बहिन जी आपकी शक्ल वैसे ही ठीक लग रही है, फिर क्रीम पाउडर पोतकर, लिपिस्टिक लगाकर क्यों अपनी असली सुंदरता नष्ट कर रही हैं।
बेटा! इसमें कमी हमारी भी है कि हम ऐसी बहिनों का सम्मान करते हैं। यदि ऐसी उल्टे-सीधे फैशन करने वाली बहिनों का निरादर किया गया होता तो इस फैशन में कमी आ सकती थी। जो बहिनें समझाने से न मानें उन्हें व्यंग द्वारा सुधारने का प्रयास करना चाहिए। इससे फैशन परस्ती में कमी आएगी।
समाज में हो रहे दुष्कर्मों के लिए यह उल्टे-सीधे फैशन,शरीर दर्शाने वाली ड्रेसेस का बहुत बड़ा योगदान है, स्वतंत्रता के नाम पर जो कुछ हो रहा है उससे कौन अपरिचित है।
“लेकिन क्या किसी पाठक में इतना साहस है कि वह कुछ कह सके? अधिकतर लोग तो Take it easy वाली प्रवृति वाले हैं, कन्नी काटकर निकलने वाले हैं।
गुरुदेव ने गायत्री मंत्र के सम्बन्ध में जो विरोध सहे उनसे हम सभी अवगत हैं।”
बेटा! रावण ने भजन तो किया था लेकिन वह दुष्प्रवृत्तियों में लिप्त था, दोष दुर्गुणों से भरा हुआ था, इसीलिए ब्राह्मण पुत्र होते हुए भी असुर कहलाता था। आज लोगों की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। हम गायत्री मंत्र का जप करते हैं। राम, कृष्ण, शंकर, हनुमान का जप, भजन, पाठ-पूजा करते हैं लेकिन बीड़ी, सिगरेट, मांसाहार, फैशन परस्ती आदि दुष्प्रवृत्तियों से भरा जीवन जीते हैं। जब जप अनुष्ठानों से रावण को कोई लाभ नहीं हुआ,तो हम को क्या ही लाभ मिल सकता है।
अध्यात्म की इस भूल को ठीक करना चाहिए अन्यथा हमारा युवक जब देखेगा कि इस अध्यात्म से कोई लाभ नहीं है तो वह नास्तिक होता चला जाएगा। ऐसे अध्यात्म के प्रति किसी की भी श्रद्धा कैसे बनेगी ? कौन मानेगा ऐसे अध्यात्म को ?
प्रत्येक आध्यात्मवादी को युगधर्म समझना चाहिए। आज जब समाज के सामने ज्वलंत समस्याएँ मुँह खोले खड़ी हैं, तब हम माला घुमाकर, गंगाजी नहाकर, जल चढ़ाकर, स्वर्ग का टिकट चाहते हैं, यह अन्याय है, अधर्म है। इसमें सुधार करना ही होगा। जिसे दहेज की वेदी पर जलती बहिन-बेटियों की चीत्कार सुनाई नहीं देती, जिसे कन्या के पिता की पीड़ा का अनुभव नहीं होता, जिसे अत्याचार और अनाचार से सताई बहिनों की पीड़ा विचलित नहीं करती, उनके लिए माला घुमाना, कथा सुनाना सब पाप है। आग लगा दो ऐसे बिगड़े हुए अध्यात्म को, धर्म के इस विकृत स्वरूप को। अब धर्म का, अध्यात्म का सही स्वरूप समझाने का समय आ गया है! अब भी यदि मेरे बच्चे नहीं जग सके तो भविष्य में उनकी आत्मा उनको कचोटेगी और फिर सिर्फ पछतावा ही साथ लगेगा। पछतावा इस बात का कि हमारे गुरु ने हमें समझाया था लेकिन हम ही मूर्ख निकले जो उनकी वाणी को महत्त्व नहीं दिया और जो श्रेय हमें मिलने को था उसे दूसरे लोग ले गए। ज्ञानयज्ञ की जो लाल मशाल हमारे गुरु ने हमें सौंपी थी, उसे हमसे छीनकर दूसरे लोग ले गए। अपने अभागेपन पर पछताना ही पड़ेगा।
यह सब कहते-कहते गुरुदेव का चेहरा तमतमा गया। उनके मुख मंडल पर ऐसा ओज, ऐसा तेज हमने पहली ही बार देखा । देखकर हमारे रोंगटे खड़े हो गए। आज भी जब उस क्षण की याद आ जाती है तो खून खौलने लगता है। आज 86 वर्ष की अवस्था में जब हमारा खून खौल सकता है तो हमारे भाई-बहिन, जिन्होंने गुरुदेव के अंतकरण की पीड़ा को समझा है, उनके बताए मार्ग पर चलने से कैसे पीछे हट सकते हैं? हमें पूरा विश्वास है कि सामाजिक कुरीतियों को, दुष्प्रवृत्तियों को समाज से समूल नष्ट करने में हमारे भाई-बहिन कुछ भी कसर नहीं छोड़ेंगें । अपने को वीर पिता के मानस पुत्र होने का गौरव अनुभव करेंगे। ऋषि-रक्त की गरिमा सुरक्षित रखेंगे,वीर-माता के दूध की लाज रखेंगे। कुछ ऐसा करेंगे जिसे देखकर ऋषियुग्म मुस्करा कर हमारे ऊपर अनुदानों-वरदानों की वर्षा करें।
अपनी गुरुसत्ता की प्रसन्नता हमारे लिए प्राणों की बलि देकर भी अभीष्ट है।
उपासना,साधना,आराधना (USA) की इस लघु श्रृंखला का यहीं पर समापन होता है ,कल पंडित जी के माध्यम से आराधना से प्राप्त होने वाले साहस एवं आत्मबल पर चर्चा होने वाली है।
जय गुरुदेव। धन्यवाद्

