वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

आद पंडित लीलापत शर्मा जी की पुस्तक “युगऋषि का अध्यात्म-युगऋषि का वाणी में) पर आधरित  लेखों का शुभारम्भ 

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से पिछले दो दिनों से अलग-अलग मीडिया से हमारे स्वास्थ्य के बारे में प्राप्त  हुए सभी संदेशों के लिए हम ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं।  जिस प्रकार हमारे साथिओं ने सन्देश भेज कर,इस छोटे से “वर्चुअल परिवार” में परिवार- भावना को सार्थक किया है उसी भावना के वशीभूत हमने अपने स्वास्थ्य का शेयर किया था, बात तो कोई बड़ी नहीं थी लेकिन भावनाएं इमोशंस से ओतप्रोत थीं। 

आद सुमनलता बहिन जी ने हमारी वैज्ञानिक प्रवृति का रेफेरेंस देते हुए ज्ञानप्रसाद लेखों की बात की थी कि यदि कोई बड़ी पुस्तकें नहीं पढ़ सकता तो ज्ञानप्रसाद के छोटे-छोटे लेख एक बहुत ही सार्थक विकल्प हैं । हमने बहिन जी को रिप्लाई करते हुए लिखा था हमारे सहकर्मियों कि चॉइस ही हमारी सबसे बड़ी Priority है। हम कुछ सेकंड की शार्ट वीडियो,बहुत ही छोटा सा दिव्य सन्देश,बड़ी वीडियोस को छोटे-छोटे भागों में प्रस्तुत करके ,शब्द-सीमित ज्ञानप्रसाद लेख आदि प्रस्तुत करके साथिओं को ज्ञानरथ से जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं। हमारी डिजिटल लाइब्रेरी में तो गुरुदेव द्वारा लिखित 600 पृष्ठों तक  के महान ग्रंथ भी सेव किये हुए हैं, नियमित ज्ञानप्रसाद परिवार की गतिविधियों से जब भी समय मिलता है तो इन ग्रंथों के पन्नें पलटने से ही बहुत कुछ मिल जाता है जिन्हें हम आने वाले दिनों,महीनों यहाँ तक कि वर्षों के लिए भी प्रयोग करते हैं। 

हमारे साथी जानते हैं कि आज से एक ऐसी दिव्य लेखशृंखला का शुभारम्भ हो रहा है जिसे लिखने के लिए परम पूज्य गुरुदेव ने हमें साक्षात् निर्देश दिया है। 82 पन्नों की पुस्तिका “युगऋषि का अध्यात्म-युगऋषि की वाणी में” पुस्तक कम, रंगमच पर हो रहे  नाटक,सिल्वर स्क्रीन पर दिख रहे चलचित्र का रोचक सा दिव्य विवरण है। यदि मन की आँखों से देखा जाए तो हम सबको पंडित लीलापत शर्मा जी परम पूज्य गुरुदेव के चरणों में बैठे दिखेंगें और हम सब तपोभूमि मथुरा के प्राँगण में पंडाल में बैठे दिव्य,आध्यात्मिक चर्चा के साक्षी दिखेंगें । 

साथिओं को अपनी भावना व्यक्त करते हुए बताना चाहेंगें कि अन्य लेखों की भांति इन लेखों को भी जब तक अपने अंतर्मन में नहीं उतारेंगे, यह ज्ञानप्रसाद लेख एक रूटीन पुस्तक-अध्ययन बन कर ही रह जाएगी। 

2010 में इस पुस्तक की पुनरावृत्ति  हुई,उस समय पंडित जी इस संसार से विदा ले चुके थे लेकिन तपोभूमि के उस समय के व्यवस्थापक जी (नाम नहीं लिखा हुआ है) ने इस पुस्तक की भूमिका में जो कुछ लिखा उसे किसी भी तरह से इग्नोर नहीं किया जा सकता। 

आज का ज्ञानप्रसाद लेख उसी भूमिका (आत्मनिवेदन) पर आधरित है। जब आत्मनिवेदन को समझने के लिए गूगल महाराज की सहायता ली तो “Self-analysis, Self-observation  Examination or observation of one’s own mental and emotional processes” जैसे अर्थ सामने आए। आज के लेख में व्यवस्थापक जी कुछ ऐसे प्रश्नों के उत्तर बताने का  प्रयास कर रहे हैं जिनके बिना अध्यात्म को अपने अंदर उतार पाना संभव ही नहीं है।  हम लोग भगवान् को एक व्यक्ति बनाकर उनका व्यक्तिकरण (Personification)  कर देते हैं, कभी पूछते ही नहीं हैं कि रावण के 10 सिर क्यों थे? सिर से निकलती गंगा, मस्तक पर चंद्रमा, तीन नेत्र वाले भोले शंकर, चार हाथ वाले विष्णु, चार सिर वाले ब्रह्मा जी, आठ भुजा वाली माँ दुर्गा आदि के बारे में हमने कभी भी कोई प्रश्न नहीं किये। इसका केवल एक ही कारण है कि हम में जिज्ञासा की कमी है,हमें डर रहता है कि जिज्ञासा से भगवान् नाराज़ हो जाएंगे लेकिन हम शायद नहीं जानते कि भगवान जिज्ञासुओं से कभी अप्रसन्न नहीं होते। जब तक सत्य का बोध नहीं होता तब तक हम भगवान को एक प्रतीक समझकर ही पूजते रहेंगें, उनके गुणों को धारण नहीं कर पायेंगें। यही कारण है कि इस मंच से बार-बार यही सन्देश दिया जाता रहा है कि गुरुदेव के कथन को अंतर्मन में उतार कर,निर्मल मन से उन्हीं  की भांति सादा  जीवन उच्च विचार अपनाने का प्रयास किया जाए।

पंडित लीलापत जी की लेखनी की सबसे बड़ी विशेषता ही यही है कि उन्होंने गुरुदेव को एक अबोध शिशु की भांति समझा एवं अपनी दस पुस्तकों के माध्यम से हमें समझाया। 

साथिओ,आज के लेख में व्यक्तिकरण (Personification),प्रतीक अध्यात्म,सार्थक अध्यात्म जैसे कठिन विषयों को समझने की दिशा में एक प्रयास है, हमारा प्रयास अवश्य ही सार्थक परिणाम लाएगा ऐसा हमारा विश्वास है। 

तो आइए विश्वशांति की कामना करें और  आज की गुरुकक्षा का शुभारम्भ करें :

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।

वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

अर्थात शान्ति: कीजिये प्रभु ! त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में,अन्तरिक्ष में, अग्नि – पवन में, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन में,सकल विश्व में अवचेतन में,शान्ति राष्ट्र-निर्माण और सृजन में,  नगर , ग्राम और भवन में प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण – कण में, शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए !  

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“हे इंद्र, तुम हमारे लिए गौओं को लाओ।”, ” दस सिर ताहि बीस भुज दंडा। रावन नाम वीर बरिबंडा ॥ “

हमारे धार्मिक साहित्य में इस प्रकार के कथन अनेक स्थानों पर पढ़ने में आते हैं। देवताओं के स्वामी को गौएँ लाने के काम से क्या लेना देना ? दस सिर वाला रावण किस मुँह से भोजन करता होगा, करवट लेकर कैसे सोता होगा ? ऐसे प्रश्न स्वाभाविक हैं लेकिन  मालूम नहीं श्रद्धा की अधिकता रहती है या जिज्ञासा की कमी कि हम पाठकगण ऐसे प्रश्नों से सदा कतराते हैं। शायद हमें यह भय हो कि ऐसी जिज्ञासा करने से ईश्वर नाराज़  हो जाएँगे या हमारी श्रद्धा स्थिर नहीं रह पाएँगी ।

कारण जो भी हों लेकिन यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि ईश्वर जिज्ञासु से कभी अप्रसन्न नहीं होते। ऐसा होता तो इसी धर्म साहित्य में जिज्ञासुओं के प्रश्न और उनके समाधानों के उल्लेख नहीं मिलते। जिज्ञासा ही सत्य का बोध होता है। भक्त को जिज्ञासु होना ही चाहिए, तभी वह अपने मन की भ्रांतियों के कोहरे  को हटाकर ईश्वर के गुणों एवं सामर्थ्यों  की झलक पा सकेगा और ईश्वर के प्रति अपनी मान्यताओं को सुदृढ़ कर अपने चिंतन और व्यवहार को सुधार पाएगा। 

हमारा संपूर्ण धर्म साहित्य ऐसे ही रूपकों और अलंकारों से युक्त भाषा में लिखा गया है। ऐसी भाषा में कहे गए प्रसंग जिज्ञासा उत्पन्न करते हैं और कथानक को  सरल  व रोचक बनाते हैं। उन कथाओं को लिखने में ऋषिओं का उद्देश्य मात्र मनोरंजन करना नहीं था बल्कि  अध्यात्म के,आत्मा-परमात्मा के, विज्ञान के रूखे नियमों व सिद्धांतों को रोचक बनाकर समझाना था। हम में से अनेकों साथी, बाल्यकाल से सत्यनारायण कि कथा सुनते आ रहे  और पंडित जी बताते आ रहे हैं कि “सत्य में नारायण विराजते हैं।” यह नीरस सा वाक्य भागवत नियम होते हुए भी साधकों को सत्य को धारण करने की प्रेरणा नहीं दे पाता, लेकिन सत्यवादी हरिश्चंद्र की मार्मिक कथा यह बताती है कि सत्यमार्ग से विचलित करने वाली अनेक कठिन परिस्थितियाँ हरिश्चंद्र के जीवन में आयीं लेकिन  सत्य के प्रति उनकी आस्था में कोई कमी नहीं आई। ऐसी कथा सुनकर, पढ़कर शिक्षित-अशिक्षित सभी की समझ में सत्य का महत्त्व आ जाता है और अपने स्वयं के जीवन को सत्यमार्ग पर चलाने की प्रेरणा मिलती है। 

राजा हरिश्चंद्र जी की कथा का महत्त्व बस इतना ही है। हरिश्चंद्र नाम के कोई राजा सचमुच हुए हों यां न हुए हों, इस बात से सत्य पर विश्वास करने वाले साधक का भला क्या हित होने वाला है? हित तो इस बात में है कि उसके अंतःकरण में यह नियम समा जाए कि “सत्य में नारायण का सदा वास रहता है।”  

इस बात पर हम सभी साथिओं को ,पाठकों को विचार करना चाहिए। कथा का सुनना,पढ़ना,चित्र को नमन करना,उसका पूजन करना केवल  प्रेरणा ही दे सकता है, ईश्वर दर्शन जैसा परिणाम नहीं दे सकता। यह प्रतीक अध्यात्म है। ईश्वर दर्शन जैसा कल्याणकारी परिणाम तो प्रेरणा को कार्यरूप में बदल देने से ही प्राप्त हो सकता है। यह सार्थक अध्यात्म है। गंगा स्नान पवित्रता की प्रेरणा देने वाला प्रतीक अध्यात्म है, चिंतन और व्यवहार में पवित्रता को साधना सार्थक अध्यात्म कहते है ।

हमारे धार्मिक ग्रंथों में, कैलेंडरों में, मंदिर में स्थापित प्रतिमाओं में,ईश्वर के विचित्र से लगने वाले रूपों के वर्णन हैं। सिर से निकलती गंगा, मस्तक पर चंद्रमा, तीन नेत्र वाले भोले शंकर, चार हाथ वाले विष्णु, चार सिर वाले ब्रह्मा जी, आठ भुजा वाली माँ दुर्गा आदि अनेक भगवत  स्वरूप पुराणों में दर्शाए गए हैं। ईश्वर को इन विचित्र स्वरूपों में प्रस्तुत करने का कारण भी ईश्वर के अनंत गुण व सामर्थ्य ही हैं। इन गुणों, सामर्थ्यो को रोचक ढंग से दर्शाने के लिए ही ऋषियों ने इन विचित्र स्वरूपों का निर्माण किया है। “एको ब्रह्म बहुधा वदन्ति” उक्ति के अनुसार एक ईश्वर की असंख्य विभूतियों को दर्शाने के लिए ही ऋषियों ने  देवी-देवताओं के असंख्य स्वरूपों का निर्माण किया है। 

गंगा पवित्रता की, चंद्रमा शीतलता का, तीसरा नेत्र (Third eye) जाग्रत विवेक बुद्धि का प्रतीक है। इन लक्ष्यों को जो सदा याद रखे और व्यवहार में लाए, वही सच्चा अध्यात्मवादी है। सच्चा अध्यात्मवादी बन पाने के लिए पवित्र व शीतल मन और जाग्रत विवेक बुद्धि का लक्ष्य याद रखना और व्यवहार में लाना आवश्यक है लेकिन  साधक इन नियमों को चलते-फिरते, काम करते, किस प्रकार सदा याद रख पाएगा? इस समस्या का ऋषियों ने सार्थक व प्रभावी हल खोज निकाला। उन्होंने शक्ति सामर्थ्यं का, गुणों व भावों का व्यक्तिकरण (Personification) कर दिया अर्थात उन भावों को “तेजस्वी व्यक्तित्व के तेजोवलय” के रूप में तथा विभिन्न आयुधों, वाहनों व अन्य वस्तुओं के रूप में दर्शाया। जैसे भगवान् शंकर की अखंड पवित्रता को अनवरत प्रवाहित होने वाली गंगधारा के रूप में, रावण की विद्वता को नौ सामान्य सिरों के रूप में, उसकी भ्रष्ट बुद्धि को गधे के एक सिर के रूप में चित्रित किया। Newstrack की 2025 की रिपोर्ट के अनुसार ज्योत्सना सिंह जयपुर में इस वर्ष के रावण  दहन में एक सिर गधे का होने की पुष्टि करती दिख रही हैं।   https://newstrack.com/tourism/dussehra-celebration-in-jaipur-unique-ravana-dahan-information-in-hindi-543491

पवित्रता, श्रद्धा, करुणा आदि सद्गुण नदी या चंद्रमा जैसे आकार वाले पदार्थ तो होते नहीं इसलिए उनको व उनके प्रभावों को समझना व स्मरण रखना बहुत कठिन होता है। इन निराकार (जिनका कोई आकर न हो) गुणों के आकार और उपयुक्त प्रतिनिधियों को चुनकर उन्हें एक तेजस्वी देह में चित्रित कर दिया जाए या गढ़ दिया जाए तो यह कठिन कार्य सरल व सुबोध बन जाता है। 

इसके आगे की बात कल वाले लेख में करना उचित रहेगा। 

धन्यवाद्,जय गुरुदेव


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