5 नवंबर 2025 का ज्ञानप्रसाद
पिछले कल और आज के दोनों ज्ञानप्रसाद लेखों की रचना करते समय ऐसा अनुभव हो रहा था जैसे हम फिर से प्राइमरी कक्षा में बैठे हों क्योंकि उस आयु के बच्चों को टीचर ने अनेकों बार फ़ोन के लाभ/हानियां विषय पर निबंध लिखने के लिए होमवर्क दिया होगा।
जो ज्ञान हम इन दोनों लेखों में प्राप्त कर रहे हैं हमारे नन्हें-मुन्नें/युवा पीड़ी इसे जानती है, हाँ हमारा सन्दर्भ अलग है,भावना अलग है, विचार अलग हैं लेकिन Crux यही है कि फ़ोन और सोशल मीडिया ने मनुष्य को मानव से मशीन बना दिया है। ऐसा कहना बिल्कुल नकारात्मक होगा कि We have reached to a point of “No return”, अभी भी बहुत कुछ हो सकता है, मशीन को मानव तक वापिस लाने में हम सबको अथक प्रयास करने हैं, परम पूज्य गुरुदेव ने ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के प्रत्येक सदस्य को एक बड़ी ज़िम्मेदारी सौंपी है,उस ज़िम्मेदारी से कन्नी काटना गुरुआज्ञा की अवहेलना होगी।
“संयम” की दिशा में रची गयी इस लेख श्रृंखला का समापन तभी सार्थक होगा जब हम इस शृंखला के सूत्रों को स्वयं अपनाएंगें एवं औरों को प्रेरित करेंगें।
कल से एक ऐसी रोचक लेख श्रृंखला का शुभारम्भ हो रहा है जिसे केवल पढ़ने से नहीं बल्कि स्टेज के किसी नाटक,धारवाहिक टीवी सीरियल की भांति ग्रहण करना होगा क्योंकि 2-way बातचीत होने वाली है।
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फ़ोन ने सारे विश्व को मनुष्य की हथेली पर ला कर रख दिया है लेकिन उसके असंयमित उपयोग ने मनुष्य को औरों से तो क्या स्वयं से भी दूर कर दिया है। आधुनिक समय का सबसे बड़ा तप, “फ़ोन संयम का तप” ही है। यह तप किसी जंगल में नहीं बल्कि हर घर में, हर जेब में, हर हाथ में करना है। जब मनुष्य फ़ोन पर नियंत्रण पा लेगा, तब वह अपने मन पर भी नियंत्रण पा सकेगा। फ़ोन संयम केवल तकनीकी अनुशासन नहीं, आधुनिक युग की आत्म-साधना है। यही संयम व्यक्ति को पुनः “मानव” बनाता है, एक ऐसा मानव जो जागरूक है,संतुलित है और अपने जीवन का स्वामी है।
21वीं सदी का मनुष्य तकनीकी क्रांति (Technology revolution) के युग में जी रहा है। मोबाइल फ़ोन ने जीवन को इतना सरल, सुविधाजनक और गतिशील बना दिया है कि आज यह मनुष्य की बुनियादी आवश्यकताओं, “रोटी, कपड़ा, मकान” के साथ चौथी आवश्यकता बन चुका है,जिस तकनीक ने हमें जोड़ा है, वही धीरे-धीरे हमें स्वयं से, परिवार से और समाज से काट भी रही है। यही वह बिंदु है जहाँ “फ़ोन संयम” की आवश्यकता सबसे अधिक महसूस होती है।
संयम का अर्थ है, सीमा में रहकर उपयोग करना। जिस वस्तु का असीम उपयोग लाभ के स्थान पर हानि करने लगे,उसे कण्ट्रोल करना अनिवार्य हो जाता है। आज फ़ोन की स्थिति भी यही है। यह जीवन का आवश्यक उपकरण तो है, परंतु असंयमित उपयोग के कारण यह मानसिक, शारीरिक, सामाजिक और आध्यात्मिक असंतुलन का कारण बन गया है।
आधुनिक जीवन में फ़ोन की आवश्यकता:
फ़ोन आज केवल संवाद का माध्यम नहीं रहा, यह हमारे शिक्षण, व्यवसाय, बैंकिंग, मनोरंजन,खरीद-दारी और सामाजिक संपर्क का महत्वपूर्ण केंद्र बन चुका है।
-ग्रामीण क्षेत्र से लेकर महानगरों तक फ़ोन ने सूचना पहुँचाने में क्रांति कर दी है।
-ऑनलाइन शिक्षा ने विद्यार्थियों को विश्व के ज्ञान से जोड़ दिया है।
-डिजिटल भुगतान ने अर्थव्यवस्था को गति दी है।
-स्वास्थ्य सेवाओं में डॉक्टर से परामर्श तक फ़ोन के माध्यम से संभव हो गया है।
-आपदा के समय फ़ोन जीवन-रक्षक साबित हुआ है।
यह तो कुछ एक फील्ड ही दर्शाए गए हैं, फ़ोन हमारे जीवन का एक ऐसा अभिन्न अंग बन चुका है कि उसके बिना कुछ भी संभव नहीं दिखता। यहाँ एक तथ्य समझने की आवश्यकता है और वह तथ्य यह है कि जब कोई भी उपयोग सीमा से आगे बढ़ जाता है, तब वरदान “विष” बन कर साबित होता है।
फ़ोन असंयम, एक नई मानसिक बीमारी:
आज का मनुष्य मोबाइल फ़ोन से इतना जुड़ गया है कि उसके बिना कुछ थोड़े से समय भी रहना असहनीय प्रतीत होता है। सुबह उठते ही सबसे पहले फ़ोन देखना और रात को सोने से पहले आखिरी बार स्क्रीन देखना, यह आज की “नई दिनचर्या” बन चुकी है।
आगे बढ़ने से पहले आइए कुछ चिंताजनक निम्नलिखित तथ्यों पर दृष्टि डाल लें :
-औसतन एक व्यक्ति प्रतिदिन 4–6 घंटे मोबाइल स्क्रीन पर बिताता है।
-किशोर वर्ग में यह समय 8 घंटे तक पहुँच जाता है।
-हर 10 में से 7 व्यक्ति “फ़ोन न होने पर बेचैनी” यानी Nomophobia से ग्रस्त हैं।
-नींद में कमी, ध्यान की कमी, चिंता,अवसाद,सामाजिक दूरी,ये सब फ़ोन-असंयम के दुष्परिणाम हैं।
फ़ोन असंयम ने मानसिक शांति,ध्यान,एकाग्रता और मानवीय संबंधों को इतना कमज़ोर कर दिया है कि क्या कहा जाए। जरूरी नहीं, लेकिन असंयमित आधुनिक परिवारों में अक्सर देखा गया है कि ड्राइंग रूम में बैठे परिवार के सभी सदस्य एक-दूसरे से बात करने के बजाय “ऑनलाइन कनेक्ट” होना अधिक उचित समझते हैं। यह डिजिटल विरोधाभास है अर्थात फ़ोन इतना लाभदायक होने के बावजूद हानियों से भी अछूता नहीं है।
फ़ोन असंयम के दुष्परिणाम:
1. मानसिक प्रभाव
अत्यधिक स्क्रीन-टाइम से मस्तिष्क पर लगातार आ रही इन्फॉर्मेशन का बोझ रहता है। यह ध्यान भंग करता है, एकाग्रता घटाता है और निर्णय-क्षमता को कमजोर करता है।
फ़ोन में मिलने वाले likes, comments, notifications मस्तिष्क में Dopamine नामक केमिकल रिलीज़ करते हैं, जिससे व्यक्ति नशे की तरह उसमें उलझा रहता है, उसे तलब रहती है, धीरे-धीरे यह आदत Digital addiction बन जाती है।
2. शारीरिक प्रभाव
लंबे समय तक स्क्रीन पर झुके रहने से गर्दन दर्द, आँखों की थकान, नींद में कमी (Insomnia) जैसी समस्याएँ आम हो गई हैं। “टेक्स्ट नेक ( Text neck)” और “डिजिटल आई स्ट्रेन( Digital eye strain)” आज के युग की नई बीमारियाँ हैं। Text neck में गर्दन में दर्द, अकड़न,कंधों में भारीपन या दर्द,सिर के पीछे की ओर दर्द,पीठ में खिंचाव,
हाथों में सुन्नपन या झुनझुनी,ध्यान केंद्रित करने में कठिनाई होती है। फ़ोन की लाइट हार्मोनल संतुलन बिगाड़ती है और बच्चों के मस्तिष्क पर विशेष हानिकारक प्रभाव डालती है।
3. सामाजिक प्रभाव
फ़ोन ने हमें वर्चुअल रूप से जोड़कर वास्तविक रूप से दूर कर दिया है। परिवार के साथ भोजन करते समय,पूजा पाठ, हवन,उद्बोधनों आदि में अक्सर देखा जा रहा है कि लोग फ़ोन पर व्हाट्सप्प मैसेज,यूट्यूब वीडियो देख रहे होते हैं। अनेकों धार्मिक वीडियोस में ऐसा देखा गया है। ऐसे प्रवृति वालों ने आपसी संवाद, संवेदना और अपनापन तो कम कर ही दिया है, अध्यत्मिकता का अनादर भी किया है।
कुछ वर्ष पूर्व ही “मानवीय संबंधों की आत्मीयता” को जो स्थान मिलता था उसे “इमोजी संस्कृति” ने ले लिया है। कहाँ वह युग था जब मनुष्य अपने अंतर्मन में उठ रही भावनाओं को व्यक्त करने के लिए अति सुन्दर फूलदार Letter pad के पन्नों पर, कैलीग्राफिक अक्षर बना-बना कर लिख देता था तो वोह भावनाएं दूसरे छोर पर बैठे प्राणी के प्राण झकझोड़ कर रख देती थीं। कहाँ आज का यह युग है “जहाँ हाथ जोड़ कर,अंगूठा दिखा कर” भावनाओं को व्यक्त करने की पूर्ति कर ली जाती है। ऐसे रिस्पांस पाकर इन पंक्तिओं के लेखक की व्यक्तिगत भावनाओं का जो आघात पंहुचता है,उसे पाठकों के समक्ष अनेकों बार प्रकट किया गया है।
4. नैतिक और भावनात्मक प्रभाव
असंयमित फ़ोन उपयोग व्यक्ति में अहंकार, तुलना, ईर्ष्या और असंतोष को बढ़ाता है। सोशल मीडिया पर दिखने वाली चमक-दमक जीवन के प्रति अवास्तविक अपेक्षाएँ जगाती है। परिणामस्वरूप मनुष्य डींगें तो बहुत मार रहा है लेकिन भीतर से अस्थिर,असंतुष्ट और खोखला होता जा रहा है।
5. आध्यात्मिक प्रभाव
फ़ोन पर निरंतर व्यस्तता मनुष्य की आंतरिक शांति, ध्यान और साधना की क्षमता को कम कर देती है। आत्मचिंतन और आत्मसंवाद के लिए समय ही नहीं बचता।
“मौन” और “एकांत”, आत्मविकास के दो महत्वपूर्ण आधार, फोन की निरन्तर रिंग टोन में खो गए हैं।
उपरोक्त हानियों को देखते हुए फ़ोन संयम बहुत ही आवश्यक हो गया है:
संयम का उद्देश्य किसी वस्तु का त्याग नहीं, बल्कि संतुलित उपयोग है।
आज के समय में मनुष्य इतना आगे निकल चुका है कि मोबाइल का त्याग असंभव है लेकिन अभी भी उसका “विवेकपूर्ण उपयोग” करना बहुत ही आवश्यक है।
“संयम” आधारित लेख श्रृंखला के वर्तमान 20 लेख और पूर्वप्रकाशित 60 लेखों ने मानव जीवन के तीनों दिशाओं में संतुलन के लिए संकेत दिए हैं। समय, विचार और आवश्यकता के तीनों संयम से
व्यक्ति समय का सदुपयोग कर सकता है, ध्यान केंद्रित रख सकता है और मानसिक शांति प्राप्त कर सकता है। ऐसा करके मनुष्य अपने जीवन को “मशीन” से हटाकर “मानव” की ओर ले जा सकता है।
“फ़ोन संयम” कोई राकेट साइंस नहीं है, अनेकों साथी इससे भलीभांति परिचित हैं लेकिन अनेकों ऐसे भी होंगें जो जानते हुए भी संयम करने में असमर्थ हैं। ऐसे साथिओं के लिए निम्नलिखित संक्षिप्त सन्देश लाभदायक हो सकते हैं :
-प्रतिदिन फ़ोन उपयोग के लिए अपनी दिनचर्या के अनुसार निश्चित समय तय करें।
– घर में कुछ क्षेत्र ( भोजन कक्ष, मंदिर, शयनकक्ष) को “नो फ़ोन ज़ोन” घोषित करें। परिवार के साथ समय बिताते हुए मोबाइल को एक तरफ रख दें। ऐसा करने से पारिवारिक संबंध गहराते हैं।
– हर छोटी सूचना मन को विचलित करती है। अनावश्यक नोटिफिकेशन बंद करने से मानसिक शांति बनी रहती है।
-सप्ताह में एक दिन Digital Detox Day रखें। उस दिन केवल वास्तविक जीवन में जुड़ें,किताबें पढ़ें, प्रकृति से मिलें, सैर करें, या ध्यान करें ताकि आपके अंदर के विकारों का नाश हो सके।
-Reel life को छोड़कर “Real life” को प्राथमिकता दें। हर अनुभव को तुरंत पोस्ट करने की आदत छोड़ें। जीवन को जीने का आनंद तभी है जब हम उस क्षण को अनुभव करते हैं, न कि कैमरे में कैद करें। अक्सर देखा गया है कि आज का मनुष्य जहाँ भी जाता है उस “दुर्लभ पल” का आनंद उठाने के बजाए फोटोग्राफी करने,सोशल मीडिया पर पोस्ट करने,फिर रेस्पोंस लेने,काउंटर रिस्पांस लेने में ही बर्बाद कर देता है।
-फ़ोन संयम केवल बाहरी अनुशासन नहीं, यह “आंतरिक साधना” भी है। जब मन बार-बार मोबाइल की ओर भागे, तो स्वयं से पूछें, “क्या यह आवश्यक है?” मात्र ऐसा पूछना ही मन को संयमित कर देगा।
फ़ोन संयम और भारतीय चिंतन:
भारतीय संस्कृति में “संयम” को जीवन का सर्वोच्च गुण माना गया है।
गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं: “युञ्जन् एवम् सदा आत्मानं योगी नियतमानसः।” अर्थात् जो योगी अपने मन को संयमित करता है, वही स्थिरता प्राप्त करता है। वेदों और उपनिषदों में भी संयम को आत्मशुद्धि का साधन बताया गया है। फ़ोन संयम उसी परंपरा की आधुनिक आवश्यकता है।
जिस प्रकार प्राचीनकाल में इंद्रिय संयम से ध्यान और ज्ञान की प्राप्ति होती थी, वैसे ही “फ़ोन संयम” हमारे मानसिक संतुलन का साधन है। ऐसा करने से आत्मनियंत्रण और अनुशासन बढ़ता है,समय का सदुपयोग होता है, परिवार और मित्रों से वास्तविक जुड़ाव गहराता है, मन की शांति और एकाग्रता बढ़ती है,कार्यकुशलता और सृजनशीलता में वृद्धि होती है।
यदि समाज का प्रत्येक व्यक्ति थोड़ा सा संयम अपनाए, तो “एक नई डिजिटल संस्कृति” विकसित होगी जहाँ तकनीक मानव की दासता नहीं, साधना बनेगी। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार इस नई संस्कृति को वर्षों से अपना रहा है, इस डिजिटल संस्कृति ने अनेकों परिवारों के साथ स्थूल सम्बन्ध न होने के बावजूद आत्मिक सम्बन्ध बनाये हैं।
धन्यवाद्, जय गुरुदेव