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समाज और की नाक  चिंता के बजाए दिमाग और विवेक की चिंता करें

3 नवंबर 2025 का ज्ञानप्रसाद

1977 में प्रकाशित परम पूज्य गुरुदेव की दिव्य रचना “शक्ति संचय का स्रोत-संयम” पर आधरित लेख श्रृंखला का आज 20वां एवं समापन लेख प्रस्तुत किया जा रहा है। मात्र 69 पन्नों में समाहित लगभग 19000 शब्दों को 20 विस्तृत लेखों (36000 शब्दों) में समझना, लिखना, साथिओं संग चर्चा करना बहुत ही संतुष्टि एवं प्रसन्नता प्रदान कर रहा है। विश्व भर में फैले, अलग-अलग सोशल मीडिया साइट्स से हमारे साथ जुड़े समर्पित साथी भी ऐसी ही प्रसन्नता अनुभव कर रहे हैं,उनके नियमित कॉमेंट्स इस तथ्य के साक्षी हैं। सभी साथिओं का ह्रदय से धन्यवाद् करते हैं। 

भांति-भांति के संयम का ज्ञान प्रदान करती इस लेख श्रृंखला का समापन “अर्थसंयम” से हो रहा है। यह एक ऐसा विषय है जिससे हर कोई परिचित तो है लेकिन संयम करने में असमर्थ हैं, शायद आज के लेख का अमृतपान करने के बाद उनकी विचारधारा में परिवर्तन हो पाए। 

गुरुवर की पुस्तक पर आधरित लेख श्रृंखला का समापन तो हो गया है लेकिन कल एक ऐसे मॉडर्न संयम की चर्चा होने वाली है जिससे हम सब प्रभावित हैं। 

आइए आज के ज्ञान का अमृतपान करें : 

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श्रम करना, धन कमाना प्रत्येक मनुष्य के जीवन का मुख्य उद्देश्य है। मनुष्य धन से ही अपनी अधिकतर आवश्यकतायें पूरी करता है। धन कमाने का मुख्य उद्देश्य जीवन की दैनिक एवं मूल आवश्यकताओं को पूरा करना ही है। आगे भी कई बार कह चुके  हैं आज फिर दोहरा रहे हैं:मनुष्य के जीवन में धन बहुत कुछ है लेकिन सब कुछ नहीं है।  मनुष्य को मूल बात समझने की बहुत  बड़ी ज़रुरत है कि  आवश्यकताओं की कोई सीमा नहीं है। जिसे शुरू में luxury कहा जाता है,वही कुछ समय बाद आवश्यकता बन जाती है। पाठको,अपने आसपास तनिक दृष्टि दौड़ा कर तो देख लो, कितनी ही वस्तुएं  कूड़े कर्कट की भांति निकल आयेगीं जिन्हें आवश्यक समझ कर खरीद लिया था।

मनुष्य की कुछ आवश्यकताएं तो ऐसी हैं जिनके बिना निर्वाह संभव ही नहीं है। कुछ बहुत ही साधारण सी हैं,कुछ बहुत ही अनिवार्य हैं। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी आर्थिक स्थिति को देखकर ऐसी व्यवस्था बनाए कि अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति पहले हो और फिर कम अनिवार्य आवश्यकतायें पूरी हो सकें। इस प्रक्रिया को ही Money management कहा जाता है।

लेकिन सच्चाई तो यह है कि बहुत से लोग धन का उपयोग झूठी शानशौकत, दिखावे, फैशन परस्ती एवं दुर्व्यनों की पूर्ति में ही समझते हैं। गुरुदेव ने कहा है कि धनी  लोगों को चाहिए कि  अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के बाद कुछ समाज कल्याण का भी सोचें। अक्सर देखा गया है कि धनी लोगों को देखकर निर्धन लोग अपनी स्थिति को भूल जाते हैं एवं उन्हीं की नक़ल करते-करते न जाने क्या कुछ लुटा देते हैं। वे समझते हैं कि इसी में बड़प्पन है। “समाज क्या कहेगा,लोग क्या कहेंगें, समाज में हमारी नाक कट जाएगी” आदि विचारों ने साधारण परिवारों को उजड़ने के लिए विवश कर दिया है। मनुष्य को चाहिए कि वह समाज और  नाक की चिंता के बजाए दिमाग और विवेक की चिंता करे। 

मनुष्य द्वारा अपनी किसी भी संपदा की फिजूलखर्ची  का एकमात्र कारण उसकी अदूरदर्शिता ही है। मनुष्य ने धन को झूठी शानशौकत की पूर्ति का साधन मान लिया है। यह मानना एक भ्रम है कि जितनी शानशौकत का प्रदर्शन करेंगे, जितने ठाठबाठ से रहेंगे और अपनी आवश्यकताओं को जितना अधिक बढ़ा लेगें लोग हमें उतना ही सुखी समझेंगें, लेकिन यहाँ एक बहुत ही व्यावहारिक प्रश्न उभर का आता है “क्या सभी धनी लोग सुखी हैं ?” इसी प्रश्न को एक अन्य  रूप में देखा जा सकता है कि प्रत्येक मनुष्य की सुख की परिभाषा अलग है। लोग भले ही समझने लगें कि आप बहुत सुखी हैं लेकिन व्यर्थ की आवश्यकताओं को बढ़ा लेने से जो आर्थिक परेशानियां खड़ी हो जाती हैं वे हमें बड़ी बुरी तरह दुःखी  और संत्रस्त करके रख देती है। उचित अनुचित का विचार न कर जब अपनी सामर्थ्य से भी अधिक धन चाहने वाली आवश्यकतायें बढ़ा  ली जाती हैं तो व्यक्ति उन कृत्रिम ओवश्यकताओं के फेर में पड़कर कहीं का नहीं रह जाता है ।

यह कृत्रिम आवश्यकताएं  ऐसा दुर्गुण है जिससे मनुष्य अपने पैरों पर स्वयं ही  कुल्हाड़ी मारता है। 

यदि सूक्ष्मदृष्टि से गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो हमें अपने जीवन में ऐसी कई घटनायें याद आ सकती हैं जो हमारे फिजूलखर्ची-स्वभाव को उजागर करती हैं  और उथलेपन और संकुचित दृष्टिकोण का प्रतीक हैं। वास्तविकता तो यह है कि जो जितना महान् होगा वह उतना  ही सजावट और प्रदर्शन के विरुद्ध होगा । अविवेकी मनुष्य  केवल इस प्रवृत्ति के वशीभूत होकर कि लोग मुझे किसी प्रकार से कम न समझें, पैसे को अनाप-शनाप खर्च करते चलता है। अपनेआप को धन के आधार पर  बड़ा Show कराने की तृप्ति बन जाती है। इसके विपरीत यदि धन को सोच समझ कर खर्च किया जाय,तो यह हमारे जीवन विकास में “सहायक गुण” हो सकता है। संसार में जितने भी महापुरुष, बड़े विद्वान एवं विचारवान व्यक्ति हुए हैं उन्होंने इसी गुण से काम लिया है ।

मितव्ययता अर्थात सोच समझकर खर्च करना, किसी भी मनुष्य के जीवन में बड़ा महत्व लाता है। यह एक असाधारण गुण है। जो लोग मितव्ययता के महत्व को नहीं समझते और उसकी शक्ति से अपरिचित रहते हैं वे हमेशा आर्थिक समस्याओं में फँसे रहते हैं।आज मिथ्या फैशन के नाम पर समाज में होड़ लगी हुई है। फैशन के व्यसन से आज स्त्री और पुरुष, दोनों ही ग्रस्त हैं। स्त्रियों में फैशन के नाम पर हो रही  फिज़ूलखर्ची में अंग-प्रदर्शन से होने वाले कुकर्म किसी भी पाठक से छिपे नहीं हैं। माता पिता को उलटे-सीधे फैशन करते देखकर बच्चे /युवा पीढ़ी कहाँ पीछे रहने वाली है। जो माता पिता बच्चों की इस प्रकार की ज़रूरतों को पूरा करने में असमर्थ होते हैं, वे बच्चों की निगाह में घटिया और निर्धन हैं।

वस्त्रों की आवश्यकता शरीर को ढकने के लिए, सर्दी-गर्मी से बचाने के लिए होती है। परम पूज्य गुरुदेव एवं वंदनीय माता जी ने सारा जीवन धोती कुर्ता/सूती साड़ी में बिता दिया। अफ्रीका यात्रा वाला गुरुदेव का संस्मरण भला किसे भूल हुआ है। माता जी के द्वारा आग्रह करना कि कुर्ता फट  गया है,नया ले लेते हैं, भला किस से छिपा हुआ है। गुरुदेव ने उसी को टाँके लगाकर रिपेयर करना उचित समझा, ऐसे गुरु को नमन करते हैं। वर्षों पूर्व गुरुदेव ने जब यह पुस्तिका लिखी होगी,तब से अब तक जो बदलाव आया है उससे कोई भी अपरिचित नहीं है। 

फिजूलखर्ची की बात आती है तो खाने से पीछे क्यों रहा जाए ? गुरुदेव कहते हैं कि खाना यदि पेट भरने के लिए खाया जाए तो ठीक है लेकिन यदि Show business के लिए, प्रदर्शन के लिए बड़े-बड़े रेस्टोरेंट्स  आदि में जाया जाए तो और बात है। आजकल खाने की थालियां सोशल मीडिया साइट्स पर शेयर करने की प्रथा बहुत ही प्रचलित हो चुकी है। खोखलेपन,उथलेपन की यह अद्भुत मिसाल है। दिखावे के लिए अपना घर चाहे उजड़ जाए, किसी को कहाँ फिक्र है। 

आधुनिक युग में  “जीवन स्तर, Standard of living  की प्रचलित परिभाषा  यह हो गई है कि मनुष्य कितने कीमती,ब्रांडेड  वस्त्र पहनता है, खाने पीने में,Holidaying आदि में, ब्याह शादी दावत-भोज आदि के लिए कितना धन फूंकता है। इसी के आधार पर उसका बड़प्पन आंका जाता है। 

इस झूठी शान को पूरा करने के कारण, प्रदर्शन के लिए ही मनुष्य दिन-रात कमाने की फिक्र  में लगा रहता है। ऐसी स्थिति में उसके लिए ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के लिए समय कहाँ बच पाता है, ऐसे सभी लोगों को एक ही बहाना सूझता है- “समय ही नहीं मिलता !!!” समय तो सबके पास 24 घंटे ही है,न एक सेकंड कम, न एक सेकंड अधिक।   

फैशन/जेवर व्यसन, बड़प्पन अमीरी का चिह्न है,यह केवल मूढ़ लोगों का ही दृष्टिकोण  है। यह अबुद्धिमत्ता और मूढ़मति होने का चिह्न है। समाज में धन का प्रदर्शन करने वालों की नही, सादगी सुसज्जा और सुरुचिपूर्ण ढंग से काम करने वाले सद्गुणी व्यक्तियों की प्रतिष्ठा होती है ।

हम जिस ढंग  से अनावश्यक बातों के लिये इतना अधिक धन खर्च करते हैं,अगर उनके उचित-अनुचित परिणामों पर Unbiased  रूप से विचार करें और फिजूलखर्ची  को रोक कर उसी पैसे को अच्छे कार्यों में लगायें तो न केवल लाभ होगा बल्कि हमारी शारीरिक, मानसिक और सामाजिक उन्नति भी हो सकती है। दरअसल हम जितनी आवश्यकतायें बढ़ाते हैं परेशनियाँ उतनी ही बढ़ती  जाती हैं।  आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये उचित-अनुचित साधनों का प्रयोग करना पड़ता है । प्रत्यक्ष में इसके परिणाम बेईमानी, घूस, चोरी, हत्या, गृह कलह आदि के रूप में देख रहे हैं। 

समाज में अधिकांश आर्थिक अपराधों की जड़ यही धन का अविवेकपूर्ण प्रदर्शन है, जिन लोगों को वैसे साधन और अवसर उपलब्ध नहीं हो पाते, जो अपने से अमीर व्यक्तियों के पास उपलब्ध होते हैं तो निर्धन भी उन साधनों को प्राप्त करने के लिए ललक उठते हैं। वह ललक इतनी तीव्र होती है कि निर्धन व्यक्ति किसी भी ढंग से उसे प्राप्त कर लेना चाहता है । 

सम्पन्न हो या निर्धन,फिजूलखर्ची  तो किसी को नहीं करनी चाहिए। फिजूलखर्ची  व्यक्तिगत एवं  सामाजिक दृष्टि, दोनों से अनर्थकारी ही है इसलिए कहावत है कि “धन कमाना सरल है लेकिन  उसे खर्च करना कठिन है “ साधारण अर्थों में तो यह कहावत हास्यास्पद मालूम पड़ती है। कोई भी कह उठेगा कि खर्च करने में क्या है चाहे जितना पैसा हो उसे खर्च कर दूँ लेकिन बात ऐसी नहीं है। कहावत अपनेआप में Economics  का महत्वपूर्ण सूत्र है जो बताता है कि धन कहाँ और कैसे व्यय किया जाए। जिसे इस सूत्र का ज्ञान नहीं वह अज्ञानी है। 

भारतीय जीवन में सादगी को महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता रहा है। हमारे पूर्वजों ने इसी व्रत को अपनाकर ज्ञान की महान् साधना की। इसी  ज्ञान के कारण समस्त संसार  में भारत को सभ्यता का सूर्य, ज्ञान विज्ञान का देश माना जाता रहा। इसी के बल पर वह जगद्गुरु कहलाया ।

सादगी एक ऐसा नियम है जिसके सहारे हम अपने वैयक्तिक तथा सामाजिक जीवन की बहुत सी समस्याओं  को सहज  ही हल कर सकते हैं। सादगी द्वारा अपना बहुत सा समय एवं धन बचा सकते हैं। इस प्रकार बची हुई शक्तिओं को अपने उत्कर्ष के लिये सदुपयोग कर सकते हैं । हमारे पूर्वजों ने सादगी में  जीवन बिताने के लिए कहा है ताकि हम अपनी शक्ति को अच्छे कार्यो में प्रयोग कर  सकें। ऋषियों का जीवन इसी सत्य का प्रतीक था और किसी भी महान् पथ का साधन करने वाले महापुरुष को सादगी का मार्ग ही अपनाना पड़ता है । 

जीवन के महान लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए,हर व्यक्ति को  उल्लेखनीय सफलताओं के लिए यही मार्ग अपनाना होगा। मनुष्य को प्राप्त असंख्य विभुतियां यदि ठीक प्रकार नियोजित की जा सकें तो हर क्षेत्र में स्वर्गीय परिस्थितियां उत्पन्न की जा सकती हैं। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का प्रत्येक साथी इन्हीं सूत्रों का पालन करते हुए स्वर्गीय जीवन व्यतीत कर रहा है। इस साधारण से सूत्र को समझने में किसी की भी  बुद्धि अक्षम नहीं है लेकिन तथ्यों को समझना एक बात है, उसे चरितार्थ करना दूसरी। विभूतियों को सही दिशा में नियोजित करना संयम साधना के बिना संभव नही। 

आज के लेख का एवं “संयम पर आधारित इस लेख श्रृंखला” का महत्वपूर्ण सन्देश है कि हम संयम  साधना का अभ्यास जितनी अधिक तत्परता से कर सकेंगें, आत्मकल्याण एवं जनकल्याण की दिशा में उतनी ही अधिक प्रगति कर सकेंगे।

धन्यवाद


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