वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

मनुष्य के पास “चमत्कारी विशेषताओं” वाला अल्लादीन का चिराग है

30 अक्टूबर 2025 का ज्ञानप्रसाद

पिछले कई दिनों से गुरुकक्षा में गुरुदेव की अद्भुत रचना “शक्ति का स्रोत संचय-संयम” पर आधारित लेख श्रृंखला का अध्ययन हो रहा है, तरह-तरह के संयम पर चर्चा हो रही है। आज का लेख, समय और श्रम पर आधरित कल वाले लेख की ही Extension है। आज के युग की सबसे बड़ी दरिद्रता “समय की दरिद्रता” है जिससे हमारा ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार भी अछूता नहीं है। जिन साथिओं ने समय का सदुपयोग किया,ज्ञानरथ परिवार में यथासंभव योगदान किया, उनकी आत्मा स्वयं ही इस मंच की भूरी-भूरी प्रशंसा करने लग पड़ी, किसी को भी,कभी भी कहने की ज़रुरत नहीं पड़ी। 

साथिओं से अनुरोध है कि अपने अंदर छिपे अल्लादीन के चिराग से लाभ उठायें और कायाकल्प होते देखें। 

आइए,आज के लेख का शुभारम्भ करें : 

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।

वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

अर्थात शान्ति: कीजिये प्रभु ! त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में,अन्तरिक्ष में, अग्नि – पवन में, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन में,सकल विश्व में अवचेतन में,शान्ति राष्ट्र-निर्माण और सृजन में,  नगर , ग्राम और भवन में प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण – कण में, शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए !  

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कहा जाता है कि अल्लादीन  के पास एक ऐसा करामाती चिराग था जिससे वह मनचाही चीजें उत्पन्न कर लेता था। यह तो कही सुनी  बात है परन्तु मनुष्य को अपनी शक्तियों के रूप में ऐसे न जाने कितनी चमत्कारी विशेषतायें मिली हैं  जिनसे जी चाहा काम करवाया  जा सकता है। यह सभी देव शक्तियां, श्रम-शक्ति के रूप में ही कार्य करती हैं। आवश्यकता है तो केवल उन्हें संयमित और नियंत्रित करने भर की है। लोग बड़ी सफलताओं के लिए अपनी साधनहीन असहाय स्थिति का रोना रोते-रोते सारा जीवन गुज़ार देते  हैं जबकि उसी समय में विवेक/बुद्धि  वाले अपनी शक्तियों को पहचान कर न जाने कहाँ से कहाँ निकल जाते हैं। यहाँ समझने वाला एक सटीक तथ्य है कि  जिसने भी प्रगति के उच्च शिखर छुए है वे अति निम्न  स्थिति से ही ऊपर उठे हैं। आलसी लोगों को अक्सर कहते हुए सुना जाता है कि उस मनुष्य ने  तो कोई श्रम नहीं किया उसे सब कुछ फैमिली बिज़नेस से ही मिल गया, उसी  ने आकाश पर चढ़ा दिया  लेकिन ऐसा नहीं है, फैमिली से मिलाअवश्य है लेकिन यदि वह श्रम न करेगा तो दिनों में ही अर्श से फर्श पर आ गिरेगा।  

किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आलस्य  को छोड़कर सक्रिय हुआ जाय तो मनुष्य की कोई भी इच्छा,आकांक्षा अधूरी नहीं रह सकती, शर्त केवल एक ही है : श्रमशक्ति और समय-संपदा  का सही दिशा में प्रयोग करना, इसलिए तो कहा गया है कि श्रम तो गधा भी करता है। 

मनुष्य का मनोयोग, अनुकूलताएं उत्पन्न करने में, साधन जुटाने में कभी भी असफल नहीं रहता। परिस्थितयां कब किसी के लिए अनुकूल थीं? उन्हें अपनी समर्था और पात्रता के अनुसार अनुकूल बनाना पड़ता है। इसीलिए तो कहा गया है: God helps those who help themselves .आकांक्षा और सूझबूझ मनुष्य के लिए वह रास्ता निकालती ही रहती है जिससे कठिनाइयों का हल करना सम्भव हो सके। मनुष्य के लिए अति आवश्यक है कि वह अपनी श्रमशक्ति को अनावश्यक कार्यों से दूर रखे और उपयोगी दिशा में नियोजित करे। इसके लिए किसी स्कूल में फुल टाइम कोर्स आदि करने की आवश्यकता नहीं है, प्रेरणा मनुष्य के अंदर से ही उजागर होती है। मार्गदर्शन के लिए ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार सदैव उपलब्ध तो है ही। 

मनुष्य अपना बहुत सारा समय और श्रम व्यर्थ के कार्यों में बर्बाद किया जा रहा है। यदि समय का  ठीक से उपयोग किया जाय,जीवन का नियोजित-व्यस्त कार्यक्रम बनाया जाय और आत्मविकास के लिए परिश्रम किया जाय तो न उसे खुद भी नहीं मालूम कि क्या Achieve  जा सकता है। विनोबा भावे की स्कूली शिक्षा एक छोटे दर्जे तक ही की थी लेकिन उन्होंने अपने जीवन का ऐसा व्यस्त कार्यक्रम बनाए रखा कि समाज सेवा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य करते हुए भी वैयक्तिक अध्ययन जारी रखा। आज उन्हें विचारधाराओं के विद्वान् के रूप में जाना जा सकता है। संसार में उनकी तुलना के मनीषी गिने चुने ही होंगे। शिक्षा के क्षेत्र में, किसी विशेष विषय पर कोई भी प्रगति, कोई भी  चमत्कार नहीं लेकिन नियमित/अनवरत क्रमबद्ध श्रम ही उन्हें विश्व प्रसिद्ध बना गया। 

श्रम के महत्व को जान लेने के बाद यह इच्छा उठना स्वभाविक है कि स्वयं भी श्रमशक्ति के सदुपयोग द्वारा प्रगति की जाय लेकिन आलस्य यह बहाना करते हुए भ्रमित करने लगता है कि अब तो उम्र हो गई है, अब कुछ नहीं हो सकता। बहुत से लोग यह सोचकर चुप बैठ जाते हैं  कि सारी उम्र तो गुजर चुकी है, थोड़ा बहुत समय बचा है उसके लिए व्यर्थ क्यों परेशान हुआ जाय। ऐसे आलस्यवादिओं से यदि कहा जाये कि अब थोड़ी उम्र बची है तो राम-राम ही जपा करो, ज्ञानप्रसाद के अध्यन के लिए 24 घंटों में मात्र 30  मिंट ही लगाया करो तो उत्तर मिलेगा कि  अभी इस काम के लिए उम्र ही कहाँ हुई है, जैसे कि यह काम बूढ़ों का है। ऐसे टालमटोल वाले,आलस्यवादी कुछ नहीं कर पाते और मौज मस्ती करते ही इस संसार से विदा हो जाते हैं। हम सबके आसपास अनेकों ऐसी प्रतिभाएं मिल जाएँगी जो घंटों जुए में व्यतीत कर रही हों लेकिन सार्थक कार्य करने के लिए कहो भांति-भांति के बहाने मिल जायेंगें।    

यह एक Tried-tested-certified(TTC) Fact है कि आत्मपरिष्कार  के लिए कोई उमर नहीं होती है और श्रम लिए आयु का कोई बन्धन नहीं होता। यह सत्य है कि बढ़ती आयु में श्रम करने की कैपेसिटी कम हो जाती है लेकिन समाप्त नहीं होती, उसी श्रम से किसी अन्य दिशा में बहुत कुछ किया जा सकता है। हमारा  ज्ञानरथ परिवार इसका साक्षात् उदाहरण  है, वरिष्ठ ही इसमें सबसे अधिक सक्रीय हैं क्योंकि उन्हें इस बात का पूरी तरह से ज्ञान है कि जितना भी समयदान कर रहे हैं अपने आत्मपरिष्कार के लिए कर रहे हैं, गुरुदेव के ऊपर कोई भी अहसान नहीं कर रहा।  

यदि सोच लिया जाए कि श्रम-अपव्यय की जो गलती हो गयी,सो हो चुकी,अब भी श्रम की रीति नीति अपना लें तो स्वयं ही कहेंगें  कि सारा  जीवन व्यर्थ के प्रपंच में ही गुज़ारते रहे। शरीर को जितना भी आराम, स्पर्श-सुख दिया जाय, कम ही लगेगा किन्तु आत्मिक प्रगति के लिए जैसे ही श्रम करने में तत्पर हुआ जायेगा तो स्पर्श-सुख  के आकर्षण अपनेआप ही कम होते जायेंगें। मनुष्य स्वयं ही कोलकाता छोड़ काशी की ओर अग्रसर होता जाएगा। 

परमपिता परमात्मा ने मनुष्य को “समय” के रूप में  एक अद्भुत सम्पदा का वरदान दिया है। जिस मनुष्य ने आलस्य में पड़े रहकर बहुत सारा समय निठ्ठल्लेपन में  बिता दिया, उसे समझ लेना चाहिए कि जीवन का महत्वपूर्ण अंश बर्बाद हो गया। जो भी हमें अभीष्ट हो, जो कुछ भी हम चाहते हों उसी में निष्ठापूर्वक  लग जाना चाहिए, अवश्य सफलता मिलेगी।  शेखचिल्ली की तरह हवाई किले बनाते रहना और श्रम से कतराते रहना,उचित नही होता। अनेकों  मनुष्यों ने सफलता पाई है लेकिन  उन सबको श्रम की अग्नि परीक्षा में स्वयं को खरा सोना सिद्ध करना पड़ा है ।

आलस्य दरिद्रता का ही दूसरा नाम है। आलसी बनने का अर्थ ही दरिद्र बनने  की भूमिका तैयार करना है। जब मनुष्य को आलस्य घेर  लेता है तो उसका पतन आरम्भ हो जाता है। 

यह मान्यता सही नहीं कि “आलसी सुखी रहता है”, सुख तो सन्तोष में है और सन्तोष केवल कर्त्तव्यपालन करने वाले को ही मिलता है। जो व्यक्ति  बेकार बैठा रहता है उसकी आत्मा उसे धिक्कारती रहती है और दूसरे पुरुषार्थी साथियों की तुलना में उसे अपनी हीनता स्पष्ट दिखाई देती है जिसके कारण उसे पग-पग पर लज्जित होना पड़ता है । समय गँवाने, आराम और आलस में बैठे रहने को सुख समझने और आलस्य में  बड़पन्न  देखने की भ्रान्त विचारधारा को जितनी जल्दी बदला जा सके उतना ही अच्छा है। प्रायः लोग कहा करते है कि हमें समय  का अभाव रहता है और हम आवश्यक कार्यों को भी निपटा नहीं  पाते। समय के अभाव की शिकायत तभी उत्पन्न होती है जब उसका अनियोजित उपयोग किया जा रहा हो जितना समय हमारे पास है उतना ही समय आदरणीय चिन्मय जी के पास है, उन्होंने तो गुरुदेव -माता जी को घर-घर में स्थापित करने के लिए, सारी ज़िम्मेदारियाँ निभाते हुए हुए विश्व का चप्पा-चप्पा छान डाला है। आलस्य से जन्मीं बहानेबाज़ी का कोई उपाय नहीं है। 

समय के श्रेष्ठतम सदुपयोग का एकमात्र उपाय, उसका सुव्यवस्थित विभाजन, दिन भर के कार्यों पर दृष्टिपात करना होगा। आलसी व्यक्ति दिन भर के कार्यों का Unbiased होकर विश्लेषण  करे तो स्वयं ही अपने को धिक्कारेगा कि अधिकांश समय सुस्ताते,बदन तोड़ते,गपशप और व्यर्थ की बकवासों में बर्बाद हुआ। यदि समय के महत्व को समझा जाता,उसके सदूपयोग का महत्व समझा होता तो बहुत सा खाली समय निकल सकता था जिसके उपयोग से योग्यता/ क्षमता बढ़ाई जा सकती थी ।

फुरसत नहीं मिलती अवकाश नहीं रहता जैसे बहाने अनुपयुक्त है । समय का ठीक विभाजन कर लेने और हर काम मुस्तैदी तथा तत्परता से करने पर जितना अभी किया जाता है, उससे दुगना  बड़ी आसानी से हो सकता है । होता यह है कि हम अपने कामों को बेकार, भार समझकर आधे मन से रोते हुए करते हैं, फलस्वरूप काम करने की गति मन्द रहती है । बहुत देर में धीरे-धीरे काम करने से थोड़ा सा काम ही  हो सकता है । यदि पूरे मनोयोग और तत्परता से कार्य में पूरा-पूरा रस लेते हुए किया जाय तो वह अधिक अच्छा और अधिक मात्रा में हो सकता है। ऐसी दशा में समय की बचत होना स्वभाविक है। इसी प्रकार जिनके कार्य बिना व्यवस्थित, बिना समय निर्धारण के होते हैं, जिनमें क्रम एवं तारतम्य नहीं होता वे सारे दिन घिस-घिस करते रहने पर भी इतने कम होते हैं कि उन्हें पूरे दिन का परिश्रम करने में भी संकोच होता है । मुस्तौद और क्रमबद्ध कार्यकर्ता जो  काम तीन-चार घन्टे में कर लेते हैं, रोते झीखते लकीर पीटने  वालों से दिन भर में भी  पूरा नहीं हो पाता। यदि टाइम टेबल  बनाकर, दिन भर का कार्यक्रम निर्धारित कर लिया  जाये तो बहुत कुछ पता चल जायगा।  टाइम टेबल  बनाकर काम करने की आदत इतनी जादूभरी है कि यह मनुष्य को समय के सदुपयोग का अभ्यस्त बना देती है। जिस प्रकार  हिसाब लिखे बिना लाभ-हानि  का कुछ पता नहीं चल पाता, उसी तरह टाइम टेबल  बनाये बिना काम  करते रहने वाले को यह प्रतीत ही नहीं होता कि समय का उचित उपयोग हुआ या नही। अनेकों काम जो आज से  कल पर टाले जाते हैं, उसका कारण भी समय का समुचित निर्धारण एवं विभाजन न कर सकने का आलस्य ही होता है । यदि यह दोष दूर कर लिया जाय तो काम दुगना  होने लगेगा  और उपयोगी कामों के लिए समय न बचने की शिकायत ही न रहेगी ।

यदि हम अपने शरीर को मुस्तैद, श्रमशील बनायें और आरामतलबी का अभ्यास न होने दें, समय का संयम करे उसके सदुपयोग की बात सोचें तो थोड़े से साधनों और सामान्य प्रयत्नों से भी चमत्कारी परिणाम प्राप्त किये जा सकते है।आवश्यकता केवल इस बात की है कि आरामतलबी से बचा जाय, आलस्य को पास न फटकने दिया जाय और समय का सही सदुपयोग किया जाय।

जय गुरुदेव 


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