29 अक्टूबर 2025 का ज्ञानप्रसाद
आज का दिव्य ज्ञानप्रसाद लेख दो महत्वपूर्ण सन्देश लेकर आया है:
1.आलसी मनुष्य एक जीवित मृतक (Living dead) है।
2.आलस्य एक प्रकार की आत्महत्या है।
इन दोनों संदेशों को समझने के लिए “स्पर्श इन्द्रिय(Sense of touch) का सहारा लिया गया है, यह समझने का प्रयास किया गया है कि स्पर्श इन्द्रिय मनुष्य को शारीरिक और मानसिक तौर से आलसी कैसे बनाती है।
प्रत्येक ज्ञानप्रसाद लेख की भांति आज का लेख भी बहुत बारीकी से, रिसर्च करके तैयार किया गया है, आशा करते हैं कि गुरुकक्षा के सभी विद्यार्थी इससे अवश्य ही लाभान्वित होंगें
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समय और श्रमशक्ति को मनुष्य की मूल सम्पदा कहा जाता है। कोई भी कार्य करना हो उसे समय और श्रम तो चाहिए ही। बड़े कामों के लिए किसी एक व्यक्ति की मानसिक शक्ति लगे तो भी काम चल जाता है, किसी काम की योजना से लेकर उसे ठीक तरीके से Execute करने तक का सारा कार्य एक दो बुद्धिमान व्यक्ति कर सकते हैं लेकिन जब शारीरिक श्रम की बात आती है तो बहुतों की सामूहिक शक्ति अनिवार्य हो जाती है।
क्या व्यक्तिगत, क्या सामाजिक, हर स्तर पर समय और श्रम के सदुपयोग से ही व्यक्ति उत्कर्ष पाता है। इसलिए ज़रूरी बन जाता है कि इन दोनों (समय और श्रम) सम्पत्तियों के संयम की ओर ध्यान दिया जाए, यदि इनमें से किसी एक का भी असंयमित ढंग से प्रयोग होता रहे, क्षरण होता रहे तो जीवन में कोई भी उपलब्धि प्राप्त नहीं हो सकती।
शास्त्रों में बार-बार ज्ञान-इन्द्रियों के संयम की बात की गयी है। देखना, सुनना,सूंघना,छूना, चखना, पांच ज्ञान-इन्द्रियों में से किसी के लिए भी संयम न बरता जाए तो क्या कुछ हो सकता है सभी भलीभांति जानते हैं लेकिन वर्तमान सन्दर्भ में “स्पर्श, छूने की इन्द्रिय” के कारण होने वाले असंयम को समझना महत्वपूर्ण हो जाता है।
आइए देखें स्पर्श इन्द्रिय(Sense of touch) कैसे समय और श्रम को असंयमित करके मनुष्य को हानि पंहुचाती है।
1. भोग की प्रवृत्ति बढ़ने से “समय” का अपव्यय:
स्पर्श इंद्रिय के सुख (आरामदायक वस्त्र, गद्देदार बिस्तर, वातनाकुलित घर, गाड़ी जैसे शारीरिक सुख के अनेकों साधन आदि) में लिप्त व्यक्ति धीरे-धीरे आरामप्रिय और आलसी बन जाता है। फलस्वरूप वह आवश्यक कार्यों में यां तो विलंब करता रहता है यां टालता रहता है, Procrastination (टालमटोल) उसकी आदत ही बन जाती है और समय तो किसी की प्रतीक्षा नहीं करता,किसी के लिए रुकता नहीं है, वह तो धीरे-धीरे फिसलता ही जाता है, तभी तो कहा गया है Time and tide wait for nobody और Time is money, समय ही सबसे मूल्यवान सम्पत्ति है। जो व्यक्ति देर तक बिस्तर में पड़े रहना चाहता है क्योंकि उसे मुलायमदार गद्दे का स्पर्श अच्छा लगता है, उसका दिन देर से ही आरंभ होता है। देर से आरम्भ हुए दिन का समापन भी देर से होता है, ऐसी ही दिनचर्या से अनेकों समस्याओं का जन्म होता है। बज़ुर्ग सुबह जल्दी जागने के अनेकों आध्यात्मिक लॉजिक देते रहे हैं लेकिन कोई सुने तब न, जिन्होंने सुना उन्होंने अपनेआप को सुधार लिया।
2. सुख-साधन जुटाने में श्रम का अपव्यय:
जब “स्पर्श सुख की लालसा” बढ़ जाती है तो व्यक्ति उसे पाने के लिए अधिक संसाधन (महंगे वस्त्र, आरामदायक बिस्तर, वातानुकूलन आदि) जुटाने में लग जाता है। इन सबको पाने के लिए वह अनावश्यक परिश्रम, प्रतिस्पर्धा या धनार्जन में अपनी ऊर्जा और श्रम खर्च करता है। इसे ही “श्रम का असंयम” कहा जाता है, जब मनुष्य अपने श्रम को आत्मिक उन्नति या सेवा में न लगाकर भौतिक सुख की पूर्ति में बहाए जाता है तो इसे “श्रम का असंयम” ही कहा जाता है।
3. सुख और आरामदेह जीवन की दासता से निर्णय शक्ति कमजोर होती है:
“स्पर्श सुख” के पीछे भागने से मनुष्य सुख और आरामदेह जीवन का गुलाम बन जाता है, शारीरिक सुख के लिए वह भौतिक वस्तुएं खरीद-खरीद कर घर को एक मॉडर्न कूड़ादान बना देता है ऐसी स्थिति में उसका विवेक( ठीक और गलत का ज्ञान) इतना मंद हो जाता है कि निर्णय ही नहीं कर पाता कि उसे समय और श्रम किस दिशा में लगाना है।
4. आलस्य और प्रमाद का उदय
स्पर्श सुख से जुड़ा आराम (Softness, comfort) शरीर और मन दोनों को आलसी (Careless) बना देता है। आलस्य ही आत्मिक पतन का मूल है क्योंकि इससे कर्तव्यबोध घटता है और श्रमशीलता नष्ट होती है।
तो साथिओ, निष्कर्ष यही निकलता है कि स्पर्श इंद्रिय के असंयम से समय और श्रम का असंयम जन्म लेता है क्योंकि सुख की लालसा व्यक्ति को कर्म से हटाकर आराम, विलास और आलस्य की ओर खींच ले जाती है। इसके विपरीत संयमित व्यक्ति, स्पर्श सुख को साधन मात्र मानकर कर्तव्य और साधना में अपनी ऊर्जा लगाता है।
शरीर को आरामदायक बनाने और कोई कष्ट न होने देने की आकांक्षा व्यक्ति को आलसी और प्रमादी बना देती है, तभी तो कहा गया है कि बच्चों को Rough and tough बनाया जाए ताकि किसी भी परिस्थिति में उसका साहस और आत्मिक शक्ति डावांडोल न हों। जो माता पिता बच्चों को यह कहकर कि “सब कुछ तुम्हारे लिए ही तो है,स्वयं मर-मर कर उन्हें सभी प्रकार की भौतिक सुख-सुविधाओं से लाद देते हैं”,बच्चों के साथ न्याय नहीं कर रहे, उन्हें आत्मनिर्भर बनने में रोड़ा अटका रहे हैं।
शरीर से निरन्तर थकाते रहने वाला काम न किया जाय,वहां तक तो बात ठीक है लेकिन घर में आकर पानी का गिलास भी उठाकर न पिया जाए, यह अनुशासन भंग करने जैसा है। घर का कोई भी काम न करना, शरीर को हर घड़ी आराम से रखना, उससे कोई काम नहीं लेना यां कम से कम श्रम की बात सोचना, “श्रम का असंयम” है । संयम का अर्थ अपनी शक्तियों का सदुपयोग है। जहाँ शक्तियों के दुर्व्यय को रोकना संयम का एक पक्ष है वहीं उसका सदुपयोग दूसरा पक्ष है। आराम से पड़े रहने पर शक्तियों का कोई दुर्व्यय तो नहीं होता, लेकिन आलस्य करते रहने से उनका कोई उपयोग भी नहीं हो पाता ।
इसलिए सुस्त,मन्द, शिथिलता एवं आराम-तलबी की वृत्ति असंयम ही कही जायगी।
असंयम के कारण हानि होती है, यह एक मान्य सिद्धान्त है लेकिन आलस्य में पड़े रहने से भी कम हानि नहीं होती।
सर्वविदित है कि जिस वस्तु का उचित उपयोग नहीं होता वह अपनी विशेषता खो बैठती है। सीलन में पड़े हुए लोहे को ज़ंग लग जाती है और उसी से वह गलता चला जाता है। खूंटे से बंधा हुआ घोड़ा,जिससे कोई काम न लिया जाए वह अड़ियल हो जाता है। जिन पक्षियों को उड़ने का अवसर नहीं मिलता वे अन्ततः उड़ने की शक्ति ही खो बैठते हैं। पान के पत्तों को उलट-पलट कर हवा न लगाई जाए तो जल्दी ही सड़ जाते हैं।
यही स्थिति मनुष्य के शरीर की भी है, यदि उसे परिश्रम से वंचित रहना पड़े तो अपनी प्रतिभा, स्फूर्ति, प्रगतिशीलता एवं तेजस्विता ही नहीं खो बैठता बल्कि अवसादग्रस्त होकर रोगी भी रहने लगता है। विज्ञान ऐसी स्थिति को Weak immune system कहकर समझाता है।
आराम तलब मेहनत से बचने वाले लोगों की जीवनी शक्ति क्षीण हो जाती है, सर्दी-गर्मी और बीमारियों से लड़ने की सामर्थ्य चली जाती है । जल्दी-जल्दी जुकाम होता है, सर्दी, खाँसी का प्रकोप रहता है । कोई छोटी-सी भी बीमारी हो जाए तो मुद्द्तों जड़ जमाये बैठी रहती है, कीमती दवादारू कराने पर भी टलने का नाम नहीं लेती।
ऐसा इसलिये होता कि है कि वह जीवनी शक्ति जो परिश्रम करने वालों में प्रदीप्त रहती है ऐसे लोगों में मर जाती है और वे किसी छोटे-मोटे आक्रमण तक का सामना करने में असमर्थ हो जाते हैं। आलस्य में पड़े रहने, ऐशो-आराम का जीवन व्यतीत करने, श्रमशक्ति का उपयोग न करने वाले लोगों का शरीर इतना कोमल हो जाता है कि वे सर्दी-गर्मी की साधारण प्रतिकूलता भी बर्दाश्त नहीं कर पाते। छुईमुई के फूल की तरह ज़रा सी ऊँगली लगते ही मुर्झा जाते हैं। ऐसे शरीर जो परिश्रम के अभ्यासी नहीं होते, थोड़ा सा दबाव पड़ते ही कुम्हलाने लगते हैं। बेकार बैठे,निठल्ले मनुष्य बाहर से भले ही स्वस्थ लगें लेकिन जीवनी शक्ति की न्यूनता के कारण उनके शरीर विभिन्न प्रकार के छोटे-मोटे रोगों से ग्रसित रहते हैं। बैठे रहने के कारण जो रुग्णता उत्पन्न हो जाती है, धीरे-धीरे परिपक्व होकर इतनी मजबूत हो जाती है कि फिर उस व्यक्ति को बैठे-ठाले रहने के लिए ही विवश कर देती है। तब एक स्टेज ऐसी आ जाती है कि यदि वह कुछ करना भी चाहे तो कुछ नहीं कर पाता। हाथ पैर जकड़े- जकड़े रहते हैं, लगता है कि जिन्दगी का बोझ ढोना ही कठिन हो रहा है।
कभी हो सकता है कि ऐसी स्थिति का मन पर प्रभाव न पड़े? अवश्य ही पड़ेगा !!!
यहाँ एक बहुत ही महत्वपूर्ण वैज्ञानिक तथ्य समझने की आवश्यकता है :
आलसी शरीर में ही मन्दबुद्धि मस्तिष्क का वास होता है। जिस मनुष्य का शरीर फुर्तीला,हल्का-फुल्का और परिश्रमी है,उसका मस्तिष्क भी Sharp एवं Fertile रहता है। अक्सर देखा गया है कि आलसी मनुष्य मूर्ख होते हैं। ऐसा देखा जाता है जैसे कि उन्होंने सक्रियता को अपने शरीर से स्वयं ही विदा कर दिया हो और वही सक्रियता रुष्ट होकर उनके मस्तिष्क से भी चली जाती है। ऐसे मनुष्यों में सोचने-समझने की, निर्णय लेने की, निष्कर्ष निकालने की समर्था घट जाती है, मस्तिष्क सदा उलझा-उलझा सा रहता है। कोई समस्या हल नहीं कर पाता । एक उलझन सुलझाने के बारे में सोचता है तो दूसरी नई चार और सामने आ खड़ी होती हैं। ऐसे व्यक्ति न तो कोई बड़ा साहस कर सकते हैं, चारों ओर उन्हें उलझनों का जाल जंजाल ही बिखरा मालूम देता है। ऐसे मनुष्य को यदि पूछा जाए कि तुम्हारा इस संसार में आने का क्या उद्देश्य था, तो शायद उसे समझ ही न आये क्योंकि वह एक नपुंसक की भांति जीवन व्यतीत करता हुआ जीवन की गाड़ी घसीटे जा रहा है। इतना उच्चकोटि का प्रश्न उसे तभी समझ आएगा जब उसके शरीर में Fertile/सक्रीय मस्तिष्क का वास होगा, बड़ा परिश्रम करके अगर वह कोई रिप्लाई कर भी दे तो शायद कहेगा “मैंने क्या लेना है संसार से?” यह और भी गुड़-गोबर करने वाला उत्तर होगा
वैज्ञानिकों का मत है कि शरीर को श्रम में लगाये रखने से, उचित दिशा में पुरुषार्थ करने से, मस्तिष्क अधिक क्रियाशील रहता है एवं और अधिक कार्य करता है। मस्तिष्क की सक्रियता को सार्थक करते हुए उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया है कि Use it or throw it, इसे अगले जन्म/पीड़ी तक बचा कर रखने की आवश्यकता नहीं है। आलसी लोगों को समझाना भैंस के आगे बीन बजाना जैसा होता है। जब शरीर को ही निष्क्रिीय रखा जाता है तो मष्तिष्क की कार्यपद्धति भी बिगड़ जाती है, अवांछनीय, असन्तुलित और अव्यवहारिक बातें घुड़दौड़ मचाने लगती है।
यदि किसी मनुष्य को अपनी शारीरिक और मानसिक शक्तियों का रचनात्मक लाभ न लेना हो, विघटनात्मक दिशा में लगाकर उसे क्षोभ उत्पन्नकारी मार्ग में लगाना हो तो एक ही तरीका है, खाली बैठा रहना प्रारम्भ कर दे। बस, अनेकों तरह की खुराफातें मस्तिष्क में सूझती रहेंगी और जीवनक्रम की अस्त व्यस्तता बढ़ती चली जायगी।
इन्ही कारणों से आलसी मनुष्य को जीवित मृतक (Living dead) कहा गया है और मनीषियों ने आलस्य को एक प्रकार में आत्महत्या बताया है।
तो साथिओ आज के ज्ञानप्रसाद लेख का यही महत्वपूर्ण सन्देश है, कल इसी को आगे बढ़ायेंगें।
जय गुरुदेव
