28 अक्टूबर 2025 का ज्ञानप्रसाद
1977 में प्रकाशित हुई परम पूज्य गुरुदेव की मात्र 69 पन्नों की साधारण सी दिखने वाली पुस्तक के कंटेंट का जिस तरीके से Analysis करते हुए, सरलीकरण हो रहा है, सभी साथी, पाठकगण भलीभांति परिचित हैं। जिस प्रकार अब तक प्रस्तुत हो चुके 17 लेख हम सबको प्रभावित कर रहे हैं,हम अपने अंतकरण में उतार रहे हैं उससे प्रमाणित हो रहा है कि ज्ञानप्रसाद लेखों का उद्देश्य सार्थक हो रहा है। भला ऐसा कौन सा व्यक्ति होगा जिसे यह नहीं पता होगा कि फिज़ूल के बोलने से,फिज़ूल के खाने से,फिजूलखर्ची से,कामुक प्रवृति से नुकसान ही होता है, यह इतने सरल विषय हैं जिन पर चर्चा करने की कोई आवश्यकता ही नहीं होनी चाहिए। अगर ऐसा कहना सत्य होता,सभी को इन तथ्यों का अनुभव होता तो मात्र कल वाले लेख को ही 20 घंटे में 22000 फेसबुक व्यूज (यह लेख लिखते समय तक) न मिलते, कितनों ने पढ़ा इसका नंबर बताना तो शायद संभव न हो लेकिन इतना तो है कि लोगों को कुछ तो महत्वपूर्ण बात दिखी ही है।
हमारे गुरु का साहित्य है ही ऐसा,कोई अनजान भी प्रभावित/प्रेरित हुए रह नहीं सकता। उसी प्रेरणा से आज का ज्ञानप्रसाद उपवास के बारे में बहुत ही संक्षिप्त सी चर्चा कर रहा है। उपवास के बारे में किसको नहीं पता लेकिन लेख में अवश्य ही कुछ अलग है।
जब उपवास की बात आएगी तो दिवंगत प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी को अवश्य स्मरण किया जायेगा। 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद भारत में आये अकाल की स्थिति को ध्यान में रहते हुए उन्होंने एक दिन का उपवास रखने की अपील की थी, इस अपील का उद्देश्य अनाज की बचत करना था। इस अपील का भारतवासिओं ने न केवल ख़ुशी-ख़ुशी समर्थन किया बल्कि इसे “अनाज यज्ञ, शास्त्री व्रत” का नाम दिया। उन दिनों “जय जवान जय किसान” का नारा बहुत प्रचलित हुआ था। उन्हीं दिनों शास्त्री जी ने अभिनेता मनोज कुमार जी की “शहीद” फिल्म देखी और उन्हें “जय जवान जय किसान” विषय पर फिल्म बनाने के लिए कहा। “उपकार” फिल्म इसी विषय पर आधारित थी जिसने 17 अवार्ड जीतकर फिल्म जगत में इतिहास रच दिया। उसके बाद तो मीडिया में मनोज कुमार जी का नाम भारत कुमार ही प्रसिद्ध हो गया।
इस लेख को पढ़ रहे पाठक कहीं यह न समझ लें कि हम उपवास के विषय से Deviate हो गए हैं,लेख को रोचक,महत्वपूर्ण बनाने के लिए हमसे जो भी बन पड़ता है हम प्रयास करते हैं क्योंकि भारतीयता हमारे रक्त की एक-एक बूँद में समाई है।
तो आइए यहीं से आज के लेख का शुभारम्भ करें :
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।
वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
अर्थात शान्ति: कीजिये प्रभु ! त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में,अन्तरिक्ष में, अग्नि – पवन में, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन में,सकल विश्व में अवचेतन में,शान्ति राष्ट्र-निर्माण और सृजन में, नगर , ग्राम और भवन में प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण – कण में, शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए !
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आहार संयम की दिशा में अस्वाद व्रत एक प्रभावशाली चरण है । सप्ताह में जिस दिन अस्वाद व्रत किया जाय उस दिन एक समय का उपवास भी रख सके तो “संयम साधना” और भी प्रखर होगी। इससे पेट को विश्राम मिलेगा और वातावरण के कारण उत्पन्न होने वाले विकारों का शोधन होगा। महर्षियों, शास्त्रकारों से लेकर, वैज्ञानिकों और स्वास्थ्य विशेषज्ञों तक ने उपवास के महत्व को एक स्वर से स्वीकार किया है। उपवास का शब्दिक अर्थ “पास रहना” होता है (उप अर्थात् समीप और वास अर्थात् रहना), किसके पास? ज़ाहिर है प्राकृतिक स्वास्थ्य के पास,जब मनुष्य प्रकृति के साथ होता है अपनेआप ही ईश्वर के साथ रहता है। इसलिए उपवास (भोजन संयम) यानि व्रत ईश्वर के साथ जुड़ने की साधना है।
वैसे तो स्वस्थ और नीरोग जीवन की आधारशिला सब प्रकार का संयम ही है लेकिन “भोजन संयम” कैसे-कैसे चमत्कार दिखा देता है, शायद ही कोई ऐसा होगा जिसे इस तथ्य का ज्ञान न हो। यही कारण है कि मनुष्य की अनेकों बीमारियां पेट और खानपान से सम्बंधित हैं। उपवास का सबसे बड़ा लाभ मन को असंयम की दिशा में बहकाने वाली प्रवृत्ति को कण्ट्रोल करने में बड़ी सहायता मिलती है।
परम पूज्य गुरुदेव की शिक्षा के अनुसार जिस प्रकार किसी भी मशीन को लगातार चलते रहने पर कुछ घण्टे बन्द करने की आवश्यकता होती है उसी प्रकार अधिक एवं अभक्ष्य भोज्य पदार्थों के खाने के अत्याचार से बेचारे पेट को भी आराम की आवश्यकता पड़ती है । लेकिन आजकल मनुष्य ने अपनी सुविधानुसार उपवास का अर्थ ही बदल कर रख दिया है।
आधुनिक युग की उपवास सम्बन्धी मान्यताएं हास्यास्पद एव मूर्खतापूर्ण है। कल वाले लेख में दिए गए कमेंट को ही समर्थन देती धारणा के अंतर्गत उपवास के दिन तो सामान्य दिनों की अपेक्षा भिन्न-भिन्न प्रकार के मिष्ठान खाए जाते हैं । उपवास के एक दिन पूर्व पेट में भोजन इस लिए ठूंस लिया जाता है कि कल तो उपवास है और अगले दिन इसलिए गीदड़ की तरह खाया जाता है कि एक ही समय तो खाना है। ऐसे मॉडर्न उपवास को, उपवास न कहकर “चटोरेपन की आदत” ही कहेंगे, जिससे न तो किसी उद्देश्य की पूर्ति होती है और न ही स्वास्थ्य पर लाभकारी प्रभाव पड़ता है।
मेडिकल दृष्टिकोण से देखा जाए तो उपवास करने से शरीर में जमी हुई स्टार्च एवं चर्बी को बाहर निकाल कर शरीर को स्वस्थ रखना होता है,शरीर में एसिड की मात्रा कम करना होता है। अक्सर समझा जाता है कि शरीर से Waste products बाहर निकल ही रहे हैं, भूख भी ठीक ठाक लग रही है तो पेट सम्बन्धी कोई विकार क्यों होगा, वह चाहे कैसा भी भोजन करे उसे कोई नुक्सान नहीं होगा लेकिन परन्तु यह भूल है,अज्ञानता है। सच तो यह है कि जो भी खाना खाया जाता है उसमें कुछ का खून बनता है, Muscles बनते हैं, हड्डियों का निर्माण होता है और बाकि Waste products बनकर बाहिर निकल जाता है, लेकिन Heavy,Fatty भोजन का कुछ अंश आंतों के चारों ओर चिपक जाता है और अनेकों रोगों को आमन्त्रित करता है। उपवास करने से इसी गन्दगी को बाहर निकाल कर पेट एवं आंतों को स्वस्थ रखने में सहायता मिलती है ।
पुराने बुज़र्गों से अक्सर सुनते थे कि उपवास का अर्थ है पेट को पूर्ण आराम देना तथा भोजन को पूर्णत: त्याग देना। स्थिति अनुसार यह साप्ताहिक,पाक्षिक एवं मासिक हो सकता है
उपवास करने के पूर्व सन्ध्या समय भोजन न करके फलों का रस या उबली सब्ज़ी ही लेनी चाहिए। उपवास के दिन काफी मात्रा में जल लेकर 1-2 मील का पैदल चक्कर लगाना चाहिए तत्पश्चात् एनीमा लेना चाहिए, इससे आन्तरिक सफाई अच्छी प्रकार हो जाती है । कमजोरी महसूस होने पर Lemon juice लिया जा सकता है। आजकल तो बाजार में भांति-भांति के Energy drinks आये पड़े हैं। उस दिन पूरा-पूरा विश्राम करना चाहिए । उपवास के दूसरे दिन बड़ी सावधानी एवं धैर्य से कार्य लेना चाहिए क्योंकि उपवास के बाद भूख जोर से लगती है इसलिये ऐसा न हो जाए कि एकदम खाने पर टूट पड़ें इससे लाभ की अपेक्षा हानि होने की सम्भावना हो सकती हैं। दूसरे दिन फलों के रसों से उपवास तोड़ा जाए, दोपहर या सन्ध्या को फल,सादा भोजन, रोटी, दलिया तथा उबली सब्जियां ली जावें । जीभ के असंयमी व्यक्ति किसी प्रकार उपवास तो निभा लेते हैं, किन्तु उन्हें खोलते समय संयम नहीं रख पाते, फलतः अनेक विकृतियां पैदा हो जाती हैं । उस स्थिति में उपवास से लाभ की अपेक्षा हानि भी हो जाती है ।
जब उपवास की बात हो रही है तो बताना महत्वपूर्ण हो जाता कि हर व्रत का पालन मन, वचन और काया से होना चाहिए। अक्सर देखा जाता है कि शरीर तो काबू में है लेकिन मन इधर-उधर भटक रहा है,इस भटकन के कारण मनुष्य अक्सर मन से विकार का पोषण किया करता है, यह अज्ञानता है,मिथ्या है। मन को विकारपूर्ण रहने देकर, अशांत रख कर, शरीर को दबाने की कोशिश करना हानिकारक है। बहुत बार लिखा जा चुका है कि मन तो चंचल है, वोह कहाँ टिक पायेगा। जहाँ-जहाँ मन जायेगा शरीर को घसीट ही लेगा, संकल्प लिया है व्रत का,उपवास का है लेकिन मन बड़े से Food joint में Manchurian खाने को ललचा रहा है, तो मन के कमज़ोर लोग कहाँ रुक पायेंगें।
एक महत्वपूर्ण अंतर् समझ लेना बहुत ज़रूरी है । मन को विकारवश होने देना एक बात है और मन का अपनेआप विकारों में डुबोए रखना दूसरी बात है। इस विकार में यदि मनुष्य सहायक न बने तो जीत उसी की ही है। हम प्रतिपल यह अनुभव करते हैं कि शरीर तो काबू में रहता है लेकिन मन काबू में नहीं रहता। इसलिये शरीर को तुरन्त ही वश में करके प्रतिदिन मन को वश में करने का प्रयास करते रहने से हम अपने कर्तव्य का पालन करते हैं, करते रह सकते हैं।
हमारे गुरुदेव ने,अपने गुरु के आदेश पर बिना किसी ना-नुकर के 24 वर्ष घोर तप किया,क्या हम अपने गुरु का कहा नहीं मान सकते ? अगर हम अपने गुरु की संतान हैं, उसका और हमारा DNA एक ही है (आद सुमनलता बहिन जी का Quote) तो हम उनकी तरह क्यों नहीं हैं ?
एक और संयम प्रक्रिया के लिए तत्पर, कल तक के लिए मध्यांतर।
जय गुरुदेव ,धन्यवाद्
