वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

“क्या हम खाने के लिए जी रहे हैं यां जीने के लिए खा रहे हैं ?” भाग 2

27 अक्टूबर का ज्ञानप्रसाद-

आज का दिव्य ज्ञानप्रसाद लेख पिछले लेख का दूसरा भाग है। यह भाग इतना छोटा है कि इसका अमृतपान कुछ ही मिंटो में किया जा सकता है। आज के लेख में वर्णित अधिकतर बातों से हम सभी परिचित हैं लेकिन उन्हें अपनाने की संकल्पशक्ति क्यों नहीं है? इसीलिए आग्रह करना उचित लग रहा है कि ध्यानपूर्वक पढ़ कर आत्मसात करने का प्रयास करना लाभदायक होगा।

तो आइए यहीं से आज के लेख का शुभारम्भ करें : 

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।

वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

अर्थात शान्ति: कीजिये प्रभु ! त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में,अन्तरिक्ष में, अग्नि – पवन में, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन में,सकल विश्व में अवचेतन में,शान्ति राष्ट्र-निर्माण और सृजन में,  नगर , ग्राम और भवन में प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण – कण में, शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! 

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जिस प्रकार ज्ञान का विलोम शब्द अज्ञान होता है उसी प्रकार “अस्वाद का मतलब स्वाद न करना होता है।”। स्वाद अर्थात् रस/ज़ायका से समझा जा सकता है कि जिस तरह दवाई खाते समय हम इस बात का विचार नहीं करते कि दवाई ज़ायकेदार है यां नही,शरीर के लिए आवश्यक है। इस महत्वपूर्ण तथ्य को समझकर ही मरीज़ उसे योग्य मात्रा में खाते हैं । ठीक उसी तरह अन्न ग्रहण करने के तथ्य को भी समझना चाहिये ।

जिस प्रकार कम मात्रा में ली हुई दवाई असर नहीं करती या थोड़ा असर करती है और ज्यादा लेने पर नुक्सान पहुँचाती है वैसे ही अन्न भी असर करता है। 

अन्न के साथ-साथ अनेकों खाद्य पदार्थ,फल,दूध आदि का भी ऐसा ही प्रभाव होता है । 

इसलिये स्वाद की दृष्टि से किसी भी चीज़ को चखना व्रत को भंग करना ही है । ज़ायकेदार चीज को ज्यादा खाने से व्रत तो भंग होता ही है, “आहार संयम” भी  टूटता है ।  किसी पदार्थ का स्वाद बढाने, बदलने या उसके अस्वाद को मिटाने की दृष्टि से उसमें कोई वस्तु मिलाना भी व्रत को भंग करना है।

इस दृष्टि से विचार करने पर  पता चलेगा कि अनेकों ऐसे पदार्थ हैं  जो हम फिजूल में खाते रहते हैं, उनके न खाने से कोई फर्क भी नहीं पड़ता। अनेकों ऐसे खाद्य पदार्थ हैं जो “शरीर रक्षा” के लिए जरूरी न होने से त्याज्य (छोड़ने) की कैटेगरी में आते हैं। 

यहां यह बात समझने वाली है कि जिन पदार्थों का शरीर के पोषण में कोई योगदान नहीं है तो उनके छोड़ने से अनेकों बीमारियों से छुटकारा मिल सकता है। लेकिन क्या किया जाए, मनुष्य की बुद्धि, जीभ का स्वाद, कुछ ऐसी बीमारियां हैं जिन पर कंट्रोल करने से कई बीमारियों से छुटकारा मिल सकता है। निगोड़ी जीभ, उसकी स्वाद की प्रवृति कहां संयम बरतने देती है। ऊपर से साथी-संगी भी तो जीने नहीं देते, अक्सर कहते हुए पाए गए हैं कि खा पीकर मरेंगे तो संतोष की मृत्यु होगी,आखिर खाने के लिए ही तो जी रहे हैं!!!! लेख का शीर्षक  “क्या हम खाने के लिए जी रहे हैं यां जीने के लिए खा रहे हैं ?” भी तो हमें गंभीर चिंतन करने को कह रहा है।

जो भी हो, इस विषय पर इतना कम ध्यान दिया गया है कि व्रत की दृष्टि से क्या खाया जाय। सर्वसाधारण के लिए इस महत्वपूर्ण तथ्य पर विचार करना लगभग असम्भव हो गया है ।

खाद्य पदार्थों में स्वादिष्टता -जायका उत्पन्न करने के लिए अक्सर धारणा बनी हुई है कि शरीर पोषण के लिए विभिन्न तत्वों की, Minerals की, Vitamins की आवश्यकता पड़ती है । माना कि शरीर के लिए नमक आवश्यक है लेकिन वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध हो चुका है कि शरीर के लिए नमक जरा भी आवश्यक नहीं है । जितनी मात्रा में नमक को आवश्यक समझा जाता है उतनी मात्रा में तो स्वाभाविक खाद्य पदार्थों में पहले से ही मौजूद है। सृष्टि के सभी प्राणी स्वाभाविक आहार में से ही नमक, शक्कर की आवश्यकता पूरी करते हैं । कोई भी जीव-जन्तु ऐसा नहीं है जो अलग से इन पदार्थों को अपने स्वाभाविक भोजन में सम्मिलित करता हो। मनुष्य ही एक ऐसा विलक्षण जीव है जिसने प्रकृति प्रदत्त स्वाभाविक भोजन को नमक और शक्कर से चटपटा बनाकर ऐसा कर दिया है जिससे न तो भोजन की उपयुक्तता का पता चलता है और न ही मात्रा का। स्वाद ही स्वाद में बेचारी जीभ धोखा खाती रहती है। अखाद्य (जो खाने योग्य न हो) पदार्थों को अनावश्यक मात्रा में पेट में ठूंसते रहना कोई समझदारी नहीं है। फलस्वरूप इस चटोरेपन की वेदी पर हमें अपने आरोग्य और दीर्घजीवन की बलि चढ़ानी पड़ती है।

यदि भोजन में नमक और शक्कर न मिलाया जाय, मसाले न डाले जायें तो वह अपने स्वभाविक रूप में ही रहेगा, फिर यह पहचानना सरल होगा कि कौनसा भोजन उपयुक्त है, कौन अनुपयुक्त। 

अभी तो पाक कला के आधार पर मांस जैसे घृणित, दुर्गन्धित और सर्वथा हानिकारक पदार्थ तक को मिर्च मसालों के बल पर स्वादिष्ट बना लिया जाता है,बेचारी जीभ यह परीक्षा भी नहीं कर पाती कि वह खाद्य है या अखाद्य। यदि मसाले न पड़ें तो जीभ उसके वास्तविक गुण दोषों को जान लेगी और तब मांस गले से नीचे उतार सकना भी कठिन होगा।

बहुत से व्यक्ति यह सोचते हैं कि यदि नमक शक्कर न खाये जाएं तो उनसे शरीर में कमजोरी आ जायगी । यह भ्रान्ति है । शरीर को जितना नमक,जितनी शर्करा आवश्यक है वह प्राकृतिक खाद्य पदार्थों में ही उपलब्ध है । ऊपर से नमक या शक्कर तो केवल स्वाद के लिए ही डाले जाते हैं । यदि नमक और शक्कर को अपने आहार में से निकाल दिया जाय तो स्वाभाविक भूख लगने लगेगी ओर उसी अनुपात से भोजन किया जायगा। अत्यधिक भोजन से मनुष्य को स्वाभाविक भूख का पता ही नहीं चलता कि कब पेट भर गया, स्वाद अच्छा लगा तो ठूंस लिया। स्वाद-स्वाद में जरुरत से ज्यादा खा लेने की प्रथा तो बहुप्रचलित हो चुकी है।भारी भरकम खाना न खिलाया जाए तो आवभगत हो ही नहीं सकती, चाहे मेहमानबाजी में पेट ही क्यों खराब न हो जाए। हम भारतीय तो इस प्रथा से भलीभांति परिचित हैं।

आज के ज्ञानप्रसाद लेख से निम्नलिखित संदेश लेकर जाना उचित रहेगा: 

बिना सोचे समझे खाने से पेट पर अनावश्यक भार पड़ता है। आवश्यकता से अधिक भोजन कर लेने से अपच और तज्जनित अनेकानेक बीमारियां उठ खड़ी होती हैं । 

“अतएव स्वाद को नहीं उपयोगिता को प्रधानता देने का दृष्टिकोण अपना लेने पर जरुरत से ज्यादा खा लेने और बीमार पड़ने की स्थिति ही नहीं आती। आहार की आवश्यकता स्वास्थ्य के लिए है, स्वाद के लिये नहीं।”

इस दृष्टिकोण को विकसित करते हुए व्यक्तिगत जीवन में आहार सम्बन्धी ऐसी आदतों का अभ्यास किया जाय जिनसे भोजन सही मायनों में आवश्यकता के लिए किया जाने लगे।

कल वाले लेख में उपवास संबंधी चर्चा करने की योजना है।

जय गुरुदेव


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