23 अक्टूबर 2025 का ज्ञानप्रसाद
आज का दिव्य ज्ञानप्रसाद लेख एक बहुत ही महत्वपूर्ण सन्देश लेकर आया है: “हम खाने के लिए जी रहे हैं यां जीने के लिए खा रहे हैं ?” परम पूज्य गुरुदेव ने हम बच्चों के लिए 69 पन्नों की एक अद्भुत पुस्तिका (शक्ति संचय का स्रोत-संयम) रच कर रख दी है जिसमें भांति-भांति के संयम पर मार्गदर्शन प्रदान किया गया है।
ईश्वर ने मनुष्य को 32 दांतों में कैद करके जीभ का उपहार प्रदान किया है। दांतों में कैद करने का उद्देश्य केवल संयम को ही चरितार्थ करता है लेकिन क्या करें हम ईश्वर की बात कहाँ मान पाते हैं? अभी कुछ ही दिन पूर्व चपड़-चपड़ बोलने के सन्दर्भ में वाणी-संयम की बात की थी, आदरणीय अरुण जी को तो उन लेखों से बहुत लाभ प्राप्त हुआ था, अब उसी निगोड़ी जीभ ने स्वाद-स्वाद के चक्र में मनुष्य की क्या दशा बना ली है सभी जानते हैं।
आज का लेख स्वाद-संयम की बात कर रहा है। मिर्च,मसाले,अभक्ष्य पदार्थ एवं न जाने कैसा फिज़ूल का भोजन,नई-नई Recipes आज के मानव पर दोतरफा आक्रमण कर रही हैं। एक तरफ,बाहिर खाने की अमीर प्रथा ने मनुष्य की जेब पर प्रहार किया है तो दूसरी तरफ डॉक्टरों के बिल बढ़ा दिए हैं। डर है कहीं फैशन-फैशन में मनुष्य का सर्वनाश ही न हो जाये।
तो आइए यहीं से आज के लेख का शुभारम्भ करें :
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।
वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥
अर्थात शान्ति: कीजिये प्रभु ! त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में,अन्तरिक्ष में, अग्नि – पवन में, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन में,सकल विश्व में अवचेतन में,शान्ति राष्ट्र-निर्माण और सृजन में, नगर , ग्राम और भवन में प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण – कण में, शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए !
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नित्य प्रति के कार्यों में शारीरिक शक्ति का व्यय होता है। उस शक्ति की पूर्ति और शरीर का पोषण करने के लिए आहार की आवश्यकता पड़ती है। यदि भोजन से शरीर का समुचित पोषण नहीं हो पाता तो कमजोरी बढ़ती जिससे अनेकों प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं।
परम पूज्य गुरुदेव बताते हैं कि भोजन करने का उद्देश्य समझा जाना चाहिए। यह समझ लेना चाहिए हम भोजन केवल दैनिक जीवन के कार्यों को सम्पन्न करने में खर्च हो रही शक्ति की पूर्ति के लिए कर रहे हैं। यदि बात यहीं तक सीमित होती तो कोई समस्या न होती लेकिन स्थिति ऐसी है कि मनुष्य स्वाद के पीछे भागते-भागते इस तथ्य को भी भूल गया है कि भोजन को उसके असली बेसिक गुणों के साथ ही ग्रहण करना चाहिए। स्वाद के चक्र भोजन को इतना अधिक कुक किया जाता है, इतने अधिक मसाले आदि डाले जाते हैं कि उसकी प्रकृति ही बदल/बिगड़ जाती है जिसका परिणाम होता है कि जिन पदार्थों से शक्ति मिलनी थी वोह तो ज़हर बन चुके हैं। ऐसा भोजन पोषण देने के बजाए भांति-भांति के विकार पैदा करता है। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार का शायद ही कोई साथी होगा जो ऐसा भोजन खाने से होने वाली बीमारीओं से अनजान हो।
लगातार बढ़ रही एवं फैल रही बीमारीओं का मूल कारण (अन्य कारणों के इलावा) कहीं न कहीं आहार-विहार का असंयम ही है। स्वाद के लालच एवं आकर्षण के कारण, आज का मानव तो आहार की उपयोगिता/अनुपयोगिता को भूल ही गया है, उसे तो बस जीभ को स्वाद लगने वाला,आँख को खूबसूरत दिखने वाला,नासिका को लुभाने वाला भोजन चाहिए, भाड़ में जाएँ शक्तिशाली पोषक तत्व।
परम पूज्य गुरुदेव ने यह बातें अपनी दिव्य रचना “शक्ति संचय का स्रोत-संयम” में 1977 में आज (2025) से लगभग पांच दशक पूर्व कह दी थीं, आज स्थिति और भी बिगड़ चुकी है।
आइए आगे चलने से पहले ज़रा एक महत्वपूर्ण निम्लिखित चर्चा को समझने का प्रयास करें :
मनुष्य को छोड़कर ईश्वर का शायद ही कोई प्राणी होगा जो इतना अधिक एवं इतनी जल्दी बीमार पड़ता होगा। मनुष्य की बीमारी की Frequency को देख कर आश्चर्य होता है कि स्वास्थ्य के लिए इतना जागरूक,तरह-तरह के आधुनिक टोटके, कैलोरी गिन-गिन कर खाने वाला,तथकथित Health conscious, नियमितता से Gym जाने वाला मनुष्य,बार-बार इतनी जल्दी बीमार क्यों पड़ता है। फ़ोन सदैव उसके हाथ में है,एकदम किसी भी भोजन पदार्थ की जानकारी एकदम प्राप्त करने में समर्थ है लेकिन फिर भी इतना Sensitive कि ज़रा सी सर्दी लग गयी तो 15 दिन गए।
गुरुदेव ने इस स्थिति का एक ही कारण बताया है: मनुष्य को छोड़कर अन्य सभी प्राणी अपना भोजन,आहार के प्राकृतिक स्वरूप में ही गृहण करते हैं। गाय,भैंसों आदि को घास मान्य होता है, वृक्षाचारियों को फल मान्य होता है, मांसाहारियों को मांस, शाकाहारिओं को शाक-सब्ज़ी अच्छी लगती है, Parasite/Bacteria सड़े-गले भोजन पर ही पलते हैं- अर्थात सभी अपनी प्रकृति के अनुसार प्राकृतिक भोजन ग्रहण करते हैं एवं उनका Digestive system उसी रूप में ऐसे भोजन को पचा लेता है ।
यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, Natural process है ।
विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में विकास और प्रग्रति ने मनुष्य को इतना बुद्धिमान और समझदार बना दिया है कि उसने अपने आहार का चयन उसके स्वाभाविक रूप में ग्रहण करने के बजाय उसे अनेकानेक अग्नि संस्कारों से/मसालों आदि से बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जिन वस्तुओं का प्राकृतिक स्वाद उसे पसंद नहीं,उसकी प्रकृति के अनुकूल नहीं, वह उसके लिए हानिकारक होनी चाहिए। कच्चे मांस का न तो स्वाद उसके अनुकूल पड़ता है,न गन्ध और न ही स्वरूप । ऐसी स्थिति में ज़ाहिर है कि जो मांस उसके लिए किसी भी प्रकार से गृहण करने योग्य नहीं, फिर भी प्रकृति के विपरीत जीभ की अस्वीकृति को झुठलाने के लिए उसे तरह-तरह से पकाने/भूनने की क्रियायें करके, चिकनाई तथा मसालों की भरमार करके इस योग्य बनाए जा रहा है कि चटोरी जीभ उसे पेट में घुसने की इजाज़त दे दे। मनुष्य के पूर्वज वानर जाति के हैं। वैसे तो वानर सर्वाहारी (Omnivorous) होते हैं, सब कुछ खाते हैं लेकिन जंगलों में रहने के कारण वह फलाहारी प्राणी है । उसके लिए उसी स्तर के पदार्थ उपयोगी हो सकते हैं, जो कच्चे खाये जा सकें । कच्चे अन्न, स्वादिष्ट शाक तथा उपयोगी फल उसके लिए Natural food हैं । यदि यही आहार अपनाया जाय तो निस्सन्देह नीरोग और दीर्घजीवी रहने में कोई कठिनाई उत्पन्न न होगी। लेकिन स्वादिष्ट और चटपटा भोजन करने की आदत हमारे अभ्यास में ऐसी बुरी तरह घर कर गयी है कि अब उसे आसानी से छोड़ना कठिन लग रहा है।
वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि मनुष्य का स्वाभाविक आहार तो कच्चा भोजन ही है लेकिन वह हजारों वर्षों से उसे आग पर पकाकर स्वादिष्ट और जायकेदार बनाकर खाता चला आ रहा है। अब उसका Digestive system ऐसा बन चुका है कि वह कच्चे आहार को पचा ही नहीं पाता। गुरुदेव कहते हैं भोजन स्वाद के लिए नहीं, आवश्यकता की दृष्टि से ग्रहण करें और चटोरेपन की आदत से अपना पिण्ड छुड़ायें।
जीभ की आदत बिगाड़ने के लिए उसे नशीली, जहरीली चीजें खिला- खिलाकर Tune किया जाता है। नमक, मसाले,चीनी, चिकनाई आदि भी जीभ को Tune ही करते हैं। इनमें से एक भी वस्तु हमारे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक नहीं है। न तो इनका स्वाद होता है और न ही प्राकृतिक रूप से खाने योग्य हैं। इन मसालों आदि की Disliking अगर टेस्ट करना चाहें तो मात्र आधा ग्राम नमक यां मिर्च खा कर दिखाएँ, बिलकुल ही खा नहीं सकेंगे। ज़रा सा नमक खाने पर उलटी होने लगेगी। मिर्च प्राकृतिक रूप से खाई जाय तो जीभ जलने लगेगी और नाक, आँख आदि से पानी टपकने लगेगा। हींग, लोंग थोड़ी सी भी खाकर देखा जा सकता है कि उनकी कितनी भयङ्कर विकृति होती है । बालक की जीभ जब तक अभ्यस्त नहीं हो जाती तब तक वह उन्हें स्वीकार नहीं करता । घर में खाये जाने वाले मसाले युक्त आहार का तो वह धीरे-धीरे बहुत समय में अभ्यस्त होता है तब कहीं उसकी जीभ नशेबाज बनती है। लोग तो अफीम और शराब जैसी कड़वी वस्तुओं को भी मज़े-मज़े में पीते हैं; मात्र पीते ही नहीं, इन चीज़ों के इतने दास बन जाते हैं कि उनके न मिलने पर बेचैन भी होते हैं। ठीक वही हाल बिगड़ी हुई, Addictive स्वादेन्द्रियों का भी होता है । स्वादेन्द्रिय में आ जाने वाली इस बीमारी का वास्तविक कारण मनुष्य का मानसिक चिन्तन ही है। जिस प्रकार कामुक व्यक्ति को कामुक चिन्तन में रस आता है और वह तरह-तरह की मानसिक कल्पनायें करता रहता है, मन ही मन उन कुकल्पनाओं का रस लिया करता है उसी प्रकार जीभ का दास बना व्यक्ति तरह-तरह के स्वादों का चिन्तन, उनकी कल्पनायें करता रहता है।
मानसिक क्षेत्र में परिवर्तन लाना और अस्वाद व्रत या आहार संयम की साधना बड़े ही साहस का काम है । उसके लिए दृढ संकल्पशक्ति चाहिए । कमजोर मन मस्तिष्क वाले मनुष्य संकल्पित होने के बावजूद भी बहुत कुछ नहीं कर पाते क्योंकि उनका संकल्प बहुत ही कमज़ोर होता है। किसी भी बीमारी से छुटकारे के लिए कुछ दिन परहेज कर लेना ही पर्याप्त नहीं है, उसके लिए तो मनुष्य को अपनी आदत में ही परिवर्तन लाना पड़ता है।
महात्मा गांधी ने इस स्वभाव परिष्कार का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखा है, “अस्वाद व्रत का ठीक से पालन हो सके इसके लिए चौबीसों घण्टे खाने की ही चिन्ता करना आवश्यक नहीं हैं। सिर्फ सावधानी की, जागृति की जरुरत है। ऐसी जाग्रति से कुछ ही समय में मालूम पड़ने लगेगा कि हमें अपनी स्वादवृति को कम करना चाहिए।”
गुरुदेव बता रहे हैं कि मनुष्य को स्वादवृति की दिशा में एक कदम उठाना ही चाहिए। आरम्भ में वह छोटा हो तो भी कोई हर्ज नहीं। सप्ताह में एक दिन “अस्वाद व्रत” रखना किसी के लिए भी कठिन नहीं होना चाहिए। इसके लिए रविवार या गुरुवार के दिन अधिक उपयुक्त हैं। उस दिन जो भी भोजन किया जाय उसमें नमक, चीनी न मिली हों । उबले हुए आलू, टमाटर, दही, दूध, उबले हुए अन्य शाक, बिना नमक, मसाले की अंकुरित दाल आदि के साथ रोटी खा लेना बिलकुल साधारण सी बात है। चटोरेपन की पुरानी आदत के कारण,दो चार दिन अखरेगा तो सही लेकिन सन्तोष और धैर्यपूर्वक उस भोजन को भूख बुझाने जितनी मात्रा में आसानी से खाया जा सकेगा, दो-चार बार के अभ्यास से तो वह अंकुरित भोजन ही स्वादिष्ट लगने लगेगा। अंकुरित भोजन का अपना एक अलग ही स्वाद है और जिन्हें वह पसन्द आ जाता है उन्हें दूसरे स्वाद रुचते ही नहीं।
महात्मा गांधी ने स्वाद संयम ब्रह्मचर्य से हुए “संयम बनाम भोग” पुस्तक में लिखा है कि जो व्यक्ति स्वाद को ही नहीं जीत सका वह अन्य विषयों को कैसे जीत पायेगा चटोरेपन को रोक देने से स्वाद-आकर्षण पर जो नियन्त्रण होता है वह धीरे-धीरे अन्य वासनाओं पर नियन्त्रण करने में भी सहायक होने लगता है ।”
जिस प्रकार “क्षर” का उलट शब्द “अक्षर” होता है उसी तरह अस्वाद का मतलब है स्वाद न करना। स्वाद अर्थात् रस,ज़ायका। जिस तरह दवाई खाते समय हम इस बात का विचार नहीं करते कि वह कड़वी है कि नहीं लेकिन शरीर के लिए आवश्यकता समझकर ही उसे योग्य मात्रा में खाते हैं। कम मात्रा में ली हुई दवाई असर नहीं करती या थोड़ा असर करती है,ज्यादा लेने पर नुक्सान पहुँचाती है। वैसे ही अन्न का भी है। इसलिये स्वाद की दृष्टि से किसी भी चीज़ को चखना व्रत को भंग करना है।
आगे के ज्ञान के लिए सोमवार तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।
जय गुरुदेव, धन्यवाद्
