वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

ब्रह्मचर्य की सफलता एक Inter-connected प्रक्रिया है।

आज प्रस्तुत किया गया दिव्य ज्ञानप्रसाद कामवासना के प्रति संयम बरतने की दिशा का अंतिम अंक है। कल से किसी अन्य संयम की बात शुरू होगी।  आम जीवन में कठिन दिखने वाले संयम,परम पूज्य गुरुदेव के साहित्य के माध्यम से इतने सरल प्रतीत हो रहे हैं कि अब कहा जा सकता है कि कठिन प्रतीत होने वाला ब्रह्मचर्य कठिन तो है,असंभव नहीं । ऐसा इसलिए कहना संभव हो रहा है कि जब तक किसी प्रक्रिया के Basics को न समझा जाए, वह कठिन ही लगेगी। इसलिए ज्ञानप्रसाद लेखों से एक शिक्षा अवश्य ले लेनी चाहिए कि कोई भी लेख छूटने न पाए क्योंकि सभी लेख एक दूसरे  के साथ जुड़े हुए होते हैं, पर्यटक की भांति किसी उपवन की सैर तो हो सकती है, दिव्य लाभ नहीं उठाया जा सकता। इन लेखों में आत्मा की बात होती है क्योंकि सत्संग,सद्विचार,सत्साहित्य ही आत्मा का भोजन है। 

आइए विश्व शांति की कामना के साथ इस कक्षा का शुभारम्भ करें : 

 ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।

वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

अर्थात शान्ति: कीजिये प्रभु ! त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में,अन्तरिक्ष में, अग्नि – पवन में, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन में,सकल विश्व में अवचेतन में,शान्ति राष्ट्र-निर्माण और सृजन में,  नगर , ग्राम और भवन में प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण – कण में, शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! 

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कामुक विचार खाली दिमाग में ही उठाते हैं इसलिए ज़रूरी है कि मन को सकारात्मक कार्यों में लगाए रखा जाए। सभी जानते हैं कि मन एक प्यारे से शिशु की भांति चंचल होता है, इसलिए ज़रूरी है कि जिस तरह शिशु को प्यार से, डाँट से समझाया जाता है, मन को भी समझा- बुझाकर ठीक राह दिखाई जाए, उसे हमेशा सकारात्मक दिशा में व्यस्त रखा जाए, इसकी तो प्रवृति है कि ज़रा सा भी अवकाश मिलते ही वह सुखद लगने वाले कामवासना विषय की ओर आकृष्ट होना शुरू हो जाता  है ।

यह तो बात हुई उन लोगों की जो खाली  हैं,जिनके पास कोई कार्य नहीं है। इसके विपरीत देखा गया है कि जो लोग हमेशा किसी न किसी कार्य में व्यस्त रहते हैं, जिनका चिन्तन किसी उपयोगी दिशा में लगा रहता है, उनके दिमाग में कामविकार उत्पन्न ही नहीं होता। बड़े बड़े वैज्ञानिक, चिन्तक, दार्शनिक, महान् साहित्यकार आदि जो रात-दिन  सृजन साधना में लगे रहे, उन्हें कभी कामविकारों ने पीड़ित किया ही नहीं। 

इसका मूल कारण है कि व्यस्त रहने के कारण उनके मन में इस तरह के विचार ही नही आए। ब्रह्मचर्य के बारे में गाँधी जी के विचार जहाँ तहाँ मिल ही जाते हैं। अपने अनुभव वह कुछ इस तरह लिखते हैं: “कामविकार प्रायः खाली बैठने से,अश्लील दृश्यों को देखने से एवं ऐसे दृश्यों के बारे में सोचने से उत्पन्न होते है। यदि मनुष्य हर घड़ी व्यस्त रहे तो उसे अपने कार्य को छोड़कर,अश्लील विचारों को प्रवेश कराने का समय ही नहीं मिलेगा।” आचरण का बीज विचार ही तो हैं। यदि विचारों को सत्य की ओर,ब्रह्म की ओर, रचनात्मक प्रवृत्तियों की ओर लगाये रखें  तो “ब्रह्मचर्य पालन” की एक बहुत बड़ी समस्या हल हो जाती है ।

आगे चलने से पहले आइए ज़रा यह तो समझ लें कि ब्रह्मचर्य है क्या ? ब्रह्मचर्य दो शब्दों (ब्रह्म और चर्य) को जोड़कर कर बनाया गया है। ब्रह्म अर्थात परम सत्य,ज्ञान, चेतना, ईश्वर को जानना एवं उस को अपने आचरण में बिठाना है। अक्सर कहा गया है कि ब्रह्मचर्य का पालन बड़ा ही कठिन है, इसे घर-गृहस्थी छोड़ कर, कामुक प्रवृतियों से दूर रह कर,पहाड़ों पर वास करने जैसी धारणाओं से जोड़ा गया है लेकिन सही मायनों में ऐसा नहीं है। आइए इस विषय को ठीक से समझने की लिए निम्नलिखित बिंदुओं पर एक नज़र डालें :   

 1. मनुष्य की पाँचों इंद्रियाँ (आँख,कान,नाक,जीभ,त्वचा) बाहरी  वस्तुओं की ओर आकर्षित होती हैं, इनकी प्रवृति ही बाहर की ओर  है। 
ब्रह्मचर्य का अर्थ इन इंद्रियों को भीतर की ओर मोड़ना (आत्मानुसंधान- Introspection में लगाना) है। लेकिन मन तो हमेशा  बाहर की ओर  दौड़ता है, यही कारण है कि ब्रह्मचर्य कठिन लगता है।

2. मनुष्य के शरीर में व्याप्त कामशक्ति (Sexual energy) वह शक्ति है  जिससे जीवन, सृजन और उत्साह उत्पन्न होता है। जब यह शक्ति बिखरती है तो व्यक्ति दुर्बल होता है लेकिन जब यह शक्ति संयमित होकर ऊपर उठती है, तो यह उच्चस्तरीय बुद्धि, तेज़(Aura) और स्मरणशक्ति में बदल जाती है। इसे ऊर्जा का रूपांतरण (Transformation) कहा गया है। यह Transformation कठिन होता है, इसलिए ब्रह्मचर्य भी कठिन है।

3. इस Energy transformation में “मन की चंचलता” सबसे बड़ी बाधक बनी खड़ी रहती है। मन का काम है लगातार विचार करना, कल्पना करना और स्मृति के जाल में फंसे रहना, उसे “वर्तमान में न जीने का श्राप” मिला हुआ है।
जब तक मन पर विजय नहीं होती, तब तक ब्रह्मचर्य स्थिर नहीं हो सकता, यह अटल सत्य है। 

4.आधुनिक, So called अतिविकसित समाज, भोग-विलास, विज्ञापनबाज़ी, मनोरंजन और सोशल मीडिया की उपलब्धता के कारण  निरंतर इंद्रियों को बाहर की ओर उत्तेजित होता  रहता है। ऐसे वातावरण में संयम रखना पहले से कहीं अधिक कठिन हो गया है।

5. ऐसी स्थिति में कई लोग ब्रह्मचर्य को केवल दमन (Suppression) समझते हैं, उसके बारे में सुनना ही नहीं चाहते। ब्रह्मचर्य दमन नहीं  रूपांतरण (Transformation) है। यदि केवल दबाया जाए, तो मन विद्रोह करता है। यदि समझ और साधना से Sublimation किया जाए, तो ब्रह्मचर्य सहज बनता है।

6.जब ब्रह्मचर्य की बेसिक केमिस्ट्री समझ आ जाती है तो यह अपनेआप ही सरल हो जाता है। व्यक्ति अपनेआप ही सत्संग (उत्तम संगति), स्वाध्याय (आध्यात्मिक अध्ययन),ध्यान और प्राणायाम, लक्ष्यपूर्ण जीवन (उच्च आदर्श) की और प्रेरित होना शुरू हो जाता है।
जब उद्देश्य और लक्ष्य निर्धारित हो जाता है तो फिर कुछ भी कठिन नहीं रहता, बिना दिशा और उद्देश्य के ब्रह्मचर्य कभी टिकता ही  नहीं है। 

निष्कर्ष तो यही निकालता है कि ब्रह्मचर्य कठिन तो है लेकिन अस्मभव नहीं क्योंकि यह मनुष्य की  अपनी प्रकृति के विरुद्ध जाकर चेतना के  उत्थान की क्रिया है।
आलसी व्यक्ति,संकल्पित न होने के कारण कभी भी ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर पाता क्योंकि प्रकृति ने इस शरीर में ऐसी व्यवस्था की है जिससे हर समय शरीर में Latent energy (छिपी हुई शक्ति)  उत्पन्न होती रहती है । जब उस शक्ति का  उपयोग शरीर और मन को निरन्तर व्यस्त रखने में नहीं किया जाता तो वह अनुचित मार्गों से नष्ट होने लगती है । 

ब्रह्मचर्य के द्वारा एकत्रित शक्ति को किसी उच्च उद्देश्य में लगाना अति आवश्यक है अन्यथा वह पास में पैसा होते हुए भी उसे आवश्यक कार्य में भी खर्च न करने जैसी कंजूसी हो जाएगी । इस प्रकार की कंजूसी कई बार हानिकारक भी होती है। 

ब्रह्मचर्य द्वारा अपनी शक्ति को निग्रहीत और एकत्रित करने वाले व्यक्ति के लिए उस शक्ति को रचनात्मक दिशा में लगाते रहना बहुत ज़रूरी है। मनुष्य यदि कोई ऐसा  लक्ष्य रख ले, कोई ऐसा कार्यक्षेत्र चुन ले जिसमें कि वह अपनी शक्ति का नियोजन कर सके तो “ब्रह्मचर्य साधना” आसान हो जाती है। जो लोग कहा करते हैं  कि ब्रह्मचर्य का पालन करना आसान नहीं है, इसका कारण है  कि ऐसे लोग ब्रह्मचर्य के “निषेध पक्ष (Prohibition side)” पर ही ज़ोर  देते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा कार्यक्षेत्र चुन लेना चाहिए जिससे कि मन को न तो भटकने का समय मिले और न ही संचित शक्ति से होने वाले दुष्परिणाम हों।

ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में एक और त्रुटि यह हो जाती है कि उसे केवल “सेक्स सम्बन्धी संयम” ही समझ लिया जाता है। निसंदेह वासना का सेक्स से  बहुत बड़ा सम्बन्ध है लेकिन उसका अन्य इन्द्रियों से भी सम्बन्ध है। प्रत्येक इन्द्रिय के अपने-अपने विषय हैं लेकिन वे सब एक दूसरे के साथ जुड़े होने के कारण ही गति देते हैं। जिस प्रकार घड़ी के अंदर एक चक्र दूसरे चक्र से सम्बन्धित रहता है, मशीनों में एक पुर्जा दूसरे पुर्जे को चलाता है,ठीक  उसी प्रकार इन्द्रियों में भी एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रिय को प्रेरणा देती है, उदाहरण के लिए आँख ने  कोई सुन्दर वस्तु देखी, आँख ने वह संदेश मस्तिष्क तक पहुँचाया, मन ने उस सुन्दर वस्तु को प्राप्त करने की आशा की, बुद्धि ने उसके लिए योजना बनायी, पैर उस वस्तु तक पहुँचे, हाथों ने उन्हें पकड़ा और यह सब क्रियाएं आखिरकार बलात्कार जैसे घिनौने अपराध करके ही रुकीं।  

काम-विकार के उमड़ने और मर्यादाओं का उल्लंघन होने में यही प्रक्रिया काम करती है। राजसी भोजन,अमीरी,आराम-तलबी,निट्ठले इधर-उधर आवारागर्द घूम रहे भेड़िये ही कामोत्तेजना को पैदा करते हैं। इसीलिए कहा गया है कि ब्रह्मचर्य की आवश्यकता केवल शरीर संयम से ही पूरी नहीं हो जाती, उसके लिए मनुष्य को अपने सभी आचार व्यवहारों को संयमित  करना पड़ता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि कामसेवन की तरह, देखने-सुनने और खाने-पीने आदि  की क्रियाओं को भी रोक दिया जाय ,उन्हें कम से कम किया जाय। यह  क्रियायें शरीर के स्वभाविक कार्यों में आ जाती हैं भोजन, निद्रा आदि तो शरीर की आवश्यकता हैं लेकिन कामसेवन अवश्य नहीं। संतुलित आहार के  बिना ब्रह्मचर्य की साधना सफल नहीं होती और इसकी साधना के लिए विचारों का संयम एवं  चिन्तन का परिष्कार और भी आवश्यक है। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक “ब्रह्मचर्य के अनुभव” में लिखा है कि ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले बहुतेरे व्यक्ति इसलिए असफल होते हैं  कि वे आहार-विहार में “अब्रह्मचारी” की तरह बर्ताव किया करते हैं । संयमी और असंयमी व्यक्ति के जीवन में अन्तर तो दिखना ही चाहिए। दोनों तरह के व्यक्ति आंख से काम  लेते हैं, एक गंदे चित्र देखता है तो दूसरा देवदर्शन करता है। कान का उपयोग भी दोनों करते हैं लेकिन एक  ईश्वर भजन सुनता है और दूसरा विलासमय गीतों को सुनने में ही आनन्द लेता है । भोजन दोनों करते है, परन्तु एक शरीररूपी तीर्थक्षेत्र की रक्षा के लिए पेट में अन्न डालता है और दूसरा देह-स्वाद के लिए अनेक चीजों से भर कर उस देह को दुर्गन्धित कर देता है ।

“ब्रह्मचर्य पालन के लिए मन-वचन-कर्म से समस्त इन्द्रियों के संयम के लिए त्याग की आवश्यकता पड़ती है। जब तक अपने विचारों पर इतना कब्जा न हो न जाए कि इच्छा के बिना एक भी विचार न आने पाये तब तक पूर्ण ब्रह्मचर्य की आशा नहीं करनी चाहिए । जितने भी विचार हैं उनमें से अनुपयुक्त और विकारी विचारों को हटाकर ही ब्रह्मचर्य की साधना की जानी चाहिए ।

ब्रह्मवयं सम्भवत: इसीलिए कठिन लगता है कि उसके एक पक्ष पर ही बल  दिया जाता है | यदि उसके साथ जुड़े अन्य पक्षों, व्यवस्थित और संयमित जीवन सिद्धान्तों पर भी ध्यान दिया जाय तो कोई कठिनाई नहीं है । अपने सामने एक सुनिश्चित लक्ष्य रख कर संपूर्ण मनोयोग से उसकी प्राप्ति के लिए जुट जाने तथा प्राणशक्ति के साथ खिलवाड़ को रोक देने से ब्रह्मचर्य की समग्र साधना पूरी होती है।

कल से एक “नए संयम” का शुभारम्भ हो रहा है। 

जय गुरुदेव, धन्यवाद् 


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