वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

कामुक विचार खाली  दिमाग में ही उत्पन होते हैं।  

वर्तमान लेख श्रृंखला में अब तक प्रकाशित हुए सभी लेखों की भांति आज का लेख भी एक अति-महत्वपूर्ण समस्या के प्रति विचारकोष लेकर आया है, सभी से अनुरोध है कि गुरुदेव द्वारा प्रदान किया साक्षात् गुरुज्ञान का बड़े ही ध्यानपूर्वक अमृतपान किया जाए। हमारा परम सौभाग्य है कि हमें परम पूज्य गुरुदेव ने अपने दिव्य साहित्य के रूप में “एक साक्षात् गुरु” प्रदान करा दिया है     

किसी  भी कार्य को  प्रभावशाली बनाने के लिए जरूरी है कि मनुष्य उस कार्य में अपनी सारी शक्ति एवं बुद्धि उड़ेल दे। आधुनिक समय का बहुप्रचलित वाक्य “इस कार्य को सफल बनाने के लिए मैं अपना बेस्ट दूंगा/दूंगी”, का पालन करते हुए,बेस्ट देने के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करना बहुत आवश्यक है। पिछले लेख में भी ब्रह्मचर्य को समझने का प्रयास किया था, वर्तमान चर्चा में एक बार फिर ब्रह्मचर्य का अर्थ दोहराना उचित रहेगा।

ब्रह्मचर्य को  केवल “यौन संयम” तक ही सीमित नहीं किया जा सकता है, इसमें मन, वचन और कर्म से सदाचार का पालन करना भी शामिल है। ब्रह्मचर्य का पालन करने से व्यक्ति को मानसिक शांति, एकाग्रता, शारीरिक और मानसिक ऊर्जा एवं  आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। 

अपना बेस्ट देने वाले संकल्प के लिए,जीवन के किसी भी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उपरोक्त Life management के पैकेज (मन,वचन, कर्म,एकाग्रता आदि) का  सामूहिक रूप से पालन करना बेसिक Step है। यदि इस बेसिक Step का पालन न किया जाए, “प्राणशक्ति का,जीवनी शक्ति का संचय न किया जाय,उसका अपव्यय” न रोका जाय तो कोई भी उद्देश्य केवल कल्पना  ही बन कर रह जाएगा। कल्पनाएं करना, हवाई किले बनाना तो बहुत ही सरल है लेकिन उन्हें पूरा करना बहुत ही कठिन है, इसके लिए उपरोक्त पैकेज के साथ सबसे बड़ा Element संकल्पशक्ति है। सब कुछ होने के बावजूद संकल्पशक्ति न हो तो सब धरे का धरा ही रह जायेगा। ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से निरंतर जिन  मानवीय मूल्यों को आत्मसात करने के लिए प्रेरित किया जाता है, उनका उद्देश्य संकल्पशक्ति को उजागर करना ही है।  

हमारे शास्त्रवेताओं ने, ऋषि-मुनियों ने “कामवासना के नियंत्रण” का बड़ा महत्व समझाया है। जो लोग इस महत्वपूर्ण निर्देश की ओर ध्यान न देकर,अपनी जीवन-शक्ति को गलत एवं अप्राकृतिक ढंग से नष्ट करते रहते हैं उन्हें जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं में  तो क्या, सामान्य जीवन में भी असफलता और निराशा का ही सामना करना पड़ता है। इस सच्चाई को समझना कोई  रॉकेट साइंस नहीं है, बड़ी ही सरलता से कोई भी समझ सकता है कि जब मनुष्य अनावश्यक कार्यों में अपनी शक्ति को खर्च करता रहेगा तो आवश्यक कार्यों में लगाने के लिए  शक्ति बचेगी ही कहाँ ? यहाँ पर एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न उठता  है कि आवश्यक और अनावश्यक कार्य का चयन कैसे होगा ?मनुष्य को कौन बताएगा कि कौन सा कार्य आवश्यक है और कौन सा अनावश्यक? कौन सा कार्य अब करना है और कौन सा कार्य बाद में करना है? इन सभी प्रश्नों के उत्तर स्मरण कराने के लिए ही बार-बार मानवीय मूल्य, जो हमारे परिवार के शक्ति स्तम्भ हैं रिपीट किये जाते हैं। हमारा परम सौभाग्य है कि हमें परम पूज्य गुरुदेव ने अपने दिव्य साहित्य के रूप में “एक साक्षात् गुरु” प्रदान करा दिया है जो हमें पग-पग पर आवश्यक/अनावश्यक के बारे में  बताता रहता है। जो बच्चे/युवा साथी यह कह कर कन्नी काट जाते हैं कि “हमें आठ पन्नों के भाषण की आवश्यकता नहीं है,हमें सब कुछ पता है” सही मायनों में उन्हें कुछ भी पता नहीं होता, जीवन को जानने के लिए उसे जीना पड़ता है, इस दिशा में AI बिलकुल भी सहायक नहीं है। अगर कोई यह कहे कि उसे सब कुछ पता है तो उसे केवल यही पूछना  चाहिए कि कामुक उच्छृंखलताओं के सामाजिक और व्यक्तिगत दुष्परिणामों का क्या कारण है, यह अपराध दिनोदिन बढ़े ही क्यों जा रहे हैं। स्त्री-पुरुष के अनैतिक सम्बन्धों से उत्पन्न होने वाला चरित्र-संकट और व्यक्तिगत रूप से इस अनाचार के कारण घृणित बीमारियों का आक्रमण किसी के लिए अनजानी बात नहीं है ।

कोई ज़माना था कि कामुकता या यौन सम्बन्धों को अत्यन्त अमर्यादित समझा जाता था, ज़रा सा भी मर्यादा से हटने को  बेहद घृणित/निकृष्ट समझा जाता था लेकिन जब से यौन संबंधों के प्रति आज के मानव की धारणा में बदलाव आया है, उसने घोर से घोर अपराध को भी Take it easy की केटेगरी में डाल दिया है, सहज स्वाभाविक समझा जाने लगा है, सामाजिक मर्यादाओं,बन्धनों को अनावश्यक बताया जाने लगा है तभी से ऐसे  दुष्परिणाम सामने आने लगे। 

सदियों से स्त्री पुरुष एक साथ संयुक्त परिवार में रहते आ रहे थे, संयुक्त परिवारों में तो कई-कई महिलाएँ, युवतियाँ और वयस्क पुरुष होते हैं लेकिन कहीं कोई गड़बड़ी नही होती थी, कहीं कोई भूखे भेड़िये खुले नहीं घूमते दिखते थे। इस अनुशासन का एकमात्र कारण था कि लोगों ने पारिवारिक संबंधों में बनायी गयी मान्यताओं को लक्ष्मण रेखा मान रखा था,उस रेखा को क्रॉस करना अक्षम्य अपराध माना जाता था। इस अपराध का दंड समाज तय करता था, लेकिन आज इस अपराध का निर्णय कोर्ट/कचहरी में होता है। भले ही सरकारें कड़ी से कड़ी सज़ाएं घोषित कर दें, जब तक मनुष्य की मनस्थिति में परिवर्तन नहीं होगा कुछ  भी सार्थक परिणाम मिलने की बहुत कम सम्भावना है। 

आधुनिक, So-called मॉडर्न युग में जब से यौन संबंधों को  सहज स्वाभाविक समझा जाने लगा है,काम विकृति उमड़ कर सामने आई है। प्रकृति भी इस तथ्य का समर्थन करती है कि जिस वस्तु यां व्यक्ति के प्रति मनुष्य आसक्त होता है,उसकी निकटता न मिलने पर वह छटपटाता है।आसक्ति तो है ही दुःख  की जननी लेकिन जब उसके साथ “काम” भी जुड़ा हो तो क्या होता है उससे कोई भी अनजान नहीं  है, आए दिन  सब कुछ प्रतक्ष्य दिख रहा है, तो साथिओ “यह है आज के युग की महत्वपूर्ण देन।” 

काम-विकार की उत्पत्ति का कारण आसक्ति और विकृत चिन्तन ही है। ईश्वर द्वारा स्त्री पुरुष के भिन्न शरीरों की रचना एवं Opposite sex की ओर आकर्षण होना किसी भी समस्या को आमंत्रित नहीं करता, ईश्वर की उत्कृष्ट कलाकृति का सम्मान करना, उसकी सराहना करना हर मनुष्य का परम कर्तव्य है लेकिन समस्या तो तब खड़ी होती है जब चिन्तन का विकार और भावनाओं का घटिआपन मनुष्य को कामुकता (Sexuality) के गर्त में धकेलता है। 

यदि मनुष्य का चिंतन, भावना,दृष्टि ठीक रहे तो स्नेह, विशुद्ध  प्रेम और परस्पर निष्ठा जैसे गुणों का लाभ उठाते हुए, स्त्री पुरुष एक और एक ग्यारह होने की उक्ति चरितार्थ कर सकते हैं, और ऐसा हो भी रहा है। लेकिन ऐसे उदाहरण भी कम नहीं हैं जहाँ पति/पत्नी एक ही बिज़नेस में,एक ही संस्थान में एक दूसरे के विकास में सहयोगी होने के बजाए  एक दूसरे को गिराने वाली शत्रुता बरतने लगते हैं। कामुक और विषयी व्यक्ति का स्वार्थी और मनमानी करने वाला होना निश्चित है। ऐसे व्यक्ति न किसी मर्यादा अनुशासन को मानते हैं और न अपने जीवनसाथी के स्वास्थ्य तथा शरीर का ध्यान रखते हैं। यह मनमानापन पारिवारिक संबंधों के साथ-साथ अन्य  क्षेत्रों में भी अपना रंग दिखाता  है। मनुष्य द्वारा फैमिली लाइफ में मर्यादाओं को न मानने वाला स्वभाव अन्य क्षेत्रों में भी आड़े आता है और कार्यप्रगति  को प्रभावित  करता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से कोई हानि न भी हो लेकिन Workplace पर होने वाली हानि को नकारा नहीं जा सकता।  

इस  घातक विष की उत्पत्ति मनः क्षेत्र में ही होती है। वातावरण, बुरे लोगों का साथ,अश्लील साहित्य का पठन,अश्लील चित्रों का देखना मन पर बुरा प्रभाव छोड़ती हैं  और जरा भी अवसर मिलने पर उस स्तर के विचार उठने लगते हैं। जैसे ही मनः क्षेत्र में उन विचारों को आश्रय मिलने लगता है वैसे ही व्यक्ति का आत्म-नियन्त्रण  ढीला पड़ने लगता है इसी कारण ब्रह्मचर्य साधक को अपनी निर्बाध गति बनाये रखने के लिए आरम्भ से ही सचेत रहने का निर्देश दिया गया है ।

जिन लोगों के पास कोई काम नहीं होता, जो निठल्ले ही बैठे रहते हैं  उनकी चिन्तन धारा इसी दिशा में बहकने लगती है। कितनी ही बार कहा जा चुका है कि मन कभी खाली बैठना पसन्द नहीं करता,जब भी वह खाली हो तो वह अपनी प्रिय रूचि की ओर दौड़ने लगता है। यही कारण है कि मन ज़रा सा अवकाश मिलते ही,इस  रुचिकर एवं  सुखद विषय अपनी ओर आकृष्ट होता है। इसके विपरीत देखा गया है कि जो लोग हमेशा किसी न किसी कार्य में व्यस्त रहते हैं, जिनका चिन्तन किसी उपयोगी दिशा में लगा रहता है उनके मन में कामविकार उत्पन्न ही नहीं होता। बड़े-बड़े वैज्ञानिक, चिन्तक, दार्शनिक और महान् साहित्यकार जो लगातार  सृजन साधना में लगे रहते हैं,उन्हें कभी भी कामविकारों ने पीड़ित नहीं किया क्योंकि व्यस्त रहने के कारण उनके मन में इस तरह के विचार उठते ही नहीं। महात्मा गाँधी ने ब्रह्मचर्य के विषय में अपने अनुभव लिखते हुए कहा है, ” काम विकार प्रायः खाली बैठने से, अश्लील दृश्यों के अवलोकन से  या बार-बार उनका मनन करने से उत्पन्न होते हैं । यदि मन, दिल और दिमाग हर घड़ी व्यस्त रहेगा तो विचारों को प्रवेश करने का कोई रास्ता ही नहीं मिलेगा। आचरण का बीज विचार ही है। यदि विचारों को सत्य की ओर, रचनात्मक प्रवृत्तियों की ओर लगाये रखें  तो ब्रह्मचर्य पालन की एक बहुत बड़ी समस्या हल हो जाती है। 

प्रकृति ने मानवी  शरीर में ऐसी Built-in व्यवस्था बनाई हुई है जिससे हर समय शरीर में Hidden  शक्ति उत्पन्न होती रहती है। यदि उस शक्ति का उपयोग शरीर और मन को निरन्तर व्यस्त रखने में नहीं किया जाता तो वह अनुचित मार्गों से नष्ट होने लगती है । ब्रह्मचर्य के द्वारा एकत्रित शक्ति को किसी उच्च उद्देश्य में लगाना ही आवश्यक है। यह तो वही बात हुई कि मनुष्य के पास पैसा तो है लेकिन उसे पता ही नहीं है कि निवेश कहाँ करे। पैसा तो जड़ है, उसे  एक ही स्थान पर बाँध कर रखा जा सकता है  लेकिन शक्ति को रोक कर रखना असम्भव है। भाप से तो ट्रेन चलाई जा सकती है लेकिन यदि उसे काम में न लाया जाये तो विस्फोट हो सकता है। बाँध बनाकर नदी का पानी रोक लिया जाय और उसे सिचाई के लिए न छोड़ा जाय तो वह पानी बाँध तोड़ कर फूट पड़ेगा ।

यहीं पर कल तक के लिए मध्यांतर होता है 

जय गुरुदेव, धन्यवाद् 


Leave a comment