वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

जीवनी  शक्ति का आधार क्या है ?

आज सोमवार है,दीपावली के दिव्य पर्व की सभी साथिओं को शुभकामना प्रदान करते हैं। आजकल फैशन बन चुका  है कि हर कोई त्यौहार दो अलग-अलग तिथिओं पर मनाया जाये। 

कोई चाहे नोट जलाकर,पटाखों से दिवाली  मनाए, लेकिन ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से एक ही सन्देश प्रसारित होना चाहिए: परम पूज्य गुरुदेव के दिव्य साहित्य का प्रकाश विश्व के घर-घर में पंहुचे,सभी के हृदयों में वर्षों से जमी कालिख को ज्ञान का प्रकाश चमकृत करे, मनुष्य का कायाकल्प हो, यह कायाकल्प मात्र  लिखने तक ही सीमित न रहकर,मनुष्य के आचरण में प्रतक्ष्य दिखे।

अपने आदरणीय साथिओं  की सहूलियत के लिए इस  ज्ञानप्रसाद का  अमृतपान करने के लिए दोनों ही विकल्प उपलब्ध हैं, यहाँ यूट्यूब पर और संलग्न गूगल ड्राइव लिंक पर भी।

तो आइए विश्व शांति की कामना के साथ आज की गुरुकक्षा का शुभारम्भ करें : 

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।

वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

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भारतीय संस्कृति में इन्द्रिय संयम  के  सम्बन्ध में जो मानदण्ड निर्धारित किये हैं और “काम संयम” को जो महत्व दिया है वह इसलिए महत्वपूर्ण है कि  प्राचीनकाल में योगियों ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से काम संयम को अच्छी तरह जाना था। उन्होंने यह प्रतिपादित किया था कि वह प्राणशक्ति जो कामवासना में खर्च होती है, मनुष्य के जीवन का मूल आधार है। उस शक्ति के स्थूल स्वरूप को ही वीर्य का नाम दिया गया और बताया गया कि जब यह शक्ति क्षीण होती है तो स्वास्थ्य चौपट होने लगता है और मनुष्य मृत्यु का अकाल ग्रास बनने लगता है।

आधुनिक युग के  So-called प्रगतिवादी अब तक इस प्रतिपादन को मात्र कही सुनी बात एवं  मिथ्या ही मानते रहे लेकिन विश्वभर के वैज्ञानिकों ने इस दिशा  में जो अनुसंधान किये उनसे इन निष्कर्षो पर पहुँचा जा सका कि वास्तव में यह “जीवन शक्ति का आधार” है। उस दिशा में किये गये अनुसंधानों का निष्कर्ष संक्षेप में इस प्रकार है: गर्भ धारण के बाद वीर्य कोष के कण विकसित होने लगते हैं । प्रारम्भ में यह कोष मस्तिष्क में ही संचित होते हैं। भारतीय तत्वदर्शियों का इस सम्बन्ध में मत है कि शिशु  इसी कारण परमहंस जैसी स्थिति में रहता है। परमहंस एक ऐसी स्थिति है जहाँ जीव आसक्तियों से मुक्त होता  है। जीव  वीर्य शक्ति और दृढ़ता प्राप्त करे इसके लिए बालक को सात्विक और भाव भरे आहार की आवश्यकता होती है। यह आहार  माँ के दूध के अतिरिक्त अन्य कोई नही होता।आयु बढ़ने के साथ माँ के  दूध की आवश्यकता गाय, बकरी अथवा भैंस के दूध को हल्का  करके पूरा करना चाहिये । इसके बाद जैसे-जैसे शरीर में शक्ति का संचार होता है,आहार पद्धति में सावधानी बरतने की आवश्यकता भी बढ़ती जाती है। 10  वर्ष की आयु तक वीर्य दोनों  भौंहों के बीच वाले स्थान में आ जाता है। इस समय बच्चे को अधिकांश आहार फल-दूध आदि ही देना चाहिये। 5 वर्ष की आयु में ही बालक को गुरुकुल में  पहुँचा देने का प्राचीन उद्देश्य बच्चे को गृहस्थ के अनुचित आहार से बचाये रखना ही होता था। इस आयु में बच्चे में अनुकरण की प्रवृत्ति रहती है इसीलिए वह वही भोजन करने का इच्छुक रहने लगता है जो घर के सदस्य पसंद करते हैं। 9 से 12 वर्ष तक वीर्यशक्ति भौंहों से उतर कर कण्ठ में आ जाती है,यही कारण है कि  प्रायः इसी समय बालकों  के स्वर में भारीपन और कन्याओं के स्वर में सुरीलापन आता है। इस आयु से पहले तक जो ध्वनि दोनों की लगभग एक जैसी होती है,अब स्वर में पुरुषोचित लक्षण झलकने लगते हैं। इस आयु में Opposite sex के प्रति आकर्षण पैदा होने लगता है। इन्हीं दिनों में बच्चों पर निगरानी न देने के कारण अनुचित परिणाम देखने पड़ते हैं। यह ऐसे परिणाम होते हैं जो न केवल उसे स्वास्थ्य की दृष्टि से बल्कि मानसिक दृष्टि से भी हीन बना देते हैं। ऐसे बच्चे बौद्धिक दृष्टि से बिल्कुल कमजोर होते हैं। 

नास्तिकता कोई सिद्धान्त नहीं, एक प्रकार का रोग है जो मानसिक कमजोरी के कारण होता है। प्राचीनकाल में बालक की वीर्य रक्षा पर ध्यान रखा जाता था इससे उसकी विचार क्षमता ऊर्ध्वमुखी बनी रहती थी। 11 से 16  वर्ष की आयु में वीर्यशक्ति मूलाधार (Root chakra) चक्र में अपना स्थान बना लेती है। ऐसी स्थिति में ब्रह्मचर्य को संभाल  पाना कठिन हो जाता है, बेसिक चक्र जो हुआ। 24  वर्ष की आयु तक यह वीर्यशक्ति सारे शरीर में पूरी तरह व्याप्त हो जाती है और समस्त अंगों को पुष्ट तथा बलिष्ठ बनाती है। ऋषिओं ने इस स्थिति की व्याख्या करते हुए बताया है कि जिस प्रकार दुग्ध में घी, तिल में तेल, ईख में मीठापन तथा काष्ठ में अग्नि तत्व सर्वत्र विद्यमान रहता है उसी प्रकार वीर्यशक्ति  सारे शरीर में व्याप्त हो जाती है। 

प्राचीन काल से अब तक जितने भी महापुरुष हुए हैं उन्होंने सर्वप्रथम कामवासना को नियंत्रित किया है क्योंकि कामुक चित्त न तो अन्य दिशाओं में सोच पाता है और न ही वह  किसी कार्य की व्यवस्थित दिशा में अग्रसर होने की  योजना तैयार कर पाता है। 

कामवासना एक ऐसा विकार है जो जब उठता है तो उसे नियंत्रित कर पाना कठिन ही नहीं लगभग असम्भव भी हो जाता है। अन्य विकार तो जबरदस्ती या किसी काम में व्यस्त होकर भी कंट्रोल किए जा सकते हैं लेकिन  कामवासना का विकार ऐसा है कि यदि इसे खुले रूप में व्यक्त होने दिया जाय तो मनुष्य का नैतिक-पतन, चरित्र-भ्रष्टता आत्मग्लानि, निर्बलता,रोग,अशक्ति और सामाजिक अपमान जैसे दुष्परिणाम एक साथ भुगतने पड़ सकते है। 

आगे चलने से पहले यदि “विषय विकार” की परिभाषा को समझ लिया जाये तो शायद अनुचित न हो। बाल्यकाल से गाते आ रहे हैं “विषय विकार मिटाओ पाप  हरो देवा”, कहीं ऐसा तो नहीं कि रटे रटाए तोते की तरह बस बोले ही जा रहे हैं, मतलब एवं भाव का तो ज्ञान ही नहीं है। 

“विषय विकार” का अर्थ है किसी भी वस्तु या विचार (विषय) के प्रति अत्यधिक या अनियंत्रित आसक्ति, जो मानसिक या शारीरिक संकट का कारण बनती है। आसक्ति का तो अर्थ ही है “जो आ तो सकती है लेकिन जाने का नाम नहीं लेती। किसी भी व्यसन का नाम लें, उसके लगने भर की देर होती है,फिर वह बढ़ती ही जाती है.बढ़ती ही जाती है,ऐसी आसक्ति के कारण परिवार तक टूटते देखे गए हैं, विनाश होते देखे गए हैं।    

विषय विकार का तात्पर्य उन व्यवहारों से है जो व्यक्ति की जरूरतों को पूरा करने के बजाय भोग-विलास के लिए होते हैं,जिससे मनुष्य के  दैनिक जीवन में परेशानी पैदा होती है। जब विषय विकार की बात होती है तो सबसे प्रमुख विकार,काम (कामवासना),क्रोध,लोभ,मोह और अहंकार हैं। 

जब कोई विषय (भौतिक वस्तुएं, धन या इंद्रिय सुख) हमारी आवश्यकता पूर्ति के साधन से बढ़कर, हमारे जीवन का केंद्र बन जाता है,हमारे जीवन को प्रभावित करता है तो यह विकार बन जाता है। इसे अत्यधिक आसक्ति कहा जाता है। 

जब  कोई  व्यक्ति अपने विचारों और व्यवहारों पर नियंत्रण, कण्ट्रोल, संयम खो देता है तो उसे उसके परिणामों का ध्यान ही नहीं रहता, उसे बिलकुल कोई फिक्र नहीं रहता, भले ही अनियंत्रण के कारण दैनिक जीवन में कठिनाइयाँ उत्पन्न होती रहें। ऐसी स्थिति को नियंत्रण की कमी कहा जाता है। 

विकार न केवल मानसिक शांति को भंग करते हैं, बल्कि शारीरिक और मानसिक बल को भी कम करते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार, पांच मुख्य “विषय विकार” जब मनुष्य को आ दबोचते हैं तो घोर दुःख  का कारण बनते हैं। इन दुःखों के कारण जब  स्थिति गंभीर हो जाती है, तो इसे मनोविकार (mental disorder) या अन्य मानसिक विकारों के रूप में देखा जाता है, जैसे कि भ्रांतिमूलक विकार,जो एक ऐसी मानसिक स्वास्थ्य स्थिति है जिसमें व्यक्ति बिना किसी वास्तविक आधार के एक या अधिक भ्रम विकसित करता है इंग्लिश में इसे Delusional disorder का नाम दिया गया है। जैसे-जैसे मनुष्य ने प्रगति की, विज्ञान और पदार्थवाद ने नए आयामों को छुआ, अनेकों नई प्रकार के फैशनेबुल Mental disorders ने जन्म लिया और मनुष्य के लिए बहानेबाज़ी का  एक द्वार खुल गया कि मुझे तो क्रोध,काम,अहंकार आदि की बीमारी लग गयी है, जबकि यह आदत होती है।    

उपरोक्त सभी विषय विकारों की भांति,एक समझदार एवं विवेकशील व्यक्ति  यदि अपनी वासना को वश में कर ले तो वह “मन” जो निरन्तर कामुक चिन्तन में ही व्यस्त रहता था आसानी से किसी काम में लग कर उच्चस्तरीय  सफलता और महानता प्राप्त कर सकता है। 

परम पूज्य गुरुदेव ने “मन को वश करने” को ही साधना (अर्थात सीधा करना) कहा है। कोई भी बड़ा काम करना हो, कोई भी महान उद्देश्य प्राप्त करना हो तो ब्रह्मचर्य उसी प्रकार अनिवार्य हो जाता है जिस प्रकार किसी मकान का निर्माण करते समय उसके लिए पूँजी और श्रम की पूँजी एकत्रित की जाती है। मनुष्य के पास न तो पूँजी हो न, न ही  उसकी प्राप्ति के लिए श्रम ही किया जाय तो हवाई किले बनाने जैसी बात कही जा सकती है। कल्पना में भले ही बड़े-बड़े महलों के स्वप्न देखते रहे जाएँ,यथार्थ में उसका कोई अस्तित्व नहीं बन पाता। 

ब्रह्मचर्य का अर्थ है “ब्रह्म के मार्ग पर चलने को आचरण में उतारना है  जिसका मतलब है परमात्मा में विचरना और आत्मसंयम, इंद्रिय निग्रह और उच्च जीवन जीना है। ब्रह्मचर्य को  केवल यौन संयम तक ही सीमित नहीं किया जा सकता है, इसमें मन, वचन और कर्म से सदाचार का पालन करना भी शामिल है। ब्रह्मचर्य का पालन करने से व्यक्ति को मानसिक शांति, एकाग्रता, शारीरिक और मानसिक ऊर्जा, और आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। 

बड़े उद्देश्यों की पूर्ति के लिए यदि  इस “प्राणशक्ति का संचय न किया जाय और उसका अपव्यय” न रोका जाय तो महान उद्देश्य केवल कल्पना में ही बने रह सकते हैं। महात्मा गांधी ने जब स्वराज्य प्राप्ति का महान लक्ष्य अपने सामने रखा करना तो उन्होंने अपनी इस प्राणशक्ति को सामान्य जीवन में भी खर्च करना बंद कर दिया और सामान्य दाम्यत्य सम्बन्धों को उर्ध्वगामी बना कर ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया। उस समय उनकी आयु 35-36  वर्ष की थी लेकिन उन्होंने इस उम्र  में ही ब्रह्मचर्य-व्रत लेकर साधारण स्थिति में रहते हुए भी स्वराज्य प्राप्ति जैसे महान लक्ष्य प्राप्त करने योग्य साधन और सामर्थ्यं जुटाने में सफलता प्राप्त की। स्वराज्य प्राप्ति में यद्यपि हजारों लाखों लोगों का योगदान रहा लेकिन गांधी जी सबके प्रेरणास्रोत और मार्गदर्शक बने ।

कहने का अर्थ यह है कि बड़े उद्देश्य प्राप्त करने और सामान्य जीवन में भी तेजस्विता तथा प्रभावशीलता उत्पन्न करने के लिए कामवासना का नियंत्रण अति आवश्यक है। इन दिनों कामुक उच्छृंखलताओं के जो सामाजिक और व्यक्तिगत दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं वे किसी से छुपे नहीं हैं । स्त्री पुरुष के अनैतिक सम्बन्धों से उत्पन्न होने वाला चरित्र संकट और व्यक्तिगत रूप से इस अनाचार के कारण घृणित बीमारियों का आक्रमण किसी के लिए अनजानी बात नहीं है ।

आज के लेख का कल तक के लिए यहीं पर मध्यांतर 

जय गुरुदेव, धन्यवाद् 


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