वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

किसको कण्ट्रोल करें, मन को यां इन्द्रियों को?  

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से इन्द्रिय-संयम के महत्वपूर्ण विषय पर लगभग 60 विस्तृत लेख प्रकाशित हो चुके हैं, इसके बावजूद इस विषय को जानने की तृष्णा अधिकधिक बढ़ती ही जा रही है क्योंकि ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। आज के लेख में मन का संयम और इन्द्रिय-संयम का Comparison किया गया है। यह जानने का प्रयास किया गया है कि मन को कण्ट्रोल करें यां इन्द्रियों को कण्ट्रोल करें। 

गुरुकुल की दैनिक गुरुकक्षा में गुरुज्ञान का दिव्य अमृतपान करते हुए अमृत्व को प्राप्त करने के लिए सभी गुरुशिष्यों का स्वागत है, अभिनंदन है, आइए विश्व शांति की कामना के साथ इस कक्षा का शुभारम्भ करें : 

 ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।

वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

अर्थात शान्ति: कीजिये प्रभु ! त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में,अन्तरिक्ष में, अग्नि – पवन में, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन में,सकल विश्व में अवचेतन में,शान्ति राष्ट्र-निर्माण और सृजन में,  नगर , ग्राम और भवन में प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण – कण में, शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए !

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मनुष्यों में अक्सर यह धारणा बनी हुई है कि जब भी संयम, कण्ट्रोल, Restraint की बात होगी तो इसका अर्थ यही निकाला जाएगा कि हमें इन्द्रिय संयम यानि अपनी इन्द्रियों को  कण्ट्रोल करने के लिए कहा जा रहा है, मन का क्या Role है उसे भी जानना उतना ही आवश्यक है।  

आइए आगे चलने से पहले ज़रा एक बार फिर से अपने इन्द्रिय ज्ञान को Revise कर लें। ऐसा हम इसलिए कह  रहे हैं कि अब तक हम इस विषय पर लगभग 60 विस्तृत Full length ज्ञानप्रसाद लेख लिख चुके हैं लेकिन इतना होने के बावजूद सब कुछ एकदम स्मरण रख पाना कोई सरल कार्य नहीं है क्योंकि ज्ञान की कोई सीमा तो है नहीं।  

 2021 में आदरणीय अनिल कुमार मिश्रा जी के स्वाध्याय पर आधारित  रामकृष्ण मिशन मायावती,अल्मोड़ा के वरिष्ठ सन्यासी, पूज्य स्वामी बुद्धानन्द जी महाराज और छत्तीसगढ़ रायपुर के विद्वान सन्यासी आत्मानंद महाराज जी की अद्भुत रचना, Mind and its control को आधार बनाकर ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से एक लेख श्रृंखला प्रकाशित की गयी थी जो लगभग दो माह तक चली  थी। साथिओं को स्मरण हो आया होगा कि इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद उपलब्ध नहीं था और गूगल ट्रांसलेट की सहायता  से  इस लेख शृंखला को प्रस्तुत किया गया था।   

2022 में हमारी अति समर्पित बहिन आदरणीय संध्या कुमार द्वारा संकलित लेखों का भी हमने लगभग एक माह के लिए अमृतपान किया था। यह लेख श्रृंखला परम पूज्य गुरुदेव की केवल 25 पन्नों की लघु पुस्तिका  “इन्द्रिय संयम का महत्व” पर आधारित थी। 

हम अपने दोनों साथिओं का इस दिव्य योगदान के लिए धन्यवाद् करते हैं।

शास्त्रकारों ने मनुष्य में समाहित 10 इन्द्रियों को दो भागों में बांटा हुआ है : 

पहले भाग में पांच ज्ञानेन्द्रियाँ (Five gateways of knowledge), ज्ञान के पांच द्वार; श्रवण(Hear),स्पर्श(Touch),देखना (Sight), स्वाद (Taste) और सूंघना(Smell) आती हैं।  यह पांचों इन्द्रियां बाहरी जगत से ज्ञान प्राप्त करती हैं 

दूसरे भाग में पांच कर्मेन्द्रियाँ आती हैं जो कार्य करने वाली इन्द्रियां हैं। बोलना, ग्रहण करना, चलना, प्रजनन(Sexual pleasure etc), मलमूत्र(त्याग),पांच कर्मेन्द्रियाँ हैं जो मनुष्य से सारे  कार्य करवाती हैं।     

अब जब 10 के नाम एवं कार्य Revise  हो गए हैं तो यह भी स्मरण हो आया होगा कि इन सभी इन्द्रियों के नियंत्रण केंद्र मन (मनस्) में रहते हैं, जिसे इन सबका संयोजक/संचालक माना गया है। इसीलिए बार-बार कहा गया है कि 

“मन बड़ा ही शैतान है, यही मनुष्य से सब कुछ करवाता है ,दिल तो बच्चा है जी, एक नवजात/अबोध शिशु जैसा, उसे डाँट पड़े तो शिशु से पहले डांटने वाला ही रो उठता है। यहाँ तक कहा गया है कि मन की डोर खुली छोड़ दो फिर देखो कैसा विकास होता है। नवजात शिशु जिसने अभी-अभी इस  संसार में नेत्र खोले हैं, सब कुछ देख लेना चाहता है, सब कुछ जान लेना चाहता है। 

क्या सच में ऐसा ही है ? क्या हम मन को खुला छोड़ दें ?वह जो चाहे, उसे करने दें ?

शायद ऐसा हरगिज़ नहीं है। समाज में रहना है तो मर्यादाओं का पालन करना ही पड़ेगा, कोई भी बुद्धिमान खुली आँखों से विनाश होता न सहन कर पायेगा, उसे संयम बरतना ही पड़ेगा क्योंकि ईश्वर के प्रिय पुत्र, राजकुमार को मनुष्य योनि प्राप्त करने के लिए बहुत लम्बी,कठिन Evolutionary यात्रा करनी पड़ी है।       

अनेकों बार कहा जा चुका है कि संयम को इन्द्रिय संयम तक ही सीमित नहीं किया जा सकता किन्तु फिर भी उसे संयम का एक महत्वपूर्ण अंग मानने से इन्कार भी नहीं किया जा सकता। मानसिक संयम का सूक्ष्म रूप हर किसी को समझ नहीं भी आता। इन्द्रिय संयम का स्थूल रूप समझ कर उससे सम्बन्धित वृत्तियों के संयम की बात अधिक सुगमता से समझ में आ जाती है। मनुष्य के अंतःकरण में (मन में) उठने वाले विचार ही क्रिया के रूप में कार्यान्वित होते हैं। यही विचार बार-बार उठने के कारण,बार-बार मनुष्य से वही कार्य करवाते हैं और फिर अंत में यही उस मनुष्य की प्रवृति बन जाते हैं। यह सब क्रिया  इन्द्रियों के माध्यम से ही होती है, इसलिए मानसिक संयम का प्रभाव भी इन्द्रिय संयम के रूप में ही परिलक्षित होता है ।

जिन इन्द्रियों के माध्यम से शक्तियों का क्षरण होता है उनमें मुख्य जननेन्द्रिय, स्वादेन्द्रिय और स्पर्शइन्द्रियां हैं । इन इन्द्रिय माध्यमों से शक्ति क्षरण की प्रेरणा सर्वप्रथम मन में ही उत्पन्न होती है। उदाहरण के लिए कामवासना ( Sexual appetite, Sex करने की भूख ) को ही लें,  सर्वप्रथम मात्र देखने से ही मन में कामुकता के विचार उठते हैं, आगे चल कर वही विचार स्पर्श की इन्द्रिय को जागृत करते हैं और फिर तो क्या कहा जाए,आगे बढ़कर यौन विचार मनुष्य को इतना असंयमित( संयम जैसी तो कोई चीज़ ही नहीं रहती) और शैतान बना देते हैं कि समाज की सभी मर्यादाओं का हनन होते हुए निर्भय जैसे काण्ड प्रतक्ष्य दृष्टिगोचर होते हैं। 

क्या ऐसा है ईश्वर का प्रिय पुत्र, ईश्वर का राजकुमार ?

यही है मन को खुला छोड़ने का, लगाम न लगाने का दुष्परिणाम !!!

इसी प्रकार का दुष्परिणाम, मन में स्वाद लेने की लिप्सा-आकांक्षा, तरह-तरह की खाद्य वस्तुओं को चखने और खाने के लिए भी प्रेरित करती है। स्पर्श के सुख की आकांक्षा भी आराम से पड़े रहने की चाह के रूप में उत्पन्न होती है और मनुष्य महत्वपूर्ण कार्यों में भी आलस्य और प्रमाद अनुभव करने लगता है। स्पर्श का केवल आराम/आलस्य से ही सम्बन्ध नहीं है, Sexual crime के क्षेत्र में इसका बहुत बड़ा हाथ है। ऐसी ही स्थिति से बचने के लिए पाठशालाओं की आरंभिक कक्षाओं में ही Sex education का ज्ञान देना अनिवार्य होता जा रहा है। इस विषय पर विरोध/समर्थन दोनों ही दिखे जा रहे हैं लेकिन जैसा भी समाधान निकले Sex crime के विनाश से बचना हो होगा।    

एक सभ्य समाज की पुकार यही है कि अपनी इन्द्रियों को कण्ट्रोल किया जाए, उनका उपयोग सार्थक विकास के लिए ही किया जाए। जब मनुष्य अपनी इन्द्रियों को व्यर्थ एवं  हानिकारक दिशाओं में लगाता रहेगा तो वह अपनी शक्तियों को किसी भी उद्देश्यपूर्ण कार्य में नहीं लगा पाएगा। कामोपभोग (Sexual enjoyment) में लीन रहने के कारण, मनुष्य का जीवन के महत्वपूर्ण कार्यों की ओर  ध्यान ही नही जाता। उसी प्रकार स्वाद  लिप्सा के कारण मनुष्य को उचित/अनुचित  आवश्यक/अनावश्यक वस्तुयें खाते रहने की आदत सी पड़ जाती है।  आलस्य प्रमाद से होने वाली हानि तो सभी जानते हैं। इन हानिकारक व्यर्थ दिशाओं  में अपनी शक्तियों का दुर्व्यय(Misuse), अपव्यय (Wastage) मुख्यतः मानसिक विकृतियों के कारण ही होता है । फिर भी ब्रह्राचर्य, स्वाद संयम और श्रम व समय का सदुपयोग करने के लिए इन्द्रियों को प्रशिक्षित और अभ्यस्त बनाने की आवश्यकता है । यद्यपि इनकी जड़ मनुष्य के मनः क्षेत्र में रहती है लेकिन इन विकारों में से होने वाले शक्ति क्षरण में इन्द्रियां सक्रिय भूमिका निभाती हैं, इसलिए इनका उल्लेख इन्द्रिय-संयम के अन्तर्गत आता है। 

“यदि इन्द्रियों को यथासंभव  शिक्षित और अभ्यस्त किया जाय और साथ ही साथ मन को भी साधते रहा जाय तो संयम के महत्वपूर्ण सत्परिणाम देखे जा सकते हैं।”

मन में कामवासना  की तीव्र इच्छा हो तो भी सामाजिक बंधन तथा मर्यादायें व्यक्ति को अवांछनीय रूप से बे-लगाम नहीं होने  देतीं। यदि सामाजिक मर्यादायें न रहें तो समाज में यौन-दुव्यसनों  का ताण्डव ही होने लगे। सामाजिक मर्यादायें बाहरी दबाव डालकर व्यक्ति को अनैतिकता बरतने से रोक भी दें लेकिन  मानसिक प्रवृति को उस आधार पर नहीं रोका जा सकता।  यही कारण है कि जहाँ सामाजिक मान्यतायें उग्र कामक्रीड़ा को गति दृष्टि (Advanced society) से देखती है वहाँ अपेक्षाकृत कम यौन-अपराध और यौन-रोग होते हैं। क़ानून बनाने तो बहुत ज़रूरी हैं लेकिन लोगों के Mindset, मनःस्थिति को बदलने की ज़रुरत है, जिन देशों में  कामवासना को शारीरिक आवेग का ही एक रूप मान लिया गया है, यौन रोगों की बाढ़ सी आयी हुई है। ऐसे देशों में कामवासना को भूख और निन्द्रा की तरह ही  शरीर की आवश्यकता मान लिया गया है। कामवासना को  छीक, जम्हाई की तरह शरीर की मल विसर्जन प्रक्रिया जैसा मान लिया गया है। पश्चिमी देशों में जहाँ कामवासना को स्वाभाविक मान लिया गया है वहां इस विकृति के कारण होने वाले अनेकों अन्य तरह के दुष्परिणाम प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं ।

भारतीय संस्कृति में इस सम्बन्ध में जो मापदंड  निर्धारित किये हैं और काम-संयम को जो महत्व दिया है, वह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि प्राचीनकाल में योगियों ने अपनी सूक्ष्मदृष्टि से इस तथ्य को अच्छी तरह से स्टडी किया था। उन्होंने प्रतिपादित किया था कि वह प्राणशक्ति जो कामवासना में नाश होती है वही मनुष्य के जीवन का मूल आधार है। उस शक्ति के स्थूल स्वरूप को ही “वीर्य” का नाम दिया गया और बताया गया कि यह जब क्षीण होने लगती हैं तो स्वास्थ्य चौपट होने लगता है और मनुष्य  मृत्यु का अकाल ग्रास बनने लगता है। आज के लेख का समापन निम्नलिखित सन्देश से करना उचित होगा : 

तथाकथित प्रगतिवादी जिस प्रतिपादन को अन्धविश्वास कह कर मज़ाक उड़ाते रहे हैं एवं मिथ्या मानते रहे हैं वैज्ञानिकों ने अनुसंधान करके निष्कर्ष निकाले हैं  कि वास्तव में “वीर्य” ही जीवनशक्ति का आधार है । वह “वीर्य कोश” जो स्त्री के Uterus  में पहुँचते हैं, गर्भ-धारण के बाद  विकसित होने लगते हैं। 

इसी विषय को सोमवार वाले लेख में और अधिक जानने का प्रयास करेंगें। 

धन्यवाद्, जय गुरुदेव 


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