वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

वाणी-संयम का एक अंग मधुर-भाषण भी है 

आज प्रस्तुत किए गए दिव्य ज्ञानप्रसाद लेख से हम परम पूज्य गुरुदेव की अद्भुत रचना “शक्ति संयम का स्त्रोत-संयम” के 30 पन्नों का अमृतपान करने में सफल हो रहे हैं। 39 पन्नें अभी भी बाकी हैं लेकिन हम निवेदन करना चाहेंगें कि गुरुदेव द्वारा रचित पुस्तकें चाहे हम 3200 भी पढ़ लें, यदि हम उन्हें अपने आचरण में नहीं उतारते तो सब कुछ व्यर्थ है। इस मंच पर प्रकाशित होने वाले लेखों की यही विशेषता है कि यदि पाठक इन भावनाओं में डूबता नहीं है, अपने भाव वयक्त नहीं करता है तो लेख लिखने का उद्देश्य सफल नहीं मन जाता। 

आज के लेख में वाणी-संयम का महत्वपूर्ण अंग मधुर-वाणी पर केंद्रित है, ऐसी वाणी जिसको सुनकर श्रोता दास ही बन जाये। 

गुरुकुल की दैनिक गुरुकक्षा में गुरुज्ञान का दिव्य अमृतपान करते हुए अमृत्व को प्राप्त करने के लिए सभी गुरुशिष्यों का स्वागत है, अभिनंदन है, आइए विश्व शांति की कामना के साथ इस कक्षा का शुभारम्भ करें : 

 ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति:,पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।

वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:॥

अर्थात शान्ति: कीजिये प्रभु ! त्रिभुवन में, जल में, थल में और गगन में,

अन्तरिक्ष में, अग्नि – पवन में, औषधियों, वनस्पतियों, वन और उपवन में,सकल विश्व में अवचेतन में,शान्ति राष्ट्र-निर्माण और सृजन में,  नगर , ग्राम और भवन में प्रत्येक जीव के तन, मन और जगत के कण – कण में, शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए ! शान्ति कीजिए !

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मितभाषण (कम बोलना),परिष्कृत-भाषण के साथ-साथ मधुर भाषा भी वाणी संयम का एक अंग है | कटु बोलने और कर्कश  व्यवहार करने के कारण हृदय में जो दुर्भावनायें उत्पन्न होती है वे भी हमारी शक्तियों को नष्ट करती हैं। इसीलिए  तैत्तिरीय उपनिषद् के ऋषि ने “जिह्वा में मधुमत्तमा” कहते हुए  ईश्वर से प्रार्थना की है कि हे ईश्वर मेरी जिह्वा सदैव मधुर वचन ही बोले। मैं कभी भी कटु कर्कश और कुवचन द्वारा अपनी वाणी को कलंकित न करूँ। कटु,अभद्र और अशिष्ट शब्द जहां अपने चारों ओर के वातावरण को कलुषित और अमंगल-जनक बनाते हैं  वहीं  अपने  तथा दूसरों के जीवन को कष्टप्रद बनाते हैं। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि शब्द, अमृत और विष दोनों का काम करते हैं। जहाँ शब्दों को ह्रदय जीत लेने की संज्ञा दी गयी है वहीँ उन्हें   धनुष से निकले बाणों जैसा भी बताया गया है, उन्हें ह्रदय को छलनी करने वाला भी बताया गया है।

जब वाणी सत्य एवं  प्रफुल्लता बढ़ाने वाली, निष्कपट, मधुर और हितकर होगी तो वह अमृतमय बन जाती है।मधुर वाणी स्वयं को शीतलता और शांति प्रदान करती है तथा ओरों की प्रफुल्लता और प्रसन्नता में भी अभिवृद्धि करती है।  यही कारण है कि कबीर जी ने कहा है: 

ऐसी वाणी बोलिये  मन का आपा खोय, औरन को शीतल करे, आपुही शीतल होय, अर्थात  मनुष्य  को ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जो सुनने वाले के मन को बहुत अच्छी लगे। मधुर भाषा, सुनने वालों को तो सुख पहुँचाती ही है, इसके साथ ही स्वयं  को भी बड़े आनंद का अनुभव कराती है।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने मधुर भाषण को वशीकरण मन्त्र बताया है। 

“तुलसी मीठे वचन ते, सुख उपजत चहुं ओर । वशीकरण एक मंत्र है, तज दे वचन कठोर ॥”

कठोर वचन एवं  कटुभाषण वाणी को विषाक्त कर देते है। उससे औरों का हृदय तो दग्ध होता ही है बोलने वाले का आन्तरिक संतुलन भी बिगड़ता और चित्त में बेचैनी परेशानी से लेकर वैरभाव शत्रुता जैसी विध्वंसक भावनायें तक  उत्पन्न होने लगती हैं ।

कहा जा सकता है कि सत्य बोलने का व्रत लेने पर कोई सच्चाई

इतनीं कटु भी हो सकती है कि सुनने वालों को बुरी लगे । वैसी स्थिति में अनावश्यक और अप्रिय सत्य बोलना भी वाणी के असंयम में गिना गया है क्योंकि बोलना वही आवश्यक है जहां किसी का कोई हित सधता हो।अनावश्यक,अनुपयोगी और अप्रिय सत्य को मनीषियों ने भी  निषिद्ध बताया है और सत्य भाषण की व्याख्या करते हुए कहा है:  “अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं चयत्”अर्थात्  जिन वचनों से  सुनने वालों को दुःख  न हो, जो प्रिय हो तथा जो हित के उद्देश्य से कहे गये हों, ऐसे सत्य वचन बोलना ही धर्म सम्मत है। 

मनुष्य में वाणी संयम के ये सभी गुण आने बहुत आवश्यक है। दूसरों को दुःख पहुँचाने वाले (कर्कश, कटु) अप्रिय तथा व्यर्थ की बातें करने जैसी मलीनताओं से मुक्त वाणी ही वाक्व्यवहार के द्वारा मानसिक शक्तियों को अपव्यय से रोक कर संयमित निग्रहीत करती है

पिछले दो लेखों में एक महत्वपूर्ण एवं बेसिक तथ्य को समझने का प्रयास हो रहा था कि वाणी-संयम, वाणी-शोधन, मितभाषण से हम किसी का भी दिल जीत सकते हैं, उसे अपना दास बना सकते हैं। यदि यह इतना सरल है तो फिर परिवारों में कलह-कलेश क्यों है ? समाज में इतना घृणित वातावरण क्यों है? संसार में इतने युद्धों का कारण क्या है ? इसका केवल  एक ही कारण है कि वातावरण ने मनुष्य को “एक भटका हुआ देवता” से सर्वगुण, सर्वश्रेष्ठ, सुशिक्षित दानव बना दिया है जो यह मान बैठा है कि उसे अपना उल्लू सीधा करना है,बाकी चाहे कुछ भी दाव  पर लग जाए, कोई चिंता नहीं है। Who, cares? I don’t care,Take it easy जैसे Slangs इतने कॉमन हो गए हैं कि वाणी-शोधन, वाणी-संयम जैसे शब्दों को समझने के लिए एक योग्य शिक्षक की आवश्यकता है, AI, Chatgpt, गूगल जैसे विकल्प तो सब हर तरह की शिक्षा प्रदान कर रहे हैं लेकिन Disclaimer लिख कर किसी भी ज़िम्मेदारी से पल्ला भी झाड़ रहे हैं। आज का मानव स्वयं को इतना सुशिक्षित,समझदार,सर्वगुणसम्पन्न,सर्वश्रेष्ठ आदि मान चुका  है कि क्या कहा जाए !!!!! 

ऐसी काम्प्लेक्स स्थिति में परम पूज्य गुरुदेव ने ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के सदस्यों को एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी देकर सौभाग्य प्रदान किया है। हमारे गुरु का आदेश है कि उनकी दिव्य रचनाओं को समझकर, चिंतन करके अपने ह्रदय में उतार कर, अपने आचरण से आसपास के परिवारजनों के लिए प्रेरणास्रोत बनें। गुरुकक्षा का वातावरण इस बात का साक्षी है कि यह एक बहुत ही Interactive class है जहाँ लेख पोस्ट होते ही कमेंट पोस्ट होने शुरू हो जाते हैं, हम सब एक दूसरे से कमैंट्स के माध्यम से लेख के कंटेंट को समझने का प्रयास करते हैं,जहाँ कहीं भी, कोई भी टेक्निकल/ज्ञान से सम्बंधित समस्या होती है, उसे  सब समझने एवं समाधान का प्रयास करते हैं। यही हम सबकी जनशक्ति है, हम सबने गुरुदेव की लाल मशाल हाथ में थामी है, इसका प्रकाश न जाने कितने ही परिवारों को प्रकाशमय बना चुका  है एवं और कितनों को प्रदान करेगा, इसका समय ही साक्षी होगा क्योंकि समय सबसे बलवान है।               

वाणी संयम के विषय को आगे बढ़ाते हुए कहना अनुचित नहीं होगा कि हर कोई थोड़े से प्रयास से जान सकता है कि उसे कब, कितना और कैसा बोलना है, लेकिन अफ़सोस तो यह है कि ऐसा ज्ञान होने के बावजूद जब मनुष्य के अन्दर से कुछ कहने की हुड़क उठती है, उसका अहम् जाग उठता है। पुरषों में तो बहुप्रचलित Manhood, मर्दानगी,पुरुषत्व ही विनाश का कारण बन उठता है। शांतिकुंज के वरिष्ठ एवं आदरणीय वीरेश्वर उपाध्याय जी ने मर्दानगी को मुर्दानगी (किसी अन्य सम्बन्ध में) कह कर बताया तो हमारे ज्ञानचक्षु खुलने में एक पल भी नहीं लगा। अनायास ही ह्रदय ने कहा, “अरे मर्द है तो कुछ करके दिखा?”  ऐसी स्थिति आते ही ऐसे मर्दों से कण्ट्रोल नहीं होता, मन/मस्तिष्क पर नियन्त्रण न रहने के कारण ऐसे लोग न तो ठीक से विचार कर पाते हैं, न ही शब्दों को तोल पाते हैं और अनाप-शनाप बोलना शुरू हो जाते हैं। ऐसी स्थिति आते ही अपशब्दों की वर्षा,मानसिक शक्ति का अपव्यय साफ़/स्पष्ट दिखने लगता है। 

ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के अंतर्गत गुरुदेव के संरक्षण में चल रही गुरुकक्षा का प्रत्येक विद्यार्थी भलीभांति जानता  है कि  मौन व्रत  के अभ्यास से बोलने की प्रकृति पर कण्ट्रोल करने की क्षमता आ जाती है। इस क्षमता के विकसित होने से वाणी के संतुलन के अनेकानेक प्रयोग करने की स्थिति पैदा हो जाती हैं। पिछले लेख में ऐसी स्थिति प्राप्त करने के लिए दिया गया प्रैक्टिकल पूर्णतया वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक सबूत लिए हुए था। 

इसलिए एक बार फिर से स्मरण कराना उचित प्रतीत हो रहा है मन- संयम के साधक को “मौन साधना” का कुछ न कुछ क्रम अवश्य बनाकर रखना चाहिए। मौन का अर्थ यह नहीं है कि मुँह से कुछ न बोला  जाए लेकिन भाव से ऐसा  कुछ अनाप-शनाप व्यक्त का दिया जाए जिसे देखकर ज़ुबान भी शर्मा जाए। ऐसा करने से “मौन साधना” के सत्य- परिणाम प्राप्त नहीं होते, शब्दों का उच्चारण भले ही न किया जाता हो लेकिन  बोलने की वृति भाव भंगिमाओं से तो व्यक्त होती ही है। ऐसी स्थिति में जो शक्ति बोलने में खर्च होती थी वह इन Actions में होने लगती है। 

मौन का अर्थ आन्तरिक है, इसका सीधा सम्बन्ध अंतर्मन से है। स्वयं पर बाहरी  क्रियाओं का प्रभाव न होने देना, स्वयं को उनसे निरपेक्ष रखने का नाम मौन है। इस तरह का मौन तो सोते या अन्य कार्य करते हुए भी रखा जाता है। वाणी का संयम करने के लिए प्रत्येक मौन साधक को थोड़ा बहुत समय मौन साधना के लिए नियत रखना चाहिए। इसका नियमित अभ्यास असाधारण महत्व रखता है। सप्ताह में एक दिन या कुछ घण्टे ही सही मौन रहा जाय जिसे ज़ुबान बंद  रखने तक ही सीमित न किया जाय बल्कि इन्द्रिओं को भी इधर उधर बहकने से रोका जाय एवं  उन्हें अभीष्ट दिशा में नियोजित किया जाय। ज़ुबान  बन्द रख कर इशारों द्वारा भाव व्यक्त करने, लिख कर बताते रहने से, हफ्तों तक रखे गये मौन की अपेक्षा मानसिक प्रवृत्तियों पर अंकुश लगा कर किया गया मौन अधिक और असाधारण महत्व रखता है, इसी से प्रतक्ष्य परिणाम भी देखने को मिलते हैं। मौन द्वारा, वाणी के संयम द्वारा बहिर्मुखी दिशा से तथा विचार संयम द्वारा आन्तरिक दिशा में मानसिक शक्तियों का अपव्यय होने से रोक लिया जाय तो फिर इन्द्रियों का संयम आसान हो जाता है क्योंकि मन के द्वारा ही तो इन्द्रियां प्रेरित होती हैं जिनसे मनुष्य की शक्तियों का क्षरण होता है । यदि मन को कण्ट्रोल करके Organise  कर लिया जाय तो इन्द्रियों का संयम बहुत ही सरल हो जाता है। सारा खेल मन का ही तो है;  बहुत हो गया यह राग अलापते हुए, “दिल तो बच्चा है जी।” प्रकृति  का नियम है बच्चा सदैव बच्चा ही  तो नहीं रहता, जिस प्रकार शिशु, किशोर  वयस्क आदि Stages हैं ठीक उसी तरह मन भी सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ता जाए तो ही उचित रहेगा। 

धन्यवाद् जय गुरुदेव 

कल तक के लिए मध्यांतर   


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