वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

गुरुदेव द्वारा बताया गया आत्मनिरीक्षण का बहुत ही सरल प्रैक्टिकल 

अपने साथिओं को स्मरण कराना अपना कर्तव्य समझते हैं कि आजकल हम परम पूज्य गुरुदेव की दिव्य रचना “शक्ति संचय का स्रोत-संयम” को आधार बना कर एक अद्भुत ज्ञानप्रसाद लेख श्रृंखला का अमृतपान कर रहे हैं। यह लेख श्रृंखला इतनी सरल है कि अनेकों ने अनुभव किया होगा कि यह तो रोज़मर्रा की बाते हैं, घर-घर की कहानी है। इन्हें समझना कठिन नहीं है, यदि इतना ही सरल है तो फिर समस्याएं हमें क्यों व्यथित कर रही हैं ? ज्ञानप्रसाद लेखों  का मुख्य उद्देश्य  ही सरल से सरल समस्या को समझना,उसका एनालिसिस करना और ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार द्वारा ही रची गयी प्रक्रिया ( कमेंट-काउंटर कमेंट) से, एक दूसरे के साथ सूक्ष्म रूप में चर्चा करके औरों को समझाना है। हम इन लेखों  को ढूंढने, समझने,सरल करने में, अनेकों उदाहरणों की सहायता से यथासंभव प्रयास करते हैं, इस प्रयास में हमें जो आत्मिक शांति प्राप्त होती है उसे शब्दों में बाँध पाना संभव नहीं है। 

आज के लेख में गुरुदेव द्वारा सुझाया गया एक सरल सा प्रैक्टिकल हमें आत्मनिरीक्षण का अवसर दे रहा है,यदि इसे आज ही कर लिया जाए, समझ लिया जाए तो अनेकों साथिओं की अनेकों समस्याओं का समाधान हो सकता है। 

तो आओ गुरुचरणों में समर्पित होकर, गुरुकुल की आज की गुरुकक्षा का शुभारम्भ गुरुवंदना (आज का प्रज्ञा गीत) से करें लेकिन स्मरण रहे कि गुरुदेव की शार्ट वीडियो में दिया गया सन्देश न भूलने पाएं। 

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जब कोई व्यक्ति अनावश्यक (Unimportant) और अवांछनीय(Unwanted) चिन्तन में अपनी मानसिक शक्ति का अपव्यय (Wastage) करता रहता है तो रचनात्मक एवं महत्वपूर्ण दिशा में समय और शक्ति लगाने योग्य स्थिति नहीं बन पाती। ऐसी स्थिति में परम पूज्य गुरुदेव का निम्नलिखित सन्देश अति सुंदर एवं सार्थक मार्गदर्शन प्रदान कर सकता है : 

बाहरी परिस्थितियों में परिवर्तन के लिए सबसे आवश्यक तंत्र  “मानसिक संयम है।” मनुष्य को चाहिए कि वह  अपनी मानसिक शक्तियों की धारा को अनावश्यक और अवांछनीय दिशा से मोड़कर रचनात्मक दिशा में प्रवाहित करे। ऐसा करते  ही मनुष्य का कायाकल्प होना आरम्भ हो जाता है। 

अँधेरे में तीर चलाने से ,हवाई किले बनाते रहने से कुछ नहीं बनता, इतिहास साक्षी है कि इस प्रवृति वाले मनुष्य केवल बातें ही बनाते रहने के कारण स्वयं को धोखा देते हुए, चिन्तन की भटकी दिशा में ही सारा जीवन व्यतीत कर देते हैं। ऐसी प्रवृति के कारण मनुष्य के जीवन जो विकार पनपते हैं,वोह तृष्णा, अहंता और उद्विग्नता (Anxiety) के रूप में मनुष्य को विनाश के गर्त में धकेल देते हैं। अक्सर देखा गया है कि ऐसी प्रवृति के व्यक्ति सारा जीवन ही तुलना करते-करते,अशांत रह कर,स्ट्रेस के वशीभूत, एक बनावटी जीवन बिता कर इस दुनिया से कूच कर जाते हैं। 

पिछले ज्ञानप्रसाद लेख में दिया गया श्रीमद्भगवतगीता के अध्याय 2 का निम्नलिखित श्लोक आज फिर से रेफर करना कोई अनुचित नहीं है : 

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। सङ्गात् संजायते कामः कामात् क्रोधोऽभिजायते॥ 2.62॥

अर्थात  मनुष्य जब  बार-बार विषयों का विचार (चिंतन) करता है तो उन विषयों के प्रति उसमें आसक्ति उत्पन्न होती है। आसक्ति से कामना (इच्छा) उत्पन्न होती है, और कामना पूरी न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है।

क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥ 2.63॥

अर्थात क्रोध से उस इन्द्रिय के प्रति मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मृति भ्रमित होती है, स्मृति के भ्रम से बुद्धि का नाश हो जाता है, और बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है।

श्रीमद्भगवतगीता  में जिन्हें आसक्ति,कामना,क्रोध,अविवेक,पथभ्रष्टता और विनाश कहा गया है वे सब इस प्रकार के मनुष्य में आ जाती हैं।  अनावश्यक और अवांछनीय चिन्तन और इच्छाओं का परिणाम तृष्णा के रूप में सामने आता है। मनुष्य की तृष्णाओं,इच्छाओं और आकांक्षाओं का तो कोई अन्त ही नहीं है। वह ऐसी इच्छाएं करता रहता है जिन्हें पूरा करना तो क्या किसी से कहना भी अच्छा नहीं लगता। ऐसा मनुष्य समाज में जब ऐसी बातें  करते हुए हवाई किले बनाता  है तो जगहंसाई के इलावा कुछ भी प्राप्त नहीं होता। 

गुरुदेव कहते हैं कि यदि हम अपने दिन भर के विचारों या इच्छाओं को कागज पर नोट करते चलें, जब भी कोई इच्छा उठे सुबह से शाम के बीच उसे लिख लिया करें  और शाम को यह देखा जाय कि इन सारी इच्छाओं में से कितनी पूरी की जानी चाहिए, कितनी पूरी नहीं की जा सकती एवं कितनों की पूर्ति आसानी से हो सकती है तो यह आत्म- निरीक्षण (Self-analysis,Self-assessment) हो सकता है। इस सरल से प्रयोग से मनुष्य को खुद ही पता चल जायेगा कि वह अपनी मानसिक शक्तियों के कितने भाग का अनुपयुक्त रीति से और कितने का  उपयुक्त रीति से कर रहा है। इस प्रकार सजगतापूर्वक विचार प्रक्रिया (Thought process)  का निरीक्षण, मनुष्य के मन मस्तिष्क में चलने वाली अवाँछनीयता, निरर्थकता और सार्थकता को बिल्कुल ऐसे ही अलग करके रख देता है जैसे एक हंस दूध और पानी को अलग करता है। इसी को हंसवृत्ति कहते हैं। 

हमारे गुरुदेव की तो सारी  शिक्षा ही माँ गायत्री और विचार संशोधन पर आधारित है।  हम सब जानते हैं कि माँ गायत्री के वाहन हंस का श्वेत रंग पवित्रता का प्रतीक है और यह मां गायत्री के ज्ञान और विद्या की मूर्ति होने का प्रतिनिधित्व करता है। माँ गायत्री का यह वाहन हमें एक प्रतीक के रूप में बताता है कि “ज्ञान के वाहन” के  माध्यम से ही शक्ति और उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है। “ज्ञान का वाहन” ही मनुष्य को विवेक और शुद्धता का दर्शन कराता है। गायत्री उपासना में प्रतीकत्मक हंस होने का ज्ञान, दिव्यता और पवित्रता का आभास दिलाता  है।

अवांछनीय और निरुपयोगी विचार ही मनुष्य को भ्रमित एवं  पथभ्रष्ट करते है। ऐसे विचारों से ही  मृगतृष्णा, वासना, अहम् और रातोंरात बड़े बढ़ने की इच्छा आदि  व्यसनों की उत्पति होती है। कोई ज़माना था कि छोटे बच्चों को/विद्यार्थिओं को एक प्रकार की फिल्में देखने और उपन्यास पढ़ने पर भी प्रतिबंध लगाया जाता था, मातापिता बच्चों को अपने साथ ही पारिवारिक फिल्में दिखाने  के लिए लेकर जाते थे लेकिन आज तो सब कुछ बच्चे के हाथ में ही है ,मोबाइल में ही सब कुछ उपलब्ध है। ऐसा समझा जाता था कि बच्चे का कोमल मन अवांछनीय दिशा (Unwanted direction)  में बहक गया तो फिर वह वैसी ही  स्थिति प्राप्त करने की ज़िद करेगा। मन भी तो बच्चा ही है, वह भी ज़िद ही करता है, उसे उपयुक्त/अनुपयुक्त का कहाँ ज्ञान है? उसे कहाँ  मालूम कि उसे लिए क्या उपयोगी और अनुपयोगी है ? उसे क्या मालूम कि उसकी कितनी समर्था (पात्रता) है ?  

ऐसी  स्थिति अनुपयोगी चिन्तन (Useless thought process) के कारण होती है और व्यक्ति अपनी इच्छित वस्तु को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहता है। वह अपनी समस्त ऊर्जा और समय (जो सबसे बलवान है) ऐसी वस्तु को प्राप्त करने के लिए प्रयासरत रहता है,उस प्रयास में आ रही रुकावटें उसके अहं/अहंकार को उत्तेजित करती हैं,दूसरों की सम्पन्नता को देखकर उसके मन में ईष्या,द्वेष,वैर और  विरोध उत्पन्न होता है। ऐसी स्थिति में लगातार रहने के कारण,ऐसे मनुष्यों में व्याकुलता,फिक्रमंदी,उत्तेजना जैसे विकार उत्पन्न होते हैं। अवांछनीय और अनावश्यक  चिन्तन ही ऐसे विकारों की जड़ हैं और यही विकार “मानसिक शक्तियों के नाश” में घी का काम करती है। सभी पाठकों को इस बात का ज्ञान है कि जलती हुई आग में घी डालने से आग और भड़क उठती है। अवांछनीय चिंतन यानि ऐसा चिंतन जिसकी कोई ज़रुरत ही नहीं,मानसिक शक्ति को तो बर्बाद करते ही हैं उनमें तृष्णा वासना, अहंता और व्याकुलता  के विकार भी शामिल हो जाते हैं तो  विनाश की यह ज्वाला और भी अधिक भभक उठती है।

अधिक पाने की तृष्णा से ग्रस्त मनुष्य विनाश की भड़की हुई आग की लपटों में अकेले स्वयं को भस्म नहीं करता बल्कि उसके  साथ जुड़े सभी सगे सम्बन्धी,परिवार,नौकरी आदि भी प्रभावित होते हैं। इस अग्नि में वोह भी भस्म होते हैं। 

साथिओ, परम पूज्य गुरुदेव द्वारा दिया गया “विचार क्रांति अभियान” इसी व्यक्ति निर्माण,परिवार निर्माण,समाज निर्माण,देश निर्माण एवं विश्व निर्माण की बात कर रहा है। प्रज्ञामण्डलों में,शक्तिपीठों में, ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार में यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि केवल हाथ उठा कर, जयघोष बोल कर हम अपने गुरु का कार्य पूरा नहीं कर रहे हैं,एक-एक के अंतर्मन में जब गुरुशिक्षा का अवतरण होगा, तब कहीं जाकर हर परिवार को स्वर्गीय आनंद का आभास होगा।

किसी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा का नाम तृष्णा अर्थात प्यास है। मृगतृष्णा से भला कौन परिचित नहीं है। मरुस्थल की भीषण गर्मी में प्यासा मृग,चमकती रेत को पानी समझकर,भाग-भाग कर मरने की स्थिति में आ जाता है लेकिन पानी प्राप्त नहीं होता है। अरे मृग  तो जानवर है,मनुष्य को जानवर से इंसान तक पंहुचने के लिए, वर्षों लम्बी Evolution की प्रक्रिया को झेलना पड़ा,यदि ईश्वर के इतना तराशने के बाद भी मनुष्य जानवर का जानवर ही रहे तो क्या किया जाए। मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या है कि वह अक्सर अपनी Capability को नकारते हुए,अपने से अधिक/ऊँचे  सामर्थ्य वाले लोगों एवं वस्तुओं के लिए ही लालायित रहता है। उसे पड़ोसी का बड़ा घर,बड़ी गाड़ी,शानोशौकत आदि देखकर न जाने क्यों कष्ट और स्ट्रेस होता  है? एक निर्धन व्यक्ति के लिए मोटर/बंगले आदि की इच्छा करना, अनपढ़/ गंवार व्यक्ति के लिए शोधग्रन्थ लिखने की इच्छा करना एक बात है, उस इच्छा को पूरी करने के लिए प्रयत्न करना अलग बात हैं। इस दिशा में किए गए प्रयत्न/ परिश्रम का नाम तृष्णा नहीं है। तृष्णा में तो मनुष्य आरम्भ से ही अपने को लक्ष्य पर पहुँचा हुआ मान लेता है।  ऐसे मनुष्य  कल्पना में ही, कल्पित सपनों में ही आनन्द लेते रहते हैं। अगर स्वयं सपने लेने तक ही सीमित रहता तो कुछ हद तक ठीक रहता लेकिन ऐसे डींगें मारने वाले लोग तो विज्ञापनबाजी में भी कोई कसर नहीं छोड़ते। सपनों और विज्ञापनबाजी की अनावश्यक  और अनुपयुक्त दौड़ में दौड़ने के बजाए यदि लक्ष्यप्राप्ति की दिशा में विचार किया जाए तो अवश्य ही बहुत कुछ प्राप्त किया जा सकता है। इतिहास साक्षी है कि जिन्होंने भी परिश्रम किया,साधना की,कल्पनाओं का सहारा नहीं लिया,हवाई किले नहीं बनाए वही सफलता के शिखर तक पंहुचने में सफल हुए हैं। God helps those who help themselves का गोल्डन सिद्धांत कल भी सत्य था, आज भी सत्य है और कल भी सार्थक रहेगा। संसार में जहाँ कहीं भी असली हीरे होंगें, जौहरी स्वयं उन्हें ढूंढ ही लेंगें।  सत्पात्रों के लिए तो हिमालय से भी गुरु का अवतरण संभव है।

जय गुरुदेव 

कल तक के लिए मध्यांतर 


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