वेदमाता,देवमाता,विश्वमाता माँ गायत्री से सम्बंधित साहित्य को समर्पित ज्ञानकोष

आपके पास जीने के लिए एक ही पल है “वर्तमान”

शास्त्रकारों के अनुसार किन्हीं विचारों का प्रभाव मनुष्य के मस्तिष्क में बहुत देर तक बना रहता है। जब से यह विचार उठता है उसी क्षण से मनुष्य उसे साक्षात् करने की कोशिश करना आरम्भ कर देता है और जब तक वह साक्षात् नहीं हो जाता तब तक उसे चैन ही नहीं आता। इसका कहने का अर्थ तो यही निकालता है कि “विचार ही कर्म की जननी हैं।” मनुष्य को कोई भी कार्य करने के लिए विचारों का बहुत बड़ा योगदान है। 

अगर यह बात इतनी आसानी से समझ आ जाती है तो गुरुदेव के विचारों को घर-घर में पंहुचाने  के लिए हम प्रेरित क्यों नहीं हो पाते, क्यों हम बहानेबाज़ी का सहारा लेते हैं, क्यों नहीं हम तब तक सांस नहीं लेते,भोजन नहीं करते जब तक हम अपने गुरु द्वारा निर्धारित,निश्चित कार्य नहीं कर नहीं लेते।

हमने गुरुकार्य को कार्यों की Priority list में सबसे नीचे रखा हुआ है, जब सारे आवश्यक कार्य पूरे हो जायेंगें, उनके पूरे होने के बाद यदि समय मिला तो गुरुकार्य भी कर लेंगें, उसे न करने में कौन सा पहाड़ टूटने वाला है। 

मनुष्य की Priority List में सबसे प्रथम प्राथमिकता “विषयों की पूर्ति” है। विषयों अर्थात इन्द्रियों के भोग्य पदार्थ (रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द) की पूर्ति में मनुष्य की प्राथमिकता है। मनुष्य को सुंदर दृश्य (रूप), स्वादिष्ट भोजन (रस), मधुर संगीत (शब्द), सुगंध (गंध), मुलायम वस्त्र (स्पर्श) आदि चाहिए, इन सबकी पूर्ति के लिए वह दिन-रात एक Rat race  में लगा हुआ है, इस Rat race  में उसे अपनी ही सुध नहीं है तो गुरु की सुध कैसे लेगा? हाँ गुरु से भिखारी की तरह मांगने के लिए सदा ही तैयार रहता है, लेकिन उसे मालूम नहीं  की गुरु केवल पात्रता देखकर ही देता है। हमारे गुरुदेव ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया हुआ है “तू मेरा कार्य कर, बाकी सब मुझ पर छोड़ दे।”

विषयों में डूबा हुआ मनुष्य सारा जीवन इसी जंजाल में से निकलने का प्रयास  करते-करते बहुमूल्य जीवन गँवा देता है। इस सन्दर्भ में श्रीमद्भगवतगीता अध्याय 2 का 62-63 निम्नलिखित श्लोक बिल्कुल सटीक बैठता है : 

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते। सङ्गात् संजायते कामः कामात् क्रोधोऽभिजायते॥ 2.62॥

अर्थात  मनुष्य जब  बार-बार विषयों का विचार (चिंतन) करता है तो उन विषयों के प्रति उसमें आसक्ति उत्पन्न होती है। आसक्ति से कामना (इच्छा) उत्पन्न होती है, और कामना पूरी न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है।

क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥ 2.63॥

अर्थात क्रोध से उस इन्द्रिय के प्रति मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मृति भ्रमित होती है, स्मृति के भ्रम से बुद्धि का नाश हो जाता है, और बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है।

गीता संक्षेप में कहती है कि विषयों का चिंतन → आसक्ति → कामना → क्रोध → मोह → स्मृति भ्रम → बुद्धिनाश → पतन का क्रम बन जाता है। इसलिए साधक को चाहिए कि विषयों के पीछे न भागकर, ईश्वर का स्मरण करे, तभी मन शुद्ध और स्थिर रहेगा ।

बी आर चोपड़ा जी का बहुचर्चित सफल धारावाहिक सीरियल “महाभारत” की वीडियो क्लिप भी यही कह रही है।  यही विचार वर्षों से हमारे वर्किंग टेबल को सुशोभित कर रहे हैं जिन्होंने हमारी प्रवृति इस तरह की बना दी है।

  https://youtube.com/shorts/Nz9LHzf6gk4?si=GRj5vvt0LF4u553n

परम पूज्य गुरुदेव इस विषय में बड़े ही स्पष्ट शब्दों में हम बच्चों को सचेत कर रहे हैं कि प्रायः हमारी शक्तियां इसी प्रकार नष्ट होती रहती  हैं। हमें जिन विषयों का चिन्तन नहीं करना चाहिए, या जो विचार प्रत्यक्ष पतन की दिशा में ढकेलने वाले लगते हैं उन्हें सोचकर, हवाई किले बनाते हुए  मन के लड्डू खाते रहने में ही अधिकांश लोग अपना चिन्तन और बहुमूल्य समय नष्ट करते हैं । उदाहरण के लिए मेहनत मजदूरी करके अपना पेट भरने वाले लोग सम्पन्न होने और रईसी ढंग से खर्च करने की बात सोचा करते हैं। वह जानते हैं कि ऐसा करना उनके बस की बात नहीं है फिर भी उस तरह की कल्पनायें करने में ही रस लिया करते है । शेखचिल्ली की वह कहानी सर्वविख्यात है जो अपने सिर पर दूध की मटकी लिये जा रहा था, उसे बेचकर बकरी खरीदने, बकरी से गाय, गाय से अनेकों गायें, फिर परिवार बसाने और बच्चे होने तक की न जाने किन-किन बातों के ख्याली पुलाव बना गया।   इन ख्याली पुलाव जैसे विचारों में इतना आसक्त हो गया कि  लापरवाही से मटकी ही फूट गयी,दूध गिर गया तो घर उजड़ जाने का रोना रटते  हुए सिर पीटने लगा। 

अधिकतर  लोग इसी तरह के सपने देखते रहते  हैं और अपनी मानसिक शक्ति का जो श्रेष्ठतम  उपयोग इस समय के लिए किया जा सकता था उसे भविष्य का ताना बाना बुनने या बीते हुए कल का पश्चाताप करने में नष्ट कर देते हैं। सपने देखना,प्रसन्न होना कोई बुरी बात नहीं है, उसे नकारना कतई ठीक नहीं है लेकिन सपनों को साकार करने के लिए प्रयास करना,सपने देखने से अधिक महत्वपूर्ण है। इसका एकमात्र उपाय प्रतिभा और और पात्रता का विकास एवं उत्कृष्टता ही है, इससे कम  में कुछ नहीं होने वाला।   

जिस तरह भविष्य के ख्याली पुलाव पकाने या कल की चिन्ता करने में लोग अपनी बहुमूल्य शक्ति बर्बाद कर देते हैं। उसी प्रकार जो बीत चुका है, जो हमारी पकड़ से छूट चुका है उसका रोना रोते हुए  ऐसे लोग सुन्दर वर्तमान का कोई उपयोग नहीं कर पाते। 

बुद्ध का कथन “अतीत तो बीत चुका है, और भविष्य अभी आया नहीं है। आपके पास जीने के लिए बस एक ही पल है”, वर्तमान क्षण में जीने के महत्व पर ज़ोर देता है। यह हमें याद दिलाता है कि अतीत बीत चुका है और भविष्य अनिश्चित है। जो हो चुका है,हम पीछे जाकर उसे बदल नहीं सकते क्योंकि जीवन की गाड़ी में रिवर्स गियर (Reverse gear) होता ही नहीं है। हम यह भी अनुमान नहीं  लगा सकते हैं कि भविष्य में क्या होगा, हम कोई ज्योतिषी तो हैं नहीं। हाँ कई बार ज्योतिषिओं की भविष्यवाणी ठीक भी होती देखि गयी है। यदि कोई क्षण हमारे कण्ट्रोल में है तो वह  “केवल और केवल  वर्तमान” ही है। वर्तमान पर ध्यान केंद्रित करके मनुष्य हर पल का भरपूर आनंद उठा सकता है यां  फिर उसका पूरा लाभ उठाए बिना उसे यूँ ही बर्बाद होने जाने दे सकता है, चयन तो उसी ने करना है। वर्तमान के प्रति सचेत रहकर, हम अपने समय का भरपूर उपयोग कर सकते हैं और सार्थक अनुभव प्राप्त कर सकते हैं। हम उन पलों का आनंद ले सकते हैं जो हमें खुशी देते हैं और उनका उपयोग एक उद्देश्यपूर्ण और संतुष्टिपूर्ण जीवन बनाने के लिए कर सकते हैं। वर्तमान में जीकर, हम जीवन की सुंदरता की सच्ची सराहना कर सकते हैं और हर पल का भरपूर आनंद उठा सकते हैं।

लेकिन ऐसा तभी संभव होगा जब हम मानसिक एवं  शरीरिक शक्तियों की फिजूलखर्ची को रोक पाने में समर्थ हो पायेंगें  यदि हम मानसिक शक्तियों को भविष्य के सपने देखने एवं बीते हुए कल के लिए चिन्तित बने रहने को रोक सकें तो मनुष्य अपनी शक्तियों के विशाल भांडागार का उपयोग करके वर्तमान को सुन्दर बनाने और उज्ज्वल भविष्य की आधारशिला रखने में कर सकता  है ।

शक्तियों की फिजूलखर्ची के कारण हम अपनी मानसिक शक्तियों का लाभ उठाने से वंचित रह जाते हैं । अपनी शक्तियों का अवांछनीय दिशाओं में व्यय करना प्रत्यक्ष हानि उपस्थित करता है। शराबियों के बीच रहते हुए अपने विचार भी शराबियों जैसे ही बनने लगते हैं । कुसंगति में पड़ कर कोई व्यक्ति तत्काल ही अपने साथियों का अनुकरण नहीं करता। पहले देर तक उन पर विचार करता है । लम्बी अवधि तक वैसे ही विचार करते रहने के कारण शराब पीने की इच्छा  होती है और वह मद्यपान में प्रवृत्त होता है। जीवन व्यवस्था में कभी भी कोई परिवर्तन अचानक नहीं हो जाता । जब भी मनुष्य कोई कार्य करता है तो क्षणिक आवेश में नहीं बल्कि देर तक उस भावना को अपने हृदय में जमाये रहने के बाद ही करता है । मनोवैज्ञानिक इसे Mental make up कहते हैं 

उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति किसी की हत्या कर देता है तो यह कहना अनुचित होगा कि उसने क्षणिक आवेश में आकर ऐसा कर दिया । वस्तुतः तो वह हत्या की भावना अपने मन में देर से पाले हुए था। वह परिस्थिति तो उन विचारों को कार्यक्रम में अभिव्यक्त होने देने का अवसर मात्र थी जिसे हम “क्षणिक आवेश” कहते हैं ।

मनुष्य विचार करने में स्वतंत्र है । भले ही वैसी क्रिया की उसे स्तंत्रता न हो। इसीलिए विचार जब आकांक्षा का रूप धारण कर लेते हैं तो व्यक्ति उस आकांक्षा  को पूरा करने के अवसर की ताक में रहता है। “अपराध-कर्म या अवांछनीय-कार्यों के जनक अपराधी और अवांछनीय विचार ही हैं।” बाहरी परिस्थितियाँ तो विचारों के अनुरूप ही प्रभाव डालती है। अर्जुन से एक बार इन्द्र दरबार  की अप्सरा उर्वशी ने प्रणय निवेदन किया। यदि अर्जुन विचारों से वशीभूत  होते तो वही परिस्थिति उनके लिए पतन का कारण बन जाती लेकिन अर्जुन ने “विचारों का संयम” परिस्थितियों से अप्रभावित रहना सीखा था, सो वही परिस्थिति उनके चरित्र को निखारने वाली बन  गयी ।

अतः किसी दुष्कर्म का कलंक छुटाने के लिए यह नहीं कहा जा सकता कि आकस्मिक या परिस्थितिवश हुआ, उसकी जड़ हमारे विचारों में, हमारे चिन्तन में बहुत पहले ही जम चुकी थी।


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