1 अक्टूबर 2025 का ज्ञानप्रसाद
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से पिछले कुछ दिनों से परम पूज्य गुरुदेव की अद्भुत रचना “शक्ति संचय का स्रोत-संयम” को आधार बनाकर, एक-एक शब्द को पढ़कर, समझकर,अधिक से अधिक प्रैक्टिकल बनाकर एक लेख श्रृंखला प्रस्तुत की जा रही है। इस लेख श्रृंखला में भांति-भांति के उदाहरण, परिवार के सदस्यों की प्रॉब्लम्स को आधार बनाकर अधिक से अधिक रोचक बनाने का प्रयास किया जा रहा है, आशा की जा रही है इन लेखों में समाहित ज्ञान लाभदायक सिद्ध हो रहा है।
प्रत्येक लेख की भांति आज का लेख भी बहुत ही सरल है,यदि इसका सन्देश समझ में आ गया तो जॉर्ज वाशिंगटन/अल्बर्ट आइंस्टीन बनने में कोई रोक नहीं पायेगा।
विश्वशांति की कामना से आज के दिव्य ज्ञानप्रसाद लेख का शुभारम्भ होता है:
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति:, सा मा शान्तिरेधि॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:
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यदि हम अपने आस पास, परिवार में,पड़ोस में नज़र दौड़ाएं तो देखेंगें कि एक से बढ़कर एक प्रतिभाशाली व्यक्तित्व व्याप्त हैं, कोई उच्चकोटि का वैज्ञानिक है तो कोई उच्चकोटि का कलाकार एवं कोई उच्चकोटि का लेखक। लेकिन यही दृष्टि हमें यह भी दिखाती है कि यह उच्चकोटि की प्रतिभाएं हज़ारों में एक ही होती हैं। हज़ारों में कोई एक साहित्यकार होता है, हज़ारों में कोई एक कलाकार होता है और हज़ारों में कोई एक वैज्ञानिक ही किसी विषय का विशेषज्ञ बन पाता है। ज़रा ध्यान से देखा जाये तो असलियत यह है कि इन विभूतिवान व्यक्तियों ने अपनी मानसिक शक्ति को उपयुक्त दिशा में लगाया तथा उसका लाभ उठाया और कहाँ से कहाँ पंहुच गए। मानसिक शक्ति को सही-सही उपयोग और विकास में लगाने के लिए ईश्वर ने कभी भी किसी को रोका नहीं है, ईश्वर की शक्ति तो सभी को उपलब्ध है।
परम पूज्य गुरुदेव बता रहे हैं कि मनुष्य को ईश्वर द्वारा प्रदान की गयी अपनी अनंत शक्तियों को पहचानने का प्रयत्न करना चाहिए क्योंकि जब तक वह उन्हें पहचान नहीं पाएगा तब तक उसे इन शक्तियों के महत्व एवं उपयोग का ज्ञान ही नहीं होगा।
अक्सर देखा गया है कि ईश्वर द्वारा प्रदान की गयी शक्तियों के महत्व को भुला दिया जाता है, उन्हें अनावश्यक एवं अनचाही दिशाओं में खर्च कर दिया जाता है और दोष ईश्वर पर मढ़ा जाता है कि उसने हमारे साथ पक्षपात किया। मनुष्य बेसिक तथ्य भूल जाता है और यह नहीं देखता कि जिन लोगों ने प्रगति की, उन्होंने अपनी शक्तियों का उपयोग किस प्रकार किया। वैज्ञानिक जब प्रयोगशाला में बैठ कर कोई अनुसंधान कर रहा होता है तो वह अपनी समस्त मानसिक प्रवृत्तियों और शक्तियों का सदुपयोग करता है तब कहीं जाकर एक थ्योरी यां सिद्धांत का जन्म होता है। साहित्यकार जब किसी कृति का सृजन करता है तो उसके मस्तिष्क में दुनिया की और कोई बात नहीं रहती है, उसका सारा ध्यान, उसकी संपूर्ण मानसिक शक्ति उस रचना को सुन्दर बनाने में लगी रहती है।
महर्षि अरविंद ने जिस साहित्य का सृजन किया वह अध्यात्म का सर्वोच्च और उत्कृष्ट स्तर का साहित्य है । जब वे सृजन कार्य में लगे रहते थे तब उन्हें अपने आसपास का भी कोई ध्यान नहीं रहता था। अरविन्दाश्रम की श्रीमाँ ने एक स्थान पर लिखा है: एक बार भयंकर तूफान आया,उनके कमरे की खिड़कियां ज़ोर-ज़ोर से खुलती/बन्द होती रहीं,भड़भड़ की आवाज़ होती रही लेकिन महर्षि अरविंद अपने कार्य में इस प्रकार लगे रहे जैसे कुछ हो ही न रहा हो ।
संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं उन्होंने अपनी मानसिक शक्ति को अन्य दिशाओं में बिखरने से रोक कर महत्वपूर्ण कार्यों में लगाये रखा, तब कहीं जाकर महान् कार्य सम्पन्न हो पाए। जब मनुष्य की मानसिक शक्तियां विभिन्न दिशाओं में यों ही बिखर जाती हैं तो उनका कोई उपयोग नहीं हो पाता,वे व्थर्थ दिशाओं में अनुपयुक्त और अवांछनीय ढंग से खर्च होती हैं। ऐसी स्थिति में मनुष्य के पास उपयोगी कार्यों के लिए, उपयोगी दिशाओं में लगाने के लिए मानसिक शक्ति बचती ही नहीं है। विकास और पतन के जो भी स्तर मनुष्यों में दिखाई देते हैं उनका कारण मानसिक शक्तियों का उपयुक्त अथवा अनुपयुक्त दिशाओं में लगना ही है ।
प्रगतिशील और उन्नत व्यक्तित्व के निर्माण में संयम यानि एक दिशा में मानसिक शक्तियों के सदुपयोग का बड़ा महत्व है । किसी विचारक ने बहुत ही सुन्दर शब्दों में निम्नलिखित कहा है:
“मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण तभी होता है जब उसकी स्वाभाविक प्रवृत्तियां एक निश्चित लक्ष्य को दृष्टि में रखकर व्यवस्थित की जाती हैं।
एक आदर्श एवं महान प्रतिभा के नेतृत्व में जब हम अपनी मानसिक शक्तियों एवं इच्छाओं को बैलेंस करते हैं तभी उच्चकोटि के व्यक्तित्वों का निर्माण होता है। यहाँ एक महत्वपूर्ण बात समझने वाली है कि “लक्ष्य” के बिना कुछ भी संभव नहीं है। यदि विद्यार्थी का लक्ष्य है कि उसे टॉप करना है,तभी वह संयम की कठिन प्रक्रिया की ओर अग्रसर होगा। यदि ऐसी धारणा एवं प्रवृति नहीं है तो “अँधेरे में तीर मारने” जैसा ही लगेगा। लक्ष्य के बिना संयम का कोई अर्थ है ही नही बल्कि यह भी कहना सच है कि “संयम की प्रेरणा” लक्ष्य प्राप्ति की इच्छा के बिना नहीं मिलती। नाविक का लक्ष्य नदी के किनारे पहुँचने का है, नौका चलाने की प्रेरणा उसकी मानसिक शक्ति एवं संयम से ही संभव हो पायेगी।
ऑनलाइन ज्ञानरथ गायत्री परिवार के मंच से बार-बार इस तथ्य को दोहराया जाता है कि ईश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति को मानसिक शक्ति के विकास की प्रचुर सम्भावनायें उपहार के रूप में देकर ही इस धरती पर भेजा है। लेकिन समस्या तो तब खड़ी होती है जब मनुष्य को उन शक्तियों का उपयोग करना ही नहीं आता और वह अविकसित ही रह जाती हैं। यदि इन शक्तियों का उपयोग न किया गया,यह शक्तियां सुप्त पड़ी रहें तो घाटा है और गलत दिशा में उपयोग किया गया तो हानि है। इसलिए ज़रूरी है कि साधक को “संयम के प्रयोग” की जानकारी हो मनुष्य को चाहिए कि वह संयम के द्वारा अपनी मानसिक शक्तियों के प्रवाह को गलत दिशा में जाने से रोके एवं उस प्रवाह को सही दिशा में मोड़े। दो दिशाओं में होने वाले इस प्रयास को ही “संयम की सफलता” समझा जाना चाहिए नहीं तो संयम एकतरफ़ा रह जायगा एवं उससे कोई विशेष लाभ नहीं उठाया जा सकेगा ।
मनुष्य की सबसे बड़ी कमज़ोरी है कि वह एक समाजिक प्राणी है, समाज में रहना उसकी अनिवार्यता है। यदि वह समाज में बैलेंस होकर रहे, संयम बरते तो कोई समस्या नहीं है लेकिन मोह,तृष्णा,अहंता उद्विग्नता आदि की ज़ंजीरें उसके व्यक्तित्व को ऐसा जकड़ लेती हैं कि वह भूल ही जाता है कि उसे इस संसार में क्यों भेजा गया था। उसे अपनी मानसिक शक्तियों के सदुपयोग की सुध ही नहीं रहती,वोह ऐसी दिशा में नष्ट होती रहती हैं जिनसे कुछ भी प्राप्त नहीं होता।
परिवार के सदस्यों से स्नेह किया जाय, उनके प्रति कर्तव्य का पालन किया जाय यह तो ठीक है किन्तु सारा जीवन उन्हीं के लिए मरते-खपते रहने का तो कोई औचित्य नहीं है। मोहग्रस्त व्यक्ति इससे भी एक कदम आगे निकल जाता है, वह अपने परिवार वालों के लिए न केवल दिनरात खपता रहता है बल्कि मस्तिष्क में भी उन्हें अधिक से अधिक सुविधाएँ प्रदान करने की उधेड़बुन में लगा रहता है। व्यक्तियों के प्रति यह भावना “मोह” है तो वस्तुओं के प्रति उत्पन्न होंने वाली इसी भावना का नाम “तृष्णा” है। अनावश्यक रूप से वस्तुओं को इकट्ठा करने की योजनायें बनाना और उनका ताना बाना बुनना “तृष्णा से ग्रसित बीमारी” ही है। गहराई से देखा जाय तो अनावश्यक रूप से वस्तुओं को इक्क्ठा करने की कोई उपयोगिता नहीं है। इसका एकमात्र उद्देश्य अपना अहंकार बढ़ाने, समाज में अपने बड़प्पन का सिक्का जमाना ही है, इससे अधिक कुछ भी नहीं है। यह भौतिकवाद को बढ़ावा देने के इलावा कुछ भी नहीं है। आज के समाज में एक बड़ी ही विचित्र सी स्थिति प्रचलित है। भौतिकवाद को प्रमोट करते हुए, बड़ा घर,बड़ी गाड़ी, ऊँची पदवी यहाँ तक कि बड़े खाने की प्रशंसा न हो तो लोग क्रोधित हो जाते हैं। रेस्टोरेंट में खाना खाने गए, वहां से फोटो क्लिप लिए, सोशल सर्किल में शेयर किये; यदि किसी ने थम्ब्स अप नहीं किया तो क्रोधित हो गए। आज का मानव इतने निम्नस्तर तक पंहुच चुका है, तो हुई न मानसिक शक्तियों की फिजूलखर्ची। मनुष्य के दिमाग में एक कीड़ा बैठा हुआ है जो उसे कहने पर विवश कर रहा है कि मैं बड़ा हूँ,लोग मेरी प्रशंसा करें, किस प्रकार लोगों पर अपना प्रभाव जमा सकता हूँ लेकिन उसे “Who cares ?” वाले सिद्धांत का ज्ञान नहीं है। ऐसे मनुष्यों की सारी मानसिक शक्तियों का इसी दिशा में नाश होता रहता है, वोह उनसे कोई लाभ नहीं उठा पाते और जब आँख खुलती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। वह अपने ही Fools Paradise में सारा जीवन बिना किसी उत्तम उद्देश्य के बिता देते हैं।
तो साथिओ यह तो हुई भौतिकवाद की बात जिससे मनुष्य अपने ही Ivory tower में, स्वयं ही अपने को बड़ा समझे जा रहा है, कोई कहे या न कहे।
परिवार के साथ ज़रुरत से अधिक मोह होना भी एक बहुत ही प्रबल ज़ंज़ीर है जिसे तोड़ पाने के लिए सख्त संयम की आवश्यकता होती है क्योंकि पदार्थ/वस्तुएं तो जड़ हैं, परिवार के साथ तो मनुष्य का आत्मा का सम्बन्ध है, आत्मा को आत्मा से कैसे अलग किया जा सकता है, लेकिन करना पड़ता है, करना चाहिए। परिवार में सभी सदस्यों को अपना-अपना योगदान देने के लिए प्रेरित करना चाहिए। ऐसा करने से बच्चे आत्मनिर्भर बनने के साथ-साथ अपने माता पिता की सहायता भी कर पाते हैं। लेकिन क्या करें, मोह के वशीभूत, माता पिता खुद ही बच्चों के लिए सब कुछ करना चाहते हैं,ऐसा करने में भले ही उनकी कमर क्यों न टूट जाये। यह भी तो समाज में वाहवाही लूटने वाली बात हुई। “मोह का संयम” और “तृष्णा का संयम” दोनों ही वाहवाही एवं बड़ा दिखने की धारणा प्रकट करता है। बेहतर होगा कि मनुष्य इन दोनों का बैलेंस बनाए रखे और अपनी मानसिक शक्तिओं को बचा कर उनका सदुपयोग करे।
परम पूज्य गुरुदेव का साहित्य यदि इस दिशा में सही मार्गदर्शन देता है तो व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण, समाज निर्माण एवं युग निर्माण जैसे कार्य स्वतः ही पूर्ण होते दिखेंगें
इन्ही शब्दों के साथ आज के लेख का मध्यांतर, जय गुरुदेव,धन्यवाद्
